Atmadharma magazine - Ank 346
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: ४ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९८ :
मने भूलाव्यो हतो–एम नहि, पण हुं पोते मारा ज अज्ञानथी अत्यंत अप्रतिबुद्ध हतो;
मारा सुखने भूलीने हुं परमां सुख मानतो हतो; मारो अतीन्द्रियआनंद मारा ज्ञानमां
आवतो न हतो.–पहेलांं हुं आवो मोहथी उन्मत हतो एम हवे मने खबर पडी. पूर्वे
पुण्य तो अनंतवार कर्यां छतां अप्रतिबुद्ध ज हतो.–पूर्वे आवतो हतो, पण हवे प्रतिबुद्ध
थयो त्यारे केवो थयो? ते कहे छे.
विरकत गुरुथी निरंतर समजाववामां आवतां कोईपण प्रकारे मारुं स्वरूप
समजी हुं सावधान थयो. समजावनार गुरु केवा छे? के विरकत छे; रागमां रकत नथी
पण रागथी विरकत छे, रागथी भिन्न चैतन्यपणे पोताने अनुभवे छे, तेओ तेवुं
स्वरूप समजावे छे. जेने पोताने हजी रागथी जुदुं अतीन्द्रियआनंदमय स्वरूप
अनुभवमां आव्युं नथी ते अज्ञानी आत्मानुं स्वरूप समजावी शके नहि; एटले गुरु
केवा छे तेनी पण हवे मने ओळखाण थई. राग अने ज्ञाननी भिन्नताना अनुभववडे
जे विरकत छे, एवा विरकतगुरुए निरंतर शुद्ध आत्मानुं स्वरूप समजाव्युं.
शिष्यने गुरुनो उपदेश सांभळतां ज आत्माना अनुभवनी धून चडी; निरंतर
ते स्वरूप समजवानी धगश छे, तेथी समजावनार गुरु पण तेने निरंतर समजावी रह्या
छे एम कह्युं. मुनि वगेरे ज्ञानीगुरु कांई समजाववाना विकल्पमां ज निरंतर न वर्तता
होय, पण एकवार ज्यां श्रीगुरु पासेथी आत्माना ज्ञान–आनंदस्वरूपनुं श्रवण कर्युं त्यां
अंदरमां ‘टच’ थईने शिष्यने निरंतर तेनी ज धून लागी छे; तेथी श्रीगुरु पण मने
निरंतर मारुं स्वरूप समजावी ज रह्या छे–एम कह्युं.
हवे श्रीगुरुए शुं समजाव्युं? के श्रीगुरुनो उपदेश झीलीने अंतरमां जेवा
चिदानंद–शुद्ध–एक आत्मानो में सम्यग्दर्शनमां अनुभव कर्यो तेवो ज आत्मा, श्रीगुरुए
मने निरंतर समजाव्यो. ज्यां अनुभव थयो त्यां खबर पडी के अहो! श्रीगुरु मने
आवो आत्मा समजावता हता.
जुओ, बीजुं आडुं–अवळुं समजवानी वात न लीधी, पण मने शुद्धआत्माना
अनुभवनी गरज हती ने श्रीगुरुए पण ते ज स्वरूप मने समजाव्युं. शास्त्रोमां तो
बीजी व्यवहारनी पण वात आवे, पण तेना उपर मारुं लक्ष नथी, शुद्ध आत्मा केवो छे
ने तेनो अनुभव केम थाय–ते ज एक लक्ष छे; तेथी श्रीगुरुए पण ते समजाव्युं–