Atmadharma magazine - Ank 348
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: २० : आत्मधर्म : आसो: २४९८
छे, ते अत्यंति आसन्नभव्य छे. अंदर सत् वस्तु छे, छती वस्तु छे–ते ज्ञानमां न आवे
त्यां सुधी तेने माटे ते ‘छती छतां अछती’ छे. वस्तु जेवी छे तेवी ज्ञानमां आवी एटले
पर्यायमां व्यक्त थई, त्यारे छती–वस्तुनुं सत्पणुं तेने प्रगट्युं एटले सत्नो
परमस्वभाव तेने सफळ थयो.–आनुं नाम समभावरूप आलोचना छे, अने तेना वडे
समस्तकर्म मूळमांथी छेदाई जाय छे.
धर्मी जाणे छे के आ मारो आत्मा सदाय परम स्वभावपणे विद्यमान छे; तेमां
अंतर्मुख थतां स्वकीय–स्वाधीन–समभावरूप जे परिणाम प्रगट्या ते समस्त संसारने
मूळथी छेदी नांखवा समर्थ छे. अहो, आवो मारो परम स्वभाव मारामां सदाय हतो
ज, पण तेनुं भान न होवाथी ते प्रगट्यो न हतो; हवे तेनुं भान थतां मारी पर्यायमां
ते सफळ थयो छे. परमस्वभावने कारण बनावतां पर्यायमां शुद्ध कार्य प्रगट्युं छे, तेथी
मारो परमस्वभाव मने सफळ थयो छे.
परमस्वभावपणे आत्मा त्रिकाळ सत् छे. पण आनंदनी अनुभुतिपूर्वक
पर्यायमां धर्मीने ते व्यक्त थईने परिणम्यो त्यारे भान थयुं के ‘आवो हुं छुं.’ व्यक्त
परिणम्या वगर शक्तिरूप परमभावनुं भान थतुं नथी. माटे कहे छे के अहो!
भव्यजीवने आ परमपंचमभाव सफळ थयो छे–सम्यग्दर्शनादि उत्तम फळ तेने पाक््यां
छे. जेम मेरु नीचेनुं सोनुं शुं कामनुं? फळ वगरनुं झाडवुं शुं कामनुं? तेम पर्यायमां
आनंदना व्यक्त अनुभवरूप फळ वगर अज्ञानीने ते परमभाव शुं कामनो? अर्थात्
विद्यमान होवा छतां तेन अज्ञानमां तो ते अविद्यमान जेवो ज छे.
अहा, चैतन्यना परम भावनो कोई अद्भूत महिमा छे, ते अज्ञानीओने गम्य
नथी. अतीन्द्रिय ज्ञानगोचर परमभाव छे तेने अनुभवमां लेवो ते परम वीतरागविधा
छे. परम आनंदस्वरूप आत्मा अंदर हैयात होवा छतां, जे तेने देखतो नथी, तेना
आनंदने अनुभवतो नथी, ने दुःखने ज अनुभवे छे–तेना मिथ्या श्रद्धा–ज्ञानमां तो ते
परमभाव अवधिमान ज छे. सूरज झगझगाट करतो ऊग्यो पण आंधळाने शुं? एने
तो ते अविद्यमान ज छे. तेम अंदर चैतन्यना परम तेजथी भरेलो महा चैतन्यसूर्य
झळकी ज रह्यो छे–पण जेने अंतर्मुख द्रष्टि नथी, ज्ञानचक्षु ऊघडया नथी तेने ते
चैतन्यसूर्य देखातो नथी, तेनो तो ते अगम्य होवाथी अविद्यमान जेवो ज छे.
अरे, विकल्पमां ते कांई पंचम–परमभाव आवे? चार भावो संबंधीं विकल्पो
वडे पांचम भाव अगोचर छे; ते अंतर्मुख उपशमादि भावो वडे अनुभवमां आवे छे.
निकटभव्य सम्यग्द्रष्टि जीवो तेन अंतरमां अवलोके छे, तेथी तेमने ते परम भाव सफळ