नवतत्त्वना भेदोमां जे अशुद्धतत्त्वो छे ते अद्भुतव्यवहार छे, अने जे संवारादि शुद्ध
तत्त्वो छे ते सद्भुतव्यवहार छे. आवा भेदरूप व्यवहारना अनुभवमां अशुद्धता छे.
नवतत्त्वना भेदथी पार जे एक ज्ञायकभावरूप भाव ते रूपे हुं मने अनुभवुं छुं तेथी हुं
शुद्ध छुं.–आवो अनुभव ते आगमनो सार छे. आवो अनुभव करनारुं ज्ञान आत्माने
आनंदरूप करे छे, ज्ञान पोते अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप थईने परिणमे छे. ज्ञान अने
सुख कांई जुदां नथी. चैतन्यना सर्वगुणोनो रस अनुभूतिमां समाय छे.
अभाव छे, दुःखनो अभाव छे.
मोहनुं मूळियुं छे ज नहि. माटे हवे फरीने कदी मने मोहनो अंकुर ऊपजवानो नथी.
अरे, मारा चैतन्यरसमां मोह केवो? मारा आत्मामां तो ज्ञाननां अजवाळा प्रगटया छे,
महान ज्ञानप्रकाश खील्यो छे, तेमां हवे मोहनां अंधारा रह्या नथी. सीधुं आत्मसन्मुख
थईने मति–श्रतज्ञाने आत्माने प्रत्यक्ष जाणी लीधो छे, स्वसंवेदनमां ज्ञान अतीन्द्रिय
थयुं छे. ते अतीन्द्रिय ज्ञानप्रकाशनी शी वात! महान ज्ञान उधोत थयो छे.–हुं आवो
निर्मोही थयोछुं. ज्ञाननी अस्ति ने मोहनी नास्ति, एवी पोतानी स्वरूपसंपदा जोईने
मारो आत्मा प्रसन्न थयो छे, तृप्त थयो छे. महान शांतरसना समुद्रमां हुं मग्न थयो छुं.
–आवी शुद्ध आत्मअनुभूति मने थई छे.
महान ज्ञानप्रकाश, ते हवे जगतमां कोईथी हणाय नहि. अहा, मारा चैतन्यनो कोई
परम अद्भूत अचिंत्य चमत्कार छे. आवी परम अद्भूत संपदावाळुं मारुं चैतन्य
स्वरूप में अनुभव्युं छे, हवे मने जगतना कोई पदार्थमां एकत्वबुद्धिरूप मोह केम
थाय? कदी न थाय.