चैतन्यचमत्कारी मारी वस्तु, तेनी सन्मुख थयेलुं ज्ञान अतीन्द्रिय थईने प्रत्यक्ष थयुं
छे.....ते. अतीन्द्रिय ज्ञान अतीन्द्रिय शांति सहित प्रगट्युं छे...... जेम मोटा तरंगथी
दरियो ऊल्लसे तेम धर्मीना अनुभवमां शांतिनो मोटो दरियो उल्लस्यो छे....ज्ञाननो
दरियो भगवान आत्मा शांतरसमां लीन थईने पोतानी परिणतिमां उल्लसी रह्यो छे.–
आवी दशा थई त्यारे आत्मानो जाण्यो कहेवाय. अने आवा आत्माने जाण्या वगरनुं
बधुं निष्फळ छे–तेमां चैतन्यनी शांतिनुं वेदन नथी.
देखातो न हतो. हवे श्रीगुरुना उपदेश–अनुसार आत्मस्वभावनी सन्मुख थईने तेनो
स्वीकार करतां ते अज्ञानरूपी चादर दूर थई गई, ने पर्यायमां शांतरसथी उल्लसी
रहेलो मारो ज्ञानसमुद्र में साक्षात् देख्यो.....जेम समुद्र रत्नोथी भरेलो होवाथी रत्नाकार
कहेवाय छे. तेम ज्ञानसमुद्र एवो मारो भगवान आत्मा चैतन्यरत्नाकार शांति–वगेरे
अनंत गुणोनो समुद्र छे, ते अनंत गुणनी निर्मळताथी उल्लसतो अनंत–अपार स्वरूप
संपदावाळो मारो आत्मा मारी स्वानुभूतिमां आव्यो छे, ने हे जगतना जीवो! तमे
पण आ आत्माने प्रत्यक्ष अनुभवरूप करो.
गयो छे. अरे! ज्ञाननो महा समुद्र, तेनी पासे बहारनां जाणपणानी शी किंमत छे!
अहा, चैतन्यनी महत्ता बताववा दरियानी उपमा आपी......ने तेने ‘भगवान’
कह्यो. खरेखर दरियो तो मर्यादित छे–स्वयंभूरमण समुद्र पण मर्यादित (असंख्य
योजननो) छे, ज्यारे आ भगवान ज्ञानसमुद्र तो अनंत अमर्यादित सामर्थ्यवाळो
छे. दरियानी उपमा–