Atmadharma magazine - Ank 346
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४९८ : आत्मधर्म : ५ :
एम कह्युं छे.
अहो, मारी आवी चैतन्यवस्तु, श्रीगुरुए मने समजावी...रागथी पार, भेदोथी
पार, ज्ञानदर्श नथी परिपूर्ण अनंता चैतन्यरसथी भरेलो हुं छुं–एम मारा स्वसंवेदन
प्रत्यक्षथी में अनुभव्युं. मारुं परमेश्वरपणुं मारामां ज छे. जेम कोई मूठीमां ज रहेला
सोनाने भूलीने बहारमां शोधे तेथी दुःखी थाय, ने ज्यां याद करीने पोतानी ज मूठीमां
रहेलुं सोनुं देखे के आ रह्युं सोनुं! – त्यां तरत ते प्रकारनुं दुःख छूटी जाय; तेम रागादि
परभावोनी पक्कडने लीधे जीव पोते पोतानुं परमेश्वरपणुं भूली गयो हतो, तेथी दुःखी
हतो, पण श्रीगुरुना उपदेशथी सावधान थईने अंदर जोयुं के अहा! परमेश्वरपणुं तो
मारामां ज छे! – त्यां अनंता गुणना परम–एर्श्चयथी भरेला परमेश्वररूपे पोताने
अनुभवतां महा परम आनंद थायछे.–आवी अनुभूति प्रगटवानुं आ वर्णन छे. शिष्य
निःशंक कहे छे के आवी अनुभूति मने थई छे. अरे भाई! आवा आत्माना अनुभव
वगर चौराशीना अनंत अवतार तें कर्यां; स्वर्गना ने नरकना अनंता अवतार तें कर्यां.
पण तारी चैतन्यवस्तु केवी छे तेने तें न देखी.
अत्यारे ते चैतन्यवस्तुने समजवानो आ अवसर छे. चैतन्यवस्तुमां अनंता
गुणना रस भर्या छे, तेने जाणतां स्वसंवेदनप्रत्यक्षपूर्वक श्रद्धा थई, निर्विकल्प
अनुभूति थई, महा अतीन्द्रियआनंद थयो. अनंता गुणोनो रस एक साथे अभेद
अनुभूतिमां प्रगट्यो.
स्व–परने जाणनार तत्त्व हुं छुं – एम ज्ञानसत्तापणे धर्मी पोताने अनुभवे छे.
पहेलांं ज्ञानसत्ताने भूलीने परसत्तामां एकत्व मानतो, हवे पोतानी ज्ञानसत्तानुं भान
थयुं के अहो, आ बधुं जणाय छे तेमां जाणवानी सत्तारूपे जे सदाय अनुभववाय छे.
आवी चैतन्यसत्तारूपे स्वसंवेदनथी पोते पोताने जाण्यो त्यां मोहनो नाश थयो.
आत्मस्वरूपना यथार्थ ज्ञानपूर्वक श्रद्धा अने अनुभव थया छे; ते त्रणे रागथी भिन्न छे.
आत्माने जाणवो एटले तेनी सन्मुख थईने अनुभववो, ते ज जाण्युं कहेवाय. आ रीते
आत्माने जाणवो–श्रद्धवो ने अनुभववो ते मोक्षमार्ग छे. शिष्य कहे छे के आवो
अनुभव करीने
हवे हुं सम्यक् एक आत्माराम थयो; पहेलांं अप्रतिबुद्ध–उन्मत हतो, हवे साचो
आत्मराम थयो. आवो हुं मारा आत्माने स्वानुभव–प्रत्यक्ष चैतन्यज्योतिरूपे अनुभवुं
छु; मारी पर्याय आवा आत्माना अनुभवरूप परिणमी रही छे.