Atmadharma magazine - Ank 354
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २४९९ आत्मधर्म : ७ :
धर्मात्मानी बधी पर्यायओ जेने अभिनंदे छे एवुं
आनंदथी उल्लसतुं ज्ञानस्वादथी भरेलुं एक निजपद
रागमां निजपद मानीने, अज्ञानथी अंध बनीने जेओ सूता छे ने
चैतन्यमय निजपदने भूली रह्या छे, एवा जीवोने जगाडीने रागथी जुदुं शुद्ध
चैतन्यमय निजपद आचार्येदेवे देखाड्युं. अहो, आवा चैतन्यस्वादरूप निजपदमां
रागनो स्वाद समाय नहीं. ज्ञायकरसथी भरेला चैतन्यना महा स्वादमां बीजो कोई
स्वाद समाई शके नहीं; अत्यंत मधुर चैतन्यस्वाद रागना कोई अंशनी पोतामां
भेळसेळ सहन करी शके नहि; धर्मीने चैतन्यस्वादनी अनुभूतिमां बीजो कोई स्वाद
समाई शके नहीं. आवो महा आनंदथी भरेलो चैतन्यस्वाद आवे त्यारे जीव धर्मी
थयो कहेवाय. अहो, ज्ञानस्वरूपनो आ रसीलो स्वाद, तेनी पासे जगतना बीजा
बधा रस अत्यंत फिकका लागे छे, ते चैतन्यरस वगरना होवाथी अत्यंत नीरस छे.
अहो, ज्ञाने अंतर्मुख थईने ज्यां पोताना आवा ज्ञानरसनो स्वाद लीधो त्यां ते
ज्ञानपर्याय सामान्यज्ञान साथे अभेद थईने एकपणे परिणमी छे; तेमां रागादि तो
नथी, ने भेद पण नथी. ज्ञानपर्यायो छे ते तो अंतरमां एकाग्र थईने अभेदने ज
अभिनंदे छे. पर्यायमां मतिश्रुत वगेरे भेदो छे तेथी कांई ज्ञानस्वभाव भेदाई जतो
नथी, ते बधी पर्यायो तो अंतरमां अभेदने अनुभवती थकी ज्ञानस्वभावने ज
अभिनंदे छे. जुओ, आ धर्मीनी ज्ञानदशानुं स्वरूप! आवुं अभेदस्वभावने अभिनंदतुं
ज्ञान, तेनो अनुभव ते परमार्थ मोक्षनो उपाय छे; ते ज्ञानमां आत्मलाभ छे, ने तेमां
रागादि अनात्मानो परिहार छे. अहो, आवा अद्भुत ज्ञानतरंगथी चैतन्यरत्नाकर
स्वयमेव उल्लसी रह्यो छे. अत्यंत निर्मळ आनंदमय स्वसंवेदनपर्यायो, तेमां अद्भुत
निधिवाळा चैतन्यरत्नाकर भगवाननो रस अभिन्न छे; निर्मळज्ञानपरिणतिथी जुदो
आत्मानो रस नथी. आत्मानो रस निर्मळ चैतन्यपर्यायमां अभेद छे; ते पर्यायरूपी
तरंगसहित चैतन्यसमुद्र पोतामां डोली रह्यो छे.
आ चैतन्यस्वरूप निजपद एक छे, ते निजपदने अनुभवनारुं ज्ञान पण
तेमां अभेद थाय छे, तेथी ते पण एक ज छे. अभेद छे. आवुं जे अंतरमां अभेद
थईने परिणमेलुं (ने रागादिथी जुदुं परिणमेलुं) परमार्थरूप ज्ञान छे ते ज
साक्षात् मोक्ष