उपाध्यायादि साधु भगवंतोने अमे भक्तिथी फरी फरीने वंदन करीए छीए.
चैतन्यभावमां वर्ते छे, रागादिमां ते खरेखर वर्तता नथी. रागपरिणति अने
चैतनापरिणति बंने तद्न जुदुं काम करे छे.
आनंदनो अनुभव करीने जेओ विषयोथी सदा विरकत छे ने आत्मामां सदा अनुरकत
छे एवा चार आराधनाना आराधक साधुओ, मोक्षनी सन्मुख छे ने भवथी विमुख छे;
एवा साधुओनी पवित्र चेतन्यदशा अमने वंघ छे, अमे तेने वंदीए छीए.
अंतर्मंथना करे छे के अहो! चैतन्यवस्तुनो महिमा कोई अपूर्व छे,
एनी निर्विकल्प प्रतीतिने कोई रागनुं के निमित्तनुं अवलंबन नथी;
शुभभावो अनंतवार कर्या छतां चैतन्यवस्तु लक्षमां न आवी, तो ते
रागथी पार चैतन्यवस्तु कोई अंतरनी अपूर्व चीज छे, तेनी प्रतीत
पण अपूर्व अंतर्मुख प्रयत्नथी थाय छे.–आम चैतन्यवस्तुने पकडवानो
अंतर्मुख उधम ते सम्यग्दर्शननो उपाय छे.