Atmadharma magazine - Ank 353
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : र४९९ आत्मधर्म : र७ :
अहो, अलौकिक वीतरागमार्ग!
अहो, दर्शनशुद्धि माटे वीतरागनो मार्ग अलौकिक छे. वीतरागमार्ग रागथी
भिन्न चैतन्यस्वाद चखाडे छे. चैतन्यनी शांतिना स्वादमां रागादि भावनो अंश पण
समाय नहीं. नानामां नाना रागना कणनो पण जेने प्रेम छे, –ते रागमां जेने शांति
लागे छे, ते जीव वीतराग भगवानना मार्ग उपर क्रोध करे छे; केमके राग जेने गम्यो
तेने वीतरागमार्ग केम गमशे? वीतरागमार्गनो अणगमो ए ज अनंतो क्रोध छे.
वीतराग चैतन्यभावमां रागनो कोई अंश समाय नहीं. चैतन्यस्वरूप आत्मानी
क्रियाओ पण चैतन्यभावरूप ज होय, चैतन्यनी क्रिया रागरूप न होय. रागनी क्रियामां
चैतन्यनी प्राप्ति कदी न थाय. आ रीते चैतन्यने अने रागने सर्व प्रकारे भिन्नता छे.
रागथी भिन्न आवी चैतन्यक्रिया जेणे करी ते जीव सुकृत (सम्यग्दर्शनादि उत्तमकार्य)
करनारो सुकृती छे. ज्ञान अने रागनी भिन्नतानुं कार्य, एटले के भेदज्ञानरूप उत्तमकार्य
तेणे करी लीधुं, ते जीव ज्ञप्तिक्रियानो कर्ता छे, तेनी ज्ञप्तिक्रियामां आत्मा अनुभवाय छे,
तेनी ज्ञप्तिक्रियामां रागादि कोई परभावो अनुभवाता नथी.
चैतन्यने अने रागने कांई मेळ नथी–एकता नथी पण वच्चे सांधो छे एटले के
जुदाई छे. जेम पथ्थरनी सांध वच्चे सुरंग फोडतां बे कटका जुदा थई जाय छे, तेम ज्ञान
अने रागनी सांध वच्चे भेदज्ञानरूपी वीजळी पडतां बंने तद्न जुदा अनुभवाय छे.
चैतन्यनी शांतिना अनुभवमां ते एकमेक थतां नथी, केमके तेनी जात जुदी छे, तेना
अंशो जुदा छे, अतीन्द्रिय आनंदना स्वादमां वसनारो आत्मा रागनी आकुळतामां केम
आवे? ज्यां आत्माने साचा स्वरूपे जाण्यो त्यां अंदर अतीन्द्रिय स्वाद आव्यो, ते
स्वादरूपे आत्मा जणाय छे; रागना वेदनमां आत्मानो स्वाद नथी, ने ते स्वादथी
आत्मा जणातो नथी.
स्वभावनो टच ए ज साची हा
अहो, आवा आत्मानी अपूर्व वात... ते सांभळतां अंदर स्वभावनो ‘टच’ थई
जाय– तो ज खरूं सांभळ्‌युं कहेवाय. स्वभावनो टच ए ज खरी