: २८ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९८ :
संतज्ञानीना ज शरणे रहीशुं.
–जो तो खरी बेन! केवी अद्भुत छे एमनी मुद्रा! केवो पुण्यप्रभाव एमनी मुद्रा
पर झळकी रह्यो छे!! ने केवी महान प्रभावनानां कार्यो तेओ करी रह्यां छे!!
ज्ञप्ति:–सखी, ए बधी वात तारी साची; पण एनाथी विशेष कांई तने देखाय छे?
चिति:–(ऊंचे–नीचे जोईने–) बेन, बीजुं तो कांई मने देखातुं नथी; तुं बताव!
ज्ञप्ति:–
अरे बेन! मूळ वस्तुने ज तुं तो भूली गई! ले सांभळ! आ
पुण्यप्रभाव आ वैराग्यरसझरती मुद्रा, अने आ प्रभावनानां कार्यो–ए
कोईनी साथे आ धर्मात्मानी चेतना तन्मय नथी. आ ज्ञानी–धर्मात्मानी
चेतना तो एमना आत्मा साथे ज तन्मय छे, ने ए चेतनाथी ज तेओ
पूजय छे, तेनाथी ज तेओ वीतराग छे, तेने लीधे ज तेओ महान अने
मोक्षना साधक छे.
सांभळ–
मंगलमय मंगलकरण वीतराग–विज्ञान;
नमुं तेह जेथी थया अरिहंतादि महान.
चिति:– वाह बेन, साची वात! आपणे एवा वीतरागी विज्ञानस्वरूपे
ओळखीने ज आ धर्मात्मानी सेवा करवानी छे....पण बेन, एमने
वीतराग–विज्ञानस्वरूपे केवी रीते ओळखवा?
ज्ञप्ति:– अहा, ए ओळखाण तो घणी गंभीर छे, घणी ऊंडी छे.
चिति:– भले गंभीर होय, ने भले ऊंडी होय, पण आपणे शीखवी तो छे ज ने!
ज्ञप्ति:–
हा, बेन! जरूर शीखीशुं. जो, तेमनी पासेना आ सम्यग्द्रष्टिए एमने
साचा स्वरूपे ओळखी लीधा, ने तेमना प्रतापे पोतानी चेतनाने पण
ओळखी लीधी. प्रवचनसारनी ८० मी गाथामां कह्युं छे तेवुं तेमणे कर्युं
चिति:– वाह बेन! तेओ ज तेमना खरा शिष्य थया; ने तेओ ज तेमना साचा
साधर्मी थया. केवुं मजानुं आदर्शरूप छे आ धर्मात्माओनुं जीवन!
ज्ञप्ति:– हा सखी! एटले तो आपणे आनंदथी एनो उत्सव ऊजवीए छीए.
चिति:– हा बेन, पण हवे आपणे मात्र बहारना उत्सवनी धामधूमथी संतोष नहि