: १४ : आत्मधर्म : आसो: २४९८
मारी सर्वपर्यायोमां मारो आत्मा ज छे
मारी एककेय पर्यायमां रागनी तन्मयता नथी,
मारो शुद्ध आत्मा ज मारा श्रद्धा–ज्ञानादि सर्व पर्यायोमां
तन्मयपणे वर्ते छे; मारी एक्केय पर्यायमां मारा
चैतन्यनाथनो विरह मने नथी,–एम धर्मपर्यायरूपे
परिणमेलो धर्मी जीव पोताना आत्माने अनुभवे छे.
निजस्वभावनी अंतर्मुख भावना वडे सहज शुद्ध ज्ञानचेतनारूपे परिणमेलो
धर्मात्मा जाणे छे के–
मुज ज्ञानमां आत्मा खरे, दर्शन–चरितमां आतमा,
पणखाणमां आत्मा ज, संवर–योगमां पण आतमा. (१००)
आ नियमसारमां आत्माना परमस्वभावनी भावनानुं अलौकिक वर्णन छे.
आचार्यदेव कहे छे के अहो! में मारा आत्मानी निजभावना–अर्थे आ उत्तम शास्त्र
रच्युं छे. धर्मीने सर्वत्र सर्व निर्मळ पर्यायोमां अतीन्द्रियस्वभाववाळो सहज सुखस्वरूप
शुद्ध आत्मा ज उपादेय छे. आत्माने उपादेय करीने जे पोते सहज ज्ञानचैतनारूपे
परिणम्यो छे–एवा धर्मीनी आ वात छे.
अज्ञानी रागादि परभावने उपादेय करीने अशुद्ध पर्यायरूप परिणमी रह्यो छे,
तेनी तेनी पर्यायमां शुद्ध आत्मा तेने क््यांय देखातो नथी, तो तो सर्वत्र रागने ज
अनुभवे छे.
ज्ञानी पोताना सहज स्वभावी आत्माने उपादेय करीने शुद्धपर्यायरूप परिणमी
रह्यो छे, तेथी तेनी पर्यायमां सर्वत्र शुद्धआत्मा ज तेने अनुभवाय छे, ने रागादिथी
तेनी शुद्धपरिणति जुदी ज रहे छे.
हुं पोते सहज शुद्ध ज्ञानचेतनारूपे परिणमेलो छुं तेथी मारा सम्यग्ज्ञानमां