(
रागादि परभावो मारी ज्ञानचेतनाथी सदाय अत्यंत जुदा ने जुदा होवाथी ते माराथी
दूर छे.–वाह! जुओ तो खरा धर्मात्मानी ज्ञानचेतना! आनंदरसमां तरबोळ आवी
ज्ञानचेतना वडे धर्मीने ओळखवा ते धर्मात्मानी साची सेवा छे.
आत्माना आनंदनी तेने खबर नथी. पण धर्मीने तो चैतन्यना आनंदना महान स्वाद
पासे समस्त विषयो अने विभावोनो प्रेम अत्यंत सहजपणे छूटी जाय छे. अतीन्द्रिय
चैतन्यता स्वाद पासे विषयोनो स्वाद ऊडी जाय–एमा शुं आश्चर्य छे!
मारी नजर नथी. मारी नजर तो मारा परमात्मस्वभाव उपर ज पडी छे; तेथी ते ज
मारा ज्ञानमां समीप छे.
(साधक पोताना स्वसंवेदनमय मतिश्रुतज्ञानवडे केवळज्ञानने बोलावे छे....आव,
केवळज्ञान आव! शक्तिमां छो ते व्यक्त था....षट्खंडागमनी आ वात गुरुदेव अत्यंत
प्रमोदपूर्वक धणीवार कहे छे....ने षट्खंडागमना आवा उत्तम न्यायोनी प्रसादी आप
पण आवता वर्षे आत्मधर्ममां वांचशो.) भले मति–श्रुतज्ञान हो, छतां ते ज्ञान रागथी
जुदुं ज वर्ते छे ने तेणे अंदर परमात्मास्वभाव साथे संधि जोडी छे,–तेथी तेनी
ज्ञानचेतनामां अतीन्द्रिय आनंदसहित भगवान आत्मा नजीक ज वर्ते छे. रागनो कोई
अंश तेनी ज्ञानचेतनामां वर्ततो नथी.
ज अत्यंत नजीक, छतां तेने दूर समजीने तें रागनी भाईबंधी करी; पण राग तो