जणाय एवुं तारुं स्वरूप नथी; अंतरना निर्विकल्प ज्ञानवडे जणाय एवुं तारुं स्वरूप
छे. अरे, तारुं विकल्पातीत स्वरूप छे ते तो ज्ञानगम्य थाय तेवुं छे, ते विकल्पगम्य थतुं
नथी. आवी वीतरागी वाणी सांभळनार शिष्य एवो छे के जे श्रवणना विकल्पनी
मुख्यता नथी करतो पण अंतरना ज्ञाननी मुख्यता करे छे, तेथी तेने आत्मामांथी
आनंदना तरंग ऊठे छे. ते शब्द उपर के भेदना विकल्प उपर जोर करीने नथी अटकतो
पण एनाथी आघो खसी, अंदर ऊतरी, भाव–श्रुतज्ञानवडे वस्तुस्वरूपने पकडतां तेने
आनंदना तरंग सहित सम्यग्दर्शनादि थाय छे ने मोहनो नाश थाय छे. –ए वात
प्रवचनसार गा. ८६ मां कही छे; तेम ज आत्मअवलोकनमां पण कही छे. जेने अनुभव
थयो होय तेने आनंदनी वृद्धि थती जाय छे, अने जेने न थयो होय तेने नवो आनंद
प्रगटे छे. –आ रीते जिनवाणी ते भव्य जीवोने आनंदनी ज दातार छे.
प्रगटतां साथे अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन लेतुं प्रगटे छे... सिद्ध भगवान साथे तेनी संधि
थाय छे. जुओ, जगतमां सिद्धजीवो थोडा, ने संसारी–मिथ्याद्रष्टि जीवो तेनाथी
अनंतगुणा, छतां भावमां सिद्धभगवंतोना ज्ञान–आनंदनुं एवुं जोर छे के अनंता
सिद्धोमांथी अनंतकाळे पण एक्केय सिद्धजीव पाछो संसारमां आवतो नथी; संसारमांथी
छूटी–छूटीने सिद्ध थनारा जीवोनी धारा चाली जाय छे. आ रीते सदा संसारी जीवो
ओछा थता जाय छे ने सिद्धजीवो वधता जाय छे. –एटले सिद्ध भगवंतो सदा