: श्रावण : २४९८ : आत्मधर्म : २७ :
धर्मात्मानो मंगल उत्सव
“चेतनानी शोधमां.....”
[एक नानकडी नाटिका]
धर्मात्मा संतोना भक्ति–बहुमानपूर्वक ज्ञानादिना अनेकविध
मंगलउत्सवो सदाय उजवाता होय छे. एवा मंगल उत्सव वखते, जे
धर्मात्माना निमित्ते ते उत्सव उजवाय छे ते धर्मात्माना अंतरंग हार्द सुधी जीव
पहोंचे तो तेने महान आत्मलाभ थाय. अंतरंग हार्दने ओळख्या वगर एकला
बहारना ठाठ–माठ के नृत्य–गानमां धर्मात्मानो साचो महिमा प्रसिद्ध थई
शकतो नथी. एटले मुमुक्षु जीवनी भक्ति मात्र भजन–संगीत के नृत्य–गानमां
ज समाप्त थती नथी पण तेनाथी आगळ वधीने धर्मात्माना ऊंडा हदयमां
प्रवेशीने तेनी चेतना सुधी पहोंची जाय छे. धर्मात्माना अंतरंग हार्द सुधी
पहोंचीने तेना साचा महिमाने प्रसिद्ध करती एक नानकडी नाटिका अहीं आपी
छे–जे सर्वे मुमुक्षुओने आनंद आपशे. (सं.)
[एक सखी एकली–एकली टळवळी रही छे.....
त्यां दूरथी बीजी सखी आवी रही छे––––]
एक सखी:–ओ सखी!
ओ सखी! हुं तो भटकी–भटकी,
शोधुं चेतना म्हारी......
क््यां मळशे मुज चेतना,
सखी! हुं तो टळवळती......
बीजी सखी:–अहीं आव, बेनी अहीं आव! तने चेतना अहीं मळशे. अहीं चेतनावंत
धर्मात्मा बिराजी रह्या छे, तेमनी सेवाथी तने चेतना मळशे.
[आपणे आ बंने सखीओनां नाम चिति अने ज्ञप्ति राखीशुं.] ज्ञप्तिनी वात
सांभळीने चिति दोडती नजीक आवे छे; ने धर्मात्माने देखीने आनंदित थाय छे.
चिति:– वाह सखी! अद्भूत छे आ धर्मात्मा! चेतनानी प्राप्ति माटे आपणे आ