माटे अंतरंग द्रष्टिमां आत्माने ज समीप बनावीने, तेमां परिणामने तन्मय करीने
आनंदनो अनुभव कर.
परभावोने दूर राख, जुदा राख. आम करवाथी पोतामां शुद्धात्मतत्त्वनी आनंदमय
अनुभूति थई ते ज परम गुरुओनो प्रसाद छे. अहा, परम गुरुओए प्रसन्न थईने
अमने आवो शुद्धात्मानो प्रसाद आप्यो......तेमना अनुग्रह वडे अमने जे
शुद्धात्मतत्त्वनो उपदेश मळ्यो, तेनाथी अमने स्वसंवेदनरूप आत्मवैभव प्रगट्यो.
छे. आवी चेतनारूपे ज ज्ञानीधर्मात्मानी खरी ओळखाण थाय छे.
धर्म क््यांथी लावशे? सुख क््यांथी लावशे? धर्मी तो जाणे छे के मारी श्रद्धामां मारा
ज्ञानमां मारा सुखमां मारी बधी पर्यायोमां मारो चिदानंदी आत्मा ज मने समीप वर्ते
छे, तेनुं ज मने आलंबन छे. आवा आत्मा सिवाय बीजे क््यांय अमारी परिणति
ठरती नथी. वाह रे वाह! धर्मोनी दशा तो जुओ! अमारो आत्मा सदाय सर्वत्र
अमारा अंतरमां अमारी साथे ज छे, जगतना साथनुं अमारे शुं काम छे? शुभ
रागनोय अमने धर्ममां साथ नथी, अमारा चैतन्यनो ज अमने साथ छे, तेने अमे कदी
छोडता नथी. सीताजीने भले वनवास मळ्यो, रामनो वियोग थयो, पण ते वखतेय
अंतरमां एमनो ‘आतमराम’ एमनी साथे ज हतो. अयोध्या भले दूर रही, रोती प्रजा
दूर रही, राजपाट बधुं दूर रह्युं ने राजा राम पण भले दूर रह्या, पण भगवान
‘आतमराम’ अंदरथी जराय दूर नथी थया, आत्मा तो समीप ने समीप ज छे. गमे
त्यां हो –धर्मी जाणे छे के मारा अंतरमां जे सम्यग्दर्शनादि वर्ते छे तेमां महा पूजय
पंचम भावरूप चैतन्यभगवान मारे हाजराहजूर वर्ते छे, एनी ज भावनामां मारी
परिणति तन्मय वर्ते छे. ते परिणतिमां समस्त चैतन्यनिधान खुली गया छे. रागथी
जुदी थईने अंतरमां वळेली मारी परिणतिमां मारा