: श्रावण : २४९८ : आत्मधर्म : ३ :
अमृत वर्षा
अषाड वद छठ्ठ अने सातम ए बे दिवस धन्य हता, ते
दिवसे पू. श्री कहानगुरुना श्रीमुखथी चैतन्य रसभरेली
अमृतवर्षानो प्रारंभ थयो, ने मुमुक्षुहदयमां चैतन्य–पुष्पो
खीली ऊठया. ए बे दिवसोमां वरसेलुं चैतन्यनी अनुभूतिना
आनंदनुं अमृत आ लेखमां भर्युं छे. लांबाकाळथी तृषातुर
जीवोने ते जरूर तृप्त करशे ने आनंदना नवीन अंकूरा
प्रगटावशे. सोनगढमां अध्यात्मरसनी अमृतवर्षा गुरुमुखे
दररोज वरसी रही छे.
स्वानुभूति – वर्णन
हुं एक शुद्ध सदा अरूपी, ज्ञान–दर्शनमय खरे,
कंई अन्य ते मारुं जरी, परमाणुमात्र नथी अरे!
समयसारनी आ ३८ मी गाथामां धर्मात्माने आत्मानी स्वानुभूति केवी थई
तेनुं अलौकिक वर्णन छे.
आत्माने पहेलांं धर्म नहोतो थयो त्यारे तेनी केवी दशा हती? ने हवे आत्मा
धर्मरूप थयो–सम्यग्दर्शनादिरूप थयो त्यारे तेनी केवी दशा थई? तेनुं आ वर्णन छे.
जेने आत्माना आनंदस्वरूपनुं भान थयुं छे, पूर्ण ज्ञानदर्शनथी भरेला
आत्मानो अनुभव थयो छे एवो धर्मी जीव जाणे छे के पहेलांं आवा मारा आत्मानो
अनुभव कर्यां वगर, अनादिकाळथी मोहने लीधे हुं अत्यंत अप्रतिबुद्ध हतो; कोईए