Atmadharma magazine - Ank 354
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म : चैत्र : २४९९
उपाय छे; आ ज्ञानमां श्रद्धा–आनंद वगेरे अनंत भावोथी भरेलो चैतन्यरस वेदाय
छे; पण रागना कोई अंशनुं वेदन तेमां समातुं नथी. धर्मीने ज्ञाननी पर्यायमां भले
अनेक भेद हो, पण ते बधाय भेदो–बधी पर्यायो अंतरना ज्ञानस्वभाव साथे ज
एकपणे परिणमे छे, एकेय पर्याय रागना कोई अंश साथे भळती नथी; दरेक पर्याय
रागथी छूटी ज रहे छे, ने अंतरना चिदानंदस्वभावमां तन्मय थईने तेने ज
अनुभवे छे, ए रीते ते बधी पर्यायो आत्माना निजपदनी एकताने ज अभिनंदे छे
आवा आत्मस्वभावभूत ज्ञाननुं एकनुं ज अवलंबन करवाथी निजपदनी प्राप्ति
थाय छे, आत्मानो लाभ थाय छे ने भ्रांतिनो नाश थाय छे. आवा ज्ञानना
अनुभवथी ज मोक्ष पमाय छे.
मोटा केवळज्ञानमां अनुभवायुं ते ज्ञानपद मोटुं, ने साधकना नानकडा मति–
श्रुतज्ञानमां अनुभवायुं ते ज्ञानपद नानुं–एवा कांई भेद नथी. केवळज्ञान जेवी मोटी
ज्ञानपर्याय हो, के मतिश्रुतज्ञान जेवी नानी ज्ञानपर्याय हो, ते बधी पर्यायो अंतरमां
अभेद थईने एक ज्ञानस्वभावपणे ज पोताने प्रसिद्ध करे छे, एटले एक निजपदने ज
ते अभिनंदे छे, तेने भेदती नथी. आ रीते ज्ञानस्वभावनी अनुभूतिमां कोई भेद
रहेता नथी, एक चैतन्यस्वादथी भरेला निजपदस्वरूपे ज भगवान आत्मा प्रसिद्ध थाय
छे. अहो, आवा ज्ञानस्वरूप निजपदने हे जीवो! तमे देखो! दुनियाना लोको आ पदने
पामे के न पामे, पण हे मोक्षार्थी! तुं जो तारा आत्माना सुखने अनुभववा चाहतो हो
तो, लोकनी दरकार छोडीने तारा आवा ज्ञानमय निजपदने अनुभवमां ले. आ
ज्ञानस्वरूपना अनुभवथी ज तने उत्तम सुख थशे.
आत्मधर्मना चालु सालना ग्राहकोने
‘वीतरागविज्ञान’ (छ ढाळा प्रवचन त्रीजो भाग) भेट
आपवामां आवेल छे. वैशाख सुद बीज सुधी ज आ पुस्तक
भेट अपाशे. तो आपनुं भेटपुस्तक (रूबरूमां, अगर ३०
पैसानुं पोस्टेज खर्च मोकलीने) मेळवी लेवा सूचना छे.
वैशाख सुद बीज सुधीमां ग्राहक थनारने भेटपुस्तक मळशे.
आ उपरांत बीजुं भेट पुस्तक पण तैयार थाय छे.
(वैशाखथी आसो सुधीना अंकोनुं लवाजमा बे रूपिया छे.)
श्री जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट,
सोनगढ (सौराष्ट्र)