तेम सम्यग्द्रष्टि–भेदज्ञानी जीवनो आत्मा जे शांतरसरूप परिणमी गयो छे ते शांत
ज्ञानमयभाव कदी रागरूप थतो नथी. राग तेमां प्रवेशतो नथी; रागथी जुदेजुदुं ज ज्ञान
वर्ते छे. अरे, चैतन्यतत्त्व पोते ज परम शांति अने ज्ञानभावरूप थयुं, तेमां हवे
जगतनी प्रतिकूळता केवी? गमे तेवा घोर कर्मोदय वखते पण ते ज्ञान शुद्ध–ज्ञानपणे ज
वर्ते छे, अंतरमां पोतानी शांतिना वेदनथी ते छूटतुं नथी. ए ज्ञान खाली नथी पण
परम शांतिथी भरेलुं छे, आनंदथी भरेलुं छे, अनंतगुणना वीतरागीरसथी भरेलुं छे.
परभावोथी जुदुं अलिप्त ज रहे छे. भेदज्ञाननुं कोई अद्भुत अचिंत्य वीतरागी जोर छे
के जेना बळे ज्ञान अने राग जुदा ने जुदा ज रहे छे; ज्ञान पोताना स्वरूपथी जरापण
च्युत थतुं नथी, आनंदथी छूटतुं नथी ने राग–द्वेषरूप थतुं नथी.
आत्मा आत्मारूपे थयो पछी तेमां विभाव के अशांति केवा? ने बहारनी प्रतिकूळता
तेमां केवी? ज्ञानमां तो परम शांति छे. अरे, आटली प्रतिकूळतानी शी वात! आनाथी
अनंतगणी प्रतिकूळता आवी पडे तोपण मने शुं? हुं तो ज्ञानमय छुं. ज्ञानमां
प्रतिकूळतानो प्रवेश छे ज क्यां? हुं चैतन्य–वीर, मारो अफरमार्ग, तेमां संयोगनी
प्रतिकूळता मने डगावी शके नहीं, के डरावी शके नहीं. मारो चैतन्यभाव रागथी जुदो
पड्यो ते फरीने कदी रागादि साथे एक थाय नहीं, वाघ ने सिंह आवीने शरीरने खाय
तो भले खाय, मारा अतीन्द्रिय ज्ञानने तो कोई खाई शके नहीं, हणी शके नहीं;
कदाचित् राग–द्वेषनी वृत्तिओ थाय तो ते वृत्तिओथी पण मारुं ज्ञान कदी अज्ञानरूप न
थाय; ज्ञान ते रागादिनी वृत्तिरूप थतुं नथी; ज्ञान तो ज्ञानरूप ज, रागादिथी अत्यंत
जुदुं, परम शांतिस्वभावपणे ज रहे छे. अरे, चैतन्यनी अनुभूतिमां धर्मीने जे शांति
थई ते शांति कोई संयोगमां छूटे नहि, राग पण ते शांतिने हणी शके नहीं. राग पोते
अशांति छे, पण चैतन्यनी जे शांति साधकने प्रगटी छे तेमां ते अशांतिनो प्रवेश नथी.
चैतन्यना आश्रये जे शांति तेने प्रगटी