वगेरे समस्त पदार्थो ज्ञानथी अत्यंत जुदा छे. आ रीते उपयोगस्वरूप आत्मा
उपयोगमां ज छे, ते रागादिमां नथी; ने रागादि भावो रागादिमां ज छे, ते कोई भावो
चैतन्यस्वरूप उपयोगमां नथी. –आम ज्ञान अने रागनुं अत्यंत जुदापणुं भली रीते
सिद्ध थयुं, शंका वगर सर्व प्रकारे भेदज्ञान सिद्ध थयुं. ज्ञाननो कोई कणियो रागमां नहि,
रागनो कोई कणियो ज्ञानमां नहि; ज्ञान सदाय ज्ञानरूप ज छे, राग सदा रागरूप ज छे.
–आवुं भेदज्ञाननुं वेदन जेणे कर्युं एवो ज्ञानी जीव पोताना ज्ञानमां रागादि भावोने
कणिका मात्र पण रचतो नथी, ज्ञानने रागादिथी सर्वथा जुदुं ज अनुभवे छे; रागना
काळे पण रागथी भिन्न पोताना ज्ञानस्वरूपपणे पोतानुं वेदन तेने खसतुं नथी, ने
रागना कोई अंशने पोताना चैतन्यभाव साथे ते कदी भेळवता नथी. आवुं भेदज्ञान
अपूर्व आनंददायक छे.
वेदनमां आवी जाय एवो छे? शुं शुभराग जेटली ज चैतन्यप्रभुनी किंमत छे?
शुभरागथी आत्मानो अनुभव थवानुं जे माने छे ते तो रागमां आत्माने वेची दे छे,
रागरूपे ज आत्माने माने छे, रागथी जुदो कोई आत्मा तेना लक्षमां आव्यो नथी.
अहीं तो सर्वे रागथी अत्यंत भिन्न एकलुं चैतन्यस्वरूप बतावीने कहे छे के आवो
आत्मा ज्ञान वडे ज अनुभवमां आवे छे, ते अनुभवमां रागनो कोई अंश नथी.
आवो अनुभव करीने हे सत्पुरुषो! तमे प्रमोदित थाओ... आनंदित थाओ... अंतरमां
साचुं भेदज्ञान करतां ज अतीन्द्रिय आनंद वेदाय छे, ने ते आनंदने वेदतो–वेदतो
धर्मीजीव सिद्धपदने साधे छे.