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एवा साहसिक छे के पोताना ज्ञानानंद स्वरूपथी जराय डगता नथी, ते वखतेय अंदर
ज्ञान–स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान वडे स्वरूपनी शांतिने वेदे छे. असाताना उदयथी तेनुं
ज्ञान छूटुं ने छूटुं वर्ते छे. जराक राग–द्वेष छे, दुःख छे पण ज्ञानस्वभावनी श्रद्धामां
तेने अडवा देता नथी. तेमज हजारो देवो खमा–खमा करता होय, –सातानी बधी
अनुकूळ सामग्री होय, छतां ते साताना उदयनेय धर्मीजीव ज्ञानमां अडवा देता नथी,
ज्ञानने तेनाथी छूटेछूटुं ज अनुभवे छे. लाखो वींछी करडे, के करोडो देवो सेवा करे तेथी
ज्ञानने शुं? सम्यग्द्रष्टि तो ज्ञानपणे ज पोताने वेदे छे, ज्ञान साथे आनंदनुं–शांतिनुं
वेदन वर्ते छे. –धर्मीनी आवी अद्भुत ज्ञानदशा छे ते निर्जरानुं ज कारण छे.
अने स्वभाव बंनेने भिन्न ज जाणे छे, ने पोते पोताना स्वभावमां निःशंक रहीने
ज्ञानभावपणे ज पोताने अनुभवे छे. राग अने शरीर मारामां छे ज नहि, एटले
तेना फेरफारे मारुं ज्ञान अन्यथा थई जतुं नथी. –आवी श्रद्धाना बळे धर्मीनुं ज्ञान
रागमां एकत्व रूप थतुं नथी, त्यां संयोगनी वात क्यां रही? जगतना
कोई वज्रपातमां एवी ताकात नथी के ज्ञानस्वरूप एवा मारो नाश करी शके. शरीरनो
नाश थाय ते तो तेनो स्वभाव छे, पण कांई तेना नाशे मारो नाश थई जतो नथी.
अहो. हुं तो शुद्ध आनंदकंद छुं.–आवी वेदनासहित प्रतीत धर्मीने सदाय वर्ते छे. तेथी
कुंदकुंदस्वामी कहे छे के–
छे सप्त भय प्रविमुक्त जेथी तेथी ते निःशंक छे.
चेतनाथी जुदी एवी ज्ञानचेतनारूपे ज ते पोताने अनुभवे छे. बहारना संयोग सारा
होय तो मारा श्रद्धा–ज्ञान टके एवी बुद्धि धर्मीने नथी. आ प्रतिकूळता तो केटलोक काळ
रहशे! हमणां ते मटीने अनुकूळता आवशे ने मने ठीक पडशे–एवी संयोगबुद्धि धर्मीने
नथी. कोई धर्मीने ख्याल आवे के मने तीर्थंकरप्रकृति बंधाशे ने हुं तीर्थंकर थईश,–पण
त्यां धर्मीने ते तीर्थंकरप्रकृतिना कर्मफळनी भावना नथी,