Atmadharma magazine - Ank 346
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: २६ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९८ :
एकाग्रताथी ज परम निष्कांक्षभावना होय छे, ने आवी दशावाळा रत्नत्रययुक्त
उपाध्यायादि साधु भगवंतोने अमे भक्तिथी फरी फरीने वंदन करीए छीए.
मुनि भगवंतो पोतानी अंतर्मुख रत्नत्रयपरिणतिमां वर्ते छे; विकल्परूप
बाह्यपरिणति–तेमां मुनिओ तन्मय थता नथी. तेम सम्यग्द्रष्टि पण पोताना निर्मळ
चैतन्यभावमां वर्ते छे, रागादिमां ते खरेखर वर्तता नथी. रागपरिणति अने
चैतनापरिणति बंने तद्न जुदुं काम करे छे.
अहा, मोक्षना साधक साधुओनी दशा तो परमात्मतत्त्वनी भावनामां परिणमी
गई छे, एकदम अंतर्मुख ढळी गई छे, तेथी ते निर्मोह अने निर्ग्रंथ छे. चैतन्यना
आनंदनो अनुभव करीने जेओ विषयोथी सदा विरकत छे ने आत्मामां सदा अनुरकत
छे एवा चार आराधनाना आराधक साधुओ, मोक्षनी सन्मुख छे ने भवथी विमुख छे;
एवा साधुओनी पवित्र चेतन्यदशा अमने वंघ छे, अमे तेने वंदीए छीए.
णमो लोप सव्व साहूणं
अपूर्व महिमावंत चैतन्यवस्तु
जेने अंतरमां आत्मानी गरज थई होय, सम्यग्दर्शन प्रगट
करवानी चाहना जागी होय तेवो जीव चैतन्यने पकडवा माटे एकांतमां
अंतर्मंथना करे छे के अहो! चैतन्यवस्तुनो महिमा कोई अपूर्व छे,
एनी निर्विकल्प प्रतीतिने कोई रागनुं के निमित्तनुं अवलंबन नथी;
शुभभावो अनंतवार कर्या छतां चैतन्यवस्तु लक्षमां न आवी, तो ते
रागथी पार चैतन्यवस्तु कोई अंतरनी अपूर्व चीज छे, तेनी प्रतीत
पण अपूर्व अंतर्मुख प्रयत्नथी थाय छे.–आम चैतन्यवस्तुने पकडवानो
अंतर्मुख उधम ते सम्यग्दर्शननो उपाय छे.