Atmadharma magazine - Ank 348
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: आसो: २४९८ आत्मधर्म : १५ :
मारो आत्मा ज बिराजे छे. मारी ज्ञानचेतनाथी मारा चैतन्यप्रभु जराय दूर नथी;
(
मेरो धनी नहों दूर देसन्तर, मोहिमें है मोहे सुझत नोके ) परम गुरुना प्रसादथी
प्राप्त करायेलो मारो शुद्ध कारणपरमात्मा मारी ज्ञानचेतनामां सदाय समीप ज छे, ने
रागादि परभावो मारी ज्ञानचेतनाथी सदाय अत्यंत जुदा ने जुदा होवाथी ते माराथी
दूर छे.–वाह! जुओ तो खरा धर्मात्मानी ज्ञानचेतना! आनंदरसमां तरबोळ आवी
ज्ञानचेतना वडे धर्मीने ओळखवा ते धर्मात्मानी साची सेवा छे.
चैतन्यना अमृतनो स्वाद लईने, विषे जेवा विषयोने धर्मी जीव आनंदथी छोडे
छे. राग अने विषयो छोडवा अज्ञानीने बहु कठण लागे छे–केमके तेना वगरना
आत्माना आनंदनी तेने खबर नथी. पण धर्मीने तो चैतन्यना आनंदना महान स्वाद
पासे समस्त विषयो अने विभावोनो प्रेम अत्यंत सहजपणे छूटी जाय छे. अतीन्द्रिय
चैतन्यता स्वाद पासे विषयोनो स्वाद ऊडी जाय–एमा शुं आश्चर्य छे!
अहा, मारा सम्यग्ज्ञानमां अमारो शुद्धआत्मा बिराजी रह्यो छे. पर्याये–पर्याये
अमारो परमात्मा हाजरा–हजूर छे, पछी तेमां दुःख केवुं? ने संसार केवो राग उपर
मारी नजर नथी. मारी नजर तो मारा परमात्मस्वभाव उपर ज पडी छे; तेथी ते ज
मारा ज्ञानमां समीप छे.
अरे, हजी तो मति–श्रुतज्ञान छे ने? केवळज्ञान तो हजी थयुं नथी, छतां साधक
कहे छे के अमारा ज्ञानमां परमात्मा बिराजे छे! वाह, जुओ साधकनी ज्ञान दशा!
(साधक पोताना स्वसंवेदनमय मतिश्रुतज्ञानवडे केवळज्ञानने बोलावे छे....आव,
केवळज्ञान आव! शक्तिमां छो ते व्यक्त था....षट्खंडागमनी आ वात गुरुदेव अत्यंत
प्रमोदपूर्वक धणीवार कहे छे....ने षट्खंडागमना आवा उत्तम न्यायोनी प्रसादी आप
पण आवता वर्षे आत्मधर्ममां वांचशो.) भले मति–श्रुतज्ञान हो, छतां ते ज्ञान रागथी
जुदुं ज वर्ते छे ने तेणे अंदर परमात्मास्वभाव साथे संधि जोडी छे,–तेथी तेनी
ज्ञानचेतनामां अतीन्द्रिय आनंदसहित भगवान आत्मा नजीक ज वर्ते छे. रागनो कोई
अंश तेनी ज्ञानचेतनामां वर्ततो नथी.
अरे जीव! परमस्वभावनी उत्कृष्ट भावना वडे चेतनाने जागृत करीने एवो
पुरुषार्थ करे के एक क्षणमां अंदर चिदानंद स्वभावमां ऊतरी जा. तारो आत्मा तारामां
ज अत्यंत नजीक, छतां तेने दूर समजीने तें रागनी भाईबंधी करी; पण राग तो