: २४९९ : जेठ आत्मधर्म : ३९ :
जीव क्रोधथी अंध बनीने पोते पोताने केवुं नुकशान करे छे तेनुं एक स्थूळ
द्रष्टांत:–बे माणसोने एकबीजा साथे दुश्मनावट थई; बंनेनुं घर आजुबाजुमां ज हतुं.
एके क्रोधथी विचार्युं के हुं सामानुं घर बाळी नाखुं. ते– अनुसार सामानुं घर बाळी
नांखवा तेना घरमां अग्नि फेंकीने भाग्यो. पण बीजो माणस ते देखी गयो; पोतानुं
घर बळतुं होवा छतां क्रोधथी तेणे विचार्युं के, जो घर ठारवा रोकाईश तो आ शत्रु
भागी जशे;–माटे तेने पकडुं. एम तेने पकडवा तेनी पाछळ गयो; अने पछी पाछो
आवीने जुए छे तो पोताना घरनुं नामनिशान न मळे... आगमां बधुंय भस्मीभूत!
ते देखीने तेने पस्तावो थयो के अरेरे! शत्रु उपर क्रोध करवा करतां में पोते मारा
घरनी आग ठारी होत तो मारुं घर न बळत...तेम जीवने कांईक प्रतिकूळतानो प्रसंग
आवतां सामा उपर ते क्रोध करे छे, ए क्रोध वडे पोते पोताना स्वघरनी शांतिने बाळे
छे; पण क्रोधाग्नि बुझावीने पोते पोताना शांत परिणाममां रहे तो एने कंई ज
नुकशान न थाय, ने पोतानी आत्मिकशांति मळे. आ रीते प्रतिकूळतामां क्रोध–ए
दुःखथी बचवानो उपाय नथी, पण शांति ए ज दुःखथी बचवानो उपाय छे जगतनो
कोई शत्रु तारी जे शांतिने हणवा समर्थ नथी ते शांतिने तुं पोते ज क्रोध वडे केम हणे
छे? न हण, नहण.
ज्यां क्रोध छे त्यां दुःख छे... ज्यां शांति छे त्यां सुख छे.
सूचना:– आत्मधर्मना गतांकमां ८४ बोलनी रत्नमाळा छपायेल छे, तेमां
४० मा पाने, ६४ नंबरनो बोल अधूरो छपायेल छे, ए आखो बोल नीचे मुजब छे–
“अे प्राणोनी संतति तोडीने तारे सिद्धपदनुं जीवन प्राप्त करवुं होय तो
एकने ज अवलंबीने तेमां सुनिश्चिळ था.–एवी दशा थतां जड प्राणोना धारणरूप
संसार–संततिनो छेद थशे, ने अशरीर अतीन्द्रिय परम ज्ञानानंदमय जीवन प्रगटशे.
ज्ञान चेतना
जबलग ज्ञानचेतना न्यारी तबलग जीव विकल संसारी,
जब घट ज्ञान चेतना जागी तब समकिती सहज वैरागी.
सिद्धसमान रूप निज माने पर संयोगभाव परमाणे,
शुद्धातम अनुभौ अभ्यासे त्रिविध कर्मकी ममता नासे.