Atmadharma magazine - Ank 350
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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३प०
स्वानुभवनी प्रेरणा
हे जीव! तुं आत्मानो रसियो था. आत्मरसिक थईने
रागथी भिन्न ज्ञाननो अनुभव कर. अनादिथी आत्माने भूलीने
परनो प्रेम कर्यो. परने पोतानुं मान्युं ने मोहने छोडीने हवे
आत्मप्रेमी था. अंतर्मुख उपयोगथी तारा आत्माने जो. भाई! आ
उत्तम अवसर आव्यो छे, आनाथी बीजो क््यो काळ आववानो
छे? प्रतिबोधनो आवो सुअवसर मळ्‌यो, आवुं स्पष्ट भेदज्ञान
संतोए कराव्युं, तो हवे अत्यारे चैतन्यनो रसिक थईने मोहने
छोड, ने आत्माने चैतन्यस्वरूपे अनुभवमां ले.
हे जीव! आवो अवसर आव्यो छे, माटे तुं अत्यारे बीजी
बधी पंचात छोडीने आवा अनुभवनो उद्यमी था, सर्व प्रयत्नने
आमां ज जोड. एकवार आवो स्वानुभव कर तो तारा संसारथी
नीवेडा आवे. स्वानुभव वगर बीजा कोई उपायथी नीवेडा आवे
तेम नथी. जगतना संयोगथी एकवार जुदो पड. अंदरनां
विकल्पोथी पण जुदो पड ने उपयोगस्वरूपमां ज तन्मय थईने रहे,
तो स्वानुभव ने सम्यग्द्रर्शन थाय.
तंत्री: पुरुषोत्तमदास शिवलाल कामदार: संपादक: ब्र. हरिलाल जैन
वीर सं. २४९९ मागशर (लवाजम: चार रूपिया) वर्ष ३०: अंक २