Atmadharma magazine - Ank 346
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४९८ : आत्मधर्म : ७ :
जे धर्मी थाय तेने आवी अनुभूति थायछे. आवा आत्मानी अनुभूति वगर
धर्मीपणुं थाय नहि. अहीं तो धर्मी थयेलो जीव कहे छे के में मारा आत्माने अनुभवथी
प्रत्यक्ष जाण्यो छे, अतीन्द्रियआनंदना वेदन सहित सीधसीधा ज्ञानथी में मारा आत्माने
जाण्यो छे; जाणवामां आनंद वगेरे अनंतगुणनुं कार्य पण भेगुं ज छे. तेमां मननुं–
रागनुं ईंन्द्रियनुं कोईनुं आलंबन नथी. चैतन्यना समुद्रमां मग्न थईने ज्ञान अतीन्द्रिय
थयुं, तेमां आवो आत्मा धर्मीने प्रत्यक्ष भास्यो छे; एवा ज्ञान साथे तेनी श्रद्धा थई छे,
ने ते काळे निर्विकल्पआनंदनी अनुभूति थई छे. चैतन्यगोळो बधा राग–विकल्पोथी
छूटो पडी गयो; हवे रागनो कण पद कदी मने मारा चेतनस्वरूपे भासवानो नथी.
आवो महान ज्ञानप्रकाश मने प्रगट्यो छे.
आजनी अमृतवर्षा झीलीने आनंदित थतां पू. बंने धर्ममाताओए हदयना
उल्लासथी नीचेनुं मंगलगीत गवडाव्युं हतुं–
अम सेवकना प्रभु हदय तलसता,
क््यारे छूटे गुरुवाणी भव हरनारी रे....
मधुरा सूर गुरुवाणीनां वागे.....
ज्ञानगंगाना पाने पावन थईए रे....
गुरुराजवाणीमां चैतन्य झळकतो,
अंतरथी सूणतां भवथी भावठ भांगे रे...
ज्ञायकदेवना मीठां मंत्र सुणावी
मुक्ति केरो अपूर्व मागृ बताव्या रे.....
गुरुदेवना सूक्ष्म भावो नितप्रति वरसो
हैडामां वसजो मारा अंतरमां ऊतरजो रे.....
वाणी सूणी मारुं अंतर ऊछळे,
गुरुवाणीथी आजे आनंदमंगळ वरतेरे.....
निर्विध्न चैतन्यविलासी आत्मिक आनंददाता
निरंतर शुद्धात्म–प्रतिबोधक गुरुदेवश्री जयवंत हो.