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पुरुषार्थ छे; आ ज सम्यग्द्रष्टिनुं अद्भुत पराक्रम छे.
आवी तेनाथी ज्ञानी चलित थाय नहि; तेने भय न थाय के अरे, मारो नाश
थई जशे!–के प्रतिकूळतानी भींसमां मारा श्रद्धा–ज्ञान भींसाई जशे! निर्भयपणे ते
पोताना ज्ञानस्वरूपने श्रद्धे छे–जाणे छे–वेदे छे. आत्मवस्तु पोते स्वभावथी ज निर्भय
छे, कोईथी नाश न थई शके एवो शाश्वत ज्ञानस्वभाव छे; आवा स्वभावना
अनुभवने लीधे धर्मीने आत्मामां समस्त शंकानो अभाव छे, एटले भयनो अभाव
छे. बहारनी अनुकूळता के प्रतिकूळता ज्ञानस्वभावमां क्यां छे? ते अनुकूळ–प्रतिकूळ
संयोगो ज्ञानने अडता ज नथी. अने शुभ–अशुभ रागादि पण ज्ञानस्वभावने अडता
नथी. आवा स्वभावपणे पोताने अनुभव्यो त्यां ज्ञानीने सहज निर्भयता होय छे.
प्रतिकूळताना भयथी कदाच स्वर्गना देवो पण भयभीत थईने डगी जाय, तोपण
धर्मीजीव पोताना स्वभावना श्रद्धा–ज्ञानथी डगे नहि, शंका करे नहि, भय पामे नहि–
के अरे, मारो नाश थई जशे! के प्रतिकूळताथी मारा श्रद्धा–ज्ञान हणाई जशे!
स्वभावथी ज निःशंक वर्तता धर्मी पोते पोताने स्वयंरक्षित ज्ञानशरीरी जाणे छे, ज्ञान
ज मारुं शरीर छे, ते कोईथी हणी शकातुं नथी. जड शरीर कांई मारुं नथी. आवा
ज्ञानस्वरूपना वेदनथी धर्मीजीव कदी च्युत थता नथी,
आवी जाय छे? हुं क्यां जईश? मारा ज्ञाननुं शुं थशे? एवी शंकारूप भय ज्ञानीने
नथी; बहारथी कदाच भागे, रूए,–पण ते ज वखते ज्ञानस्वभावनी श्रद्धा–ज्ञानथी
जराय डगता नथी, तेमां शंका करता नथी, ज्ञानना नाशनो भय करता नथी. अरे,
ज्ञानीना श्रद्धा–ज्ञाननी अचिंत्य ताकात! तेनी जगतने खबर नथी.
ज्ञान–आनंद थया तेने पण कोई नाश करी शके नहि. एटले ज्ञानीने सहज निर्भय–