Atmadharma magazine - Ank 357
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : २४९९ आत्मधर्म : ३३ :
अहा, जुओ तो खरा सम्यग्ज्ञाननो महिमा! सम्यग्ज्ञान थयुं त्यां आत्मामां
धर्मनुं चोमासुं बेठुं.... ने शांतिनी अमीरसधारा वरसी. सम्यग्ज्ञान थतां चेतन्यमां
शांतिना शीतळ फूवारा ऊछळे छे, ते शांतिनी धारा विषय–कषायना अग्निने बुझावी दे
छे. सम्यग्ज्ञान विना बीजा कोई उपाये जीवने विषय–कषाय मटे नहि ने सुख–शांति
थाय नहीं. माटे हे जीव! तुं शीघ्र सम्यग्ज्ञाननुं सेवन कर. धर्मना अंकूर ऊगाडवा माटे
हवे आ ‘श्रावण मास आव्यो छे. ’
रावणना राज्यमां..... अने अत्यारे...!
पद्मपुराणमां एक वात आवे छे: लंकानो राजा रावण
त्रणखंडनो दिग्विजय करवा नीकळ्‌यो त्यारे मरूत राजाना
ब्राह्मणो यज्ञमां पशुवध करी रह्या हता; नारदे तेमनी साथे
झगडो करीने तेमने पशुवध करता रोक्या. ते बधाए भेगा
थईने नारदने मार्या ने पकड्या. आ समाचार जाणीने
रावणने घणो क्रोध थयो के अरे, आ शुं? मारा राज्यमां
जीवघात करे छे? – तेणे हिंसक जीवोने शिक्षा करी ने नारदने
छोडावीने तेनी प्रशंसा करी. राजाने पकड्यो; त्यारे ते राजा
नमस्कार करीने कहेवा लाग्यो के हे लंकेश! मने क्षमा करो.
अज्ञानीओना मिथ्या उपदेशथी हुं हिंसामार्गमां प्रवर्त्यो हतो,
तेमांथी उद्धार करीने तमे मने अहिंसामय धर्ममां जोड्यो छे.
– आ रीते राजा रावणना वखतमां पण जाहेरमां
जीवहिंसा थई शकती न हती... अने अत्यारे... स्वराज्यमां?
.... राज्यनी मददथी लाखो पशुहिंसाना जाहेर कारखाना
स्थपाय छे! रे काळ!
नरकमां सिंह – वाघ – वींछी – सर्प होय?
ना; त्यां एवा तिर्यंचजीवो होतां नथी; नरकमां जे सिंह
वाघ – वींछी – सर्प वगेरे देखाय छे ते तो मायामयी छे एटले
के ते नारकीओए अथवा परमाधामी देवोए करेली विक्रिया छे.
पंचेन्द्रियतिर्यंचो के विकलेन्द्रियजीवो त्यां होता नथी.