Atmadharma magazine - Ank 348
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: आसो: २४९८ आत्मधर्म : १७ :
चैतन्यनिधान गुप्त रही शके नहीं.
अहा, परिपूर्ण सुखनो निधान मारो आत्मा, तेनी भावनारूपे हुं परिणम्यो छुं,
तेथी भवना कारणरूप बधा भावोथी हुं निवृत्त छुं. भविष्यमां जेनाथी भव करवो पडे
एवा कोई पण अशुभ के शुभरूप संसारभावो–तेनाथी निवृत्त मारो आत्मा छे. मारा
स्वभावमां भव नथी, ने ते स्वभावनी भावनारूप परिणमेली मारी पर्यायमां पण
भवनो कोई भाव नथी. आवो हुं छुं एम धर्मी अनुभवे छे.
सुंदर नौकामां बेठो छुं. मारुं आ परमतत्त्व पोते ज संसारना महा समुद्रने तरवानी
नौका छे, तेथी मारा तत्त्वनी भावनाथी हुं स्वयं भवसमुद्रने तरी जईश, भवने तरवा
माटे मारे बीजा कोईना अवलंबननी जरूर नथी. अहा, मारुं आवुं परम अचिंत्य
तत्त्व! तेना स्वीकार वडे में मोहने जीती लीधो छे; हवे मारे भवसमुद्रमां डुबवानुं होय
नहीं. सहज परम आनंदना समुद्रमां परिणति लीन थई त्यां हवे भव केवा? चैतन्यनो
शाश्वत महा आनंद....तेनी शी वात! ए अपूर्व आनंद जगतमां प्रसिद्ध छे...सिद्ध
भगवंतोमां भरेलो ए अतीन्द्रिय महा आनंद अमारा आत्मामां पण प्रगट्यो छे;
अहा! आवा महा अपुर्व आनंदनो स्वाद चाख्या पछी कामना कलेशने कोण ईच्छे?
जेओ कामवासनाना कलेशथी विषयोमां सुख माने छे तेओ तो जडबुद्धि छे.
अहा, चैतन्यनुं विषयातीत सुख!...ए सुखामृतनो स्वाद लीधा पछी विषयोना
झेरने कोण वांछे? एमां सुख कोण माने?–
ज्ञानकला जिसके घट जागी, ते जगमांही सहज वैरागी;
ज्ञानी मगन विषयसुख मांही, यह विपरीत, संभवे नांही.
अहो, जेना अंतरमां भेदज्ञाननी वीतरागकळा प्रगटी, जगतथी सहज वैरागी
थईने अंतर्मुख चैतन्यसुख जेणे चाख्युं एवा ज्ञानी–धर्मात्मा–जगतथी उदासीन परम
वैराग्यवंत जीवो कदी विषयोमां सुख मानीने तेमां मग्न थाय–एवी विपरीतता बनी
शकती नथी. विषयातीत चैतन्यसुखनो अनुवभ करे अने विषयोमां पण सुख माने–ए
तो अत्यंत विपरीतता छे, ते कदी संभवी शके नहि. ज्ञानी तो कहे छे के अरे, चैतन्यना
सुखनी परम अतीन्द्रिय शांति अनुभव्या पछी, बाह्य विषयो अमने कलेशरूप लागे छे,
तेमां क््यांय अमारी परिणति ठरती नथी. परिणतिने ठरवानुं स्थान