क््यांय अमारो आत्मा अमने देखातो नथी, अमारो आत्मा तो ते विषयो अने रागथी
पार, अमारा अंतर्मुख ज्ञान–दर्शन–आनंदमां ज बिराजे छे, तेने अमे अनुभवीए
छीए. आ रीते धर्मपर्यायरूपे परिणमेलो अखंड आत्मा ज धर्मीने सर्वत्र उपादेय छे.
चिन्मुर्ति आत्माका वैभव व भेदज्ञानकी प्राप्ति हेतु यह रत्नोकां संग्रह कितना
अनुपम अनूठा है–जोकि अंदरमें एक ऐसी झंझनाट पैदा कर देता है कि उस
परम तेजमें पहुंचकर आनंदरस उसी समय उमड पडता है
छे? ते वातो पर विचार करतां भेदविज्ञान एम बतावे छे के आ
आत्माराम साक्षात् परमात्मा छे, ज्ञाताद्रष्टा छे, शुद्ध वीतराग छे, अशरीरी–
अर्मुत छे, परमआनंदमय छे, पोतानी स्वभावदशानो ज कर्ता छे अने
पोताना स्वाभाविक आनंदनो भोकता छे, परम कृतकृत्य छे, सर्व विश्वना
पदार्थोना गुण–पर्यायोने एक समयमां ज जाणनार छे. कर्मोथी रचायेलो
कार्मणदेह पुद्गलमय छे, ते आत्माना स्वभावथी सर्वथा भिन्न छे. स्थूळ
द्रश्यमान शरीर पण पुद्गलमय छे; राग–द्वेषादिभावो उपाधिभावो छे, ते
आत्माना चेतनस्वभावथी सर्वथा दूर छे. आवुं भेदज्ञान पोताना
परमात्माने अंदर अनात्माथी जुदो बतावे छे, तेमज बधा जीवो पण अंदर
अनात्माथी भिन्न परमात्मस्वभावी छे–एम देखाडे छे. भेदज्ञानना
प्रतापथी गुरु–शिष्य, शत्रु–मित्र वगेरे भेदभाव देखाता नथी, अने तेथी
परम समताभावरूपी शांत गंगाजळनो प्रवाह आत्मानी अंदर वहेला लागे
छे. ज्ञानीजनो आ ज आत्मगंगाना पवित्र जळमां स्नान करे छे, तेनुं ज
पान करे छे, तेमां ज किल्लोल करे छे, ने तेमां ज मग्न थईने जे
परमआनंदने प्राप्त करे छे ते वचनथी अगोचर छे. ते संतो धन्य छे के
जेओ आ अपूर्व रसपान कदीने सदा सुखी रहे छे.