Atmadharma magazine - Ank 357
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: ३४ : आत्मधर्म : अषाढ : २४९९
धर्मात्मानी संपदा:–
(पृष्ट ८ना लेखनो बीजो भाग)
– आम कहे के अमे जैन, अमे वीतरागदेवना भक्त; पण जराक अनुकूळता
आवे त्यां ललचाई जाय ने हर्षमां एकाकार थई जाय, तथा प्रतिकूळता आवे त्यां अंदर
महा खेदखिन्न थईने ते खेदमां एकाकार थई जाय, हर्ष–शोकथी जुदा ज्ञानने भूली जाय;
संयोग फरतां जाणे आत्मा ज खोवाई गयो! – ए ते कांई वीतरागना भक्तने शोभे
छे? जिनभगवाननो भक्त धर्मी तो गमे ते संयोगमां, संयोगथी भिन्न आत्माने भूले
नहीं, आत्मानुं ज्ञान छोडीने तेने हर्ष–शोक थाय नहीं; हर्ष–शोकथी ज्ञान जुदुं ने जुदुं
रहे एटले शांतिनुं वेदन रहे. घणा कहे छे के “अरेरे! अमने क्यांय शांति नथी! ’ –
पण बापु! तुं पोताने वीतरागनो भक्त अने जिनेश्वरनो पुत्र कहेवडावे अने तने
शांति केम नहीं? विचार तो खरो! वीतरागनो पुत्र रागना फळमां अटके नहि, ए तो
बंनेनो ज्ञाता रहीने, पोताना ज्ञाननी अपूर्व शांतिने अनुभवे. हर्ष – शोकथी पार
आत्माना आनंदनो स्वाद तेणे चाख्यो छे.
‘समय बदलाय छे ज्यारे... बधुं पलटकाय छे त्यारे! ’ – जाणे संयोग पलटतां
आत्मा ज आखो पलटी गयो! एम अज्ञानी संयोगने ज जोईने हर्ष–शोक कर्यां करे छे,
पण भाई! संयोगमां तुं क्यां छो? संयोग पलटतां तुं क्यां पलटी गयो छो? तुं तो
ज्ञानरूप ज रह्यो छो. संयोगथी भिन्न ज्ञानस्वरूपने लक्षमां तो ले. तो तने संयोगमां
हर्ष–शोकनी बुद्धि छूटी जशे, ने ज्ञाननी भावनाथी अपूर्व शांतिनुं वेदन थतां संसारना
जन्म–मरणना फंदा मटी जशे. माटे भेदज्ञान करीने आवी ज्ञानभावना निरंतर करवी –
ते ज जगतमां सार छे. ते ज आत्मानी साची संपदा छे.

(चक्रवर्तीना पुत्रो प्रभुपासे जईने जिनदीक्षा लेतां कहे छे के हे देव! आ
चक्रवर्तीनी संपदामां सुख नथी, अमारी चैतन्यसंपदामां ज अमारुं सुख छे... एम अमे
आपना मार्गथी जाण्युं छे. तेने पूर्ण सांधवा माटे अमे जिनदीक्षा लेवा मांगीए
छीए..)’