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समता
अमारी कूळदेवी छे
अहा, भेदज्ञानी के अज्ञानी–बंने प्रत्ये मने समता
छे.–आवी समता क््यारे रहे? के ज्यारे राग–द्धेष वगरनी
‘चेतना’ वेदनमां आवी होय! चेतना पोते स्वरूपथी ज राग–
द्धेष वगरनी छे–पछी सामे भेदज्ञानी हो के अज्ञानी हो.–
बंनेमां समतापणे रहेवानी ताकात चेतनामां ज छे. चेतना ज
तेने कहेवाय के जेमां राग–द्धेष न होय, जे राग–द्धेष करे नहि,
ने राग–द्धेष वगरनी समतारूपे ज रहे.
अहा! आवी सरस चेतना, आवी सरस समता, ते
तो मारी कूळदेवी छे, मारी चेतनानुं कूळ ज समतारूप छे.
समता ए तो मारी चेतनानुं सहजस्वरूप छे. माटे चेतनारूप
एवा मने सर्वत्र समभाव छे, कोई प्रत्ये राग–द्धेष नथी,
कोई मारुं मित्र के वेरी नथी. आवा वीतरागी समभावरूप
मारी चेतना छे ते सर्वे ज्ञानीसंतोने संमत छे. हुं मारा
आत्माने आवी चेतनारूपे ज सदा भावुं छुं.....अनुभवुं छुं.
तेथी मारी परिणतिमां समता सदा जयवंत छे.
(नियमसार पृष्ट २०२)
तंत्री : पुरुषोत्तमदास शिवलाल कामदार * संपादक : ब्र. हरिलाल जैन
वीर सं. २४९८ आसो (लवाजम : चार रूपिया) वर्ष २९ : अंक १२