जणाय नहीं एवो महान परमस्वभाव हुं छुं–एम धर्मी जाणे छे, तेणे अंतरना
अचिंत्यनिधान नजरे जोया छे, एनी पर्यायमां परमात्मा प्रसिद्ध थया छे.
साथेनो दोर सांधीने तेनी लगनी लागी त्यां धर्मीना आंनदनी शी वात? एना
परमशांत परिणाममां सर्वे संसारनुं मूळ छेदाई गयुं छे. आत्मानो परमभाव जेना
लक्षमां आव्यो नथी तेने संसारनुं मूळ कोई रीते छेदातुं नथी.
छे. ते ज तेना आश्रये सम्यक्त्वादि कार्य प्रगट करीने मोक्षने साधे छे. कार्य प्रगट्युं
तेणे कारणने प्रसिद्ध कर्युं के आवा परम स्वभावने अवलंबीने आ कार्य थयुं छे.
शब्दोथी ने विकल्पोथी कांई कार्य थाय तेम नथी, परम स्वभावनी सन्मुख थये ज
मोक्षमार्गरूप कार्य थाय छे. जेणे एम कर्युं तेने ज कार्यनी सिद्धि थई, तेने ज परम
भाव सफळ थयो.
ते मूळमांथी छेदी नाखनारो छे. अरे जीव! तारामां विद्यमान आवा अमृत आनंद–
चिंतामणिने छोडीने तुं बहारमां झेरनां झाडमां क््यां भटक््यो? अरे, चैतन्यना
अस्तित्वमां तो कर्म के विकार न रहे, पण ज्यां आवा चैतन्यस्वभावनो आश्रय लीधो
त्यां ते कर्मो कर्मोना अस्तित्वपणे पण न रही शके. हे जीव! तारा आवा प्रभुनो आदर
तुं केम नथी करतो? अंदर भरेला अमृतनो स्वाद छोडीने बहारमां झेरनो स्वाद लेवा
तुं केम दोडे छे? आ अमृतनो स्वाद एकवार तुं चाख तो खरो! अनादिनुं संसारनुं
तारुं झेर ऊतरी जशे ने कोई महा अचिंत्य अपूर्व अतीन्द्रिय शांतिनो स्वाद तने
आवशे.
ज स्वकीय कह्या छे, रागादिभावो तो परमस्वभावथी बाह्य छे, तेने धर्मी स्वकीयपणे
नथी अनुभवता. जेनी सन्मुखताथी आवा समभाव–परिणाम प्रगटे छे.