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मारुं ज्ञान शाश्वत छे, ते कोईथी हणाय तेवुं नथी.
स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञानमां ते वखतेय निःशंक अने निर्भय वर्ते छे. धर्मीनी आवी
अद्भुत दशा बहारथी ओळखाय नहि. अज्ञानी बहारथी लडाई वगेरेमां निर्भय
देखाय, पण अंदर चैतन्यना भान वगर साची निर्भयता होय नहि. शरीरनो नाश
थतां आत्मानो नाश थशे–एवी देहबुद्धि छे ते ज मोटो भय छे. देहथी भिन्न
चैतन्यतत्त्व जेणे जाण्युं ते सम्यग्द्रष्टि जगतना गमे तेवा खळभळाट वच्चे पण
स्वभावमां निर्भय वर्ते छे...आखी दुनिया भले डुबी जाय पण ते धर्मी पोताना
स्वभावथी डोले नहि...आवुं अद्भुत पराक्रम सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे.
दीधी हती. पण ज्यां पुण्य फर्या ने द्वारकानगरी भडभड बळवा मांडी त्यारे श्रीकृष्ण
अने बळभद्र जेवा महान जोद्धा पण तेने बचावी शक्या नहि, अरे! पोताना मा–
बाप अग्निमां भडभड बळता हता तेने पण बहार काढी शक््या नहि; सेवा करनारा
कोई देवो पण ते वखते न आव्या. छमहिना सुधी द्वारकानगरी सळगती हती; अनेक
जीवो तेमां बळी गया. श्रीकृष्ण बळभद्रना खभे माथुं नाखीने रडे छे; छतां ते वखतेय
अंदरमां चिदानंद तत्त्वना श्रद्धा–ज्ञानमां तो अत्यंत निःशंक अने निर्भय ज वर्ते छे;
ते श्रद्धा ज्ञान बळ्या नथी, तेने ऊनी आंच पण आवी नथी. द्वारका भले बळी
गई पण मारुं ज्ञान बळ्युं नथी, ते अवध्य छे, तेने कोई बाळी शके नहि, हणी शके
नहि. गमे तेवा शुभ–अशुभ कर्मना उदय वखते पण धर्मी पोताना ज्ञान–आनंदरूपे ज
परिणमे छे; शुभाशुभ परिणाम हर्ष–शोक थाय छतां ज्ञानने तो तेनाथी जुदुं ज वेदे छे.
ज्ञानीनी आ कोई अद्भुत अचिंत्य ताकात छे; तेने अज्ञानी ओळखी शके नहि. अरे,
ज्ञान ते कोने कहेवाय? ए ते कांई संयोगथी के रागथी चलित थई जतुं हशे?–ना;
संयोगथी ने रागादि भावोथी जुदुं ज रहेतुं ज्ञान पोताना चैतन्यस्वभावमां ज अचल
रहे छे, ‘हुं आनंदमय चैतन्यतत्त्व छुं’ एवा श्रद्धा–ज्ञानथी ते जरापण डगतुं नथी.
तेनुं ज्ञान सदाय आनंदने ज वेदे छे.