Atmadharma magazine - Ank 353
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : र४९९ आत्मधर्म : ३३ :
गुणना एकरसनी कोई परम अचित्य शांति वेदाय छे. आचार्यदेव कहे छे के अहो
जीवो! आवा आनंदनुं वेदन करो. अमे तो सतत आवा आनंदने वेदीए छीए ने तमे
पण भेदज्ञान करीने आवा आनंदने अनुभवो. अरे, चैतन्य सिवाय बीजे क्यांय
आनंदनी गंध पण नथी. अंदर भगवान आत्माने देखीने एकवार तो तुं आनंदित
था... राजी था! रागने वेदी–वेदीने दुःखमां तो तें अनंतो काळ गाळ्‌यो, हवे राग वगरनुं
आवुं सरस–मजानुं आनंदमय चैतन्यतत्त्व अमे तने बताव्युं –ते अनुभवमां लईने
राजी था... प्रसन्न था... आनंदित था.
वाह रे वाह! आवो आनंदमय मारो आत्मा संतोए मने बताव्यो. भेदज्ञान
वडे हवे मारा आत्माने हुं ज्ञानरूप ज देखुं छुं; मारुं ज्ञान अणुमात्र पण रागादि साथे
भळतुं नथी, छूटुं ने छूटुं रहे छे. ज्ञानथी विपरीत एवा रागादि भावोनो कोई अंश मने
मारा चैतन्यपणे भासतो नथी. आ रीते ज्ञान ज्ञानरूपे ज रहेतुं थकुं, अने राग–द्वेष–
मोहरूपे जराय नहि थतुं थकुं, शुद्ध आत्माने उपलब्ध करे छे–अनुभवे छे; एटले तेने
राग–द्वेष–मोहना अभावरूप संवरधर्म थाय छे. शुद्धोपयोगपूर्वक आवी आनंदमय
संवरदशा–सम्यग्दर्शन ने भेदज्ञान थाय छे, ते अभिनंदनीय छे, ते प्रशंसनीय छे.
अहो, वीतरागनो मार्ग कोई अलौकिक छे;
एमां रागनो कोई कणियो समाय नहीं.
आवो वीतरागमार्ग जयवंत छे.
भेदज्ञानी जीवनी ज्ञानपरिणति अद्भुत–अलौकिक होय छे. जेम सोनुं चारेकोर
अग्निना भडका वच्चे पण सोनुं ज रहे छे, ते सोनुं कांई अन्यरूप थई जतुं नथी के
बळी जतुं नथी; तेम रागथी भिन्न पडीने आनंदधामनो जेणे स्वाद चाख्यो छे एवुं
आत्मानुं शुद्धज्ञान, ते ज्ञान अनेकविध कर्मोदयनी वच्चे वर्तवा छतां पण ज्ञान तो
ज्ञानरूप ज रहे छे, ते ज्ञान कांई रागादिरूप के कर्मरूप थई जतु नथी. संयोगनी
अनुकूळतामां ते ओगळतुं नथी के प्रतिकूळतामां बळतुं नथी, ए तो परमभावपणे ज
पोताने वेदतुं थकुं शांतिने ज वेद्या करे छे; एटले तेने कर्मोनी निर्जरा ज छे.
पांडव भगवंतो मुनिदशामां शत्रुंजय उपर ध्यानमां हता ने दुर्योधनना भाणेजे
अग्निनो घोर उपसर्ग कर्यो; शरीरनां रजकणो बळवा मांडया, पण ते वखतेय ते
मुनिवरोनुं ज्ञान तो शांतरसमां तरबोळ छे, ते ज्ञान बळतुं नथी, शांति खसती नथी.
अहो, ए मुनिवरो बळता नथी पण अंदरनी शांतिमां ठर्या छे. चैतन्यना