Atmadharma magazine - Ank 357
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: ३२ : आत्मधर्म : अषाढ : २४९९
वरसे छे परम आनंद थाय छे. जेने पोतामां आवी सम्यग्ज्ञानधारा वरसती नथी
एवो अज्ञानी मोहना ऊकळाटमां बळे छे, तेने तो दुष्काळ छे. ज्ञाननी मेघवृष्टि
वगर एने शांति क््यांथी थाय? माटे हे जीव! तुं सम्यग्ज्ञान कर.
अरे, तारे तारुं हित साधवानो आ अवसर छे, तो तेमां विकारथी ज्ञानने
भिन्न करवानो अवसर शुं तने नहि मळे? जो विकारथी ज्ञानने भिन्न करवानो
प्रयत्न नहीं कर तो तने मोक्षनो अवसर क््यांथी आवशे? सळगता सुका वननी
जेम रागनी चाहमां सळगतो आ संसार, तेनाथी छूटवा माटे तारा
चैतन्यगगनमांथी तुं सम्यग्ज्ञानना शांत जळनी मेघधारा वरसाव.
आत्माने समजाय अने आत्माथी थई शके – एवी वात छे. एककोर
वीतरागी शांतरसनो दरियो, बीजीकोर संसारना रागरूपी दावानळ, – ते बंनेने
भिन्न जाणनारूं सम्यग्ज्ञान रागना दावानळने बुझावी नांखे छे, ने आत्माने
शांतिमां ठारे छे.
जेम ठंडो बरफ, अने उनो अग्नि, ए बंनेनो स्पर्श जुदी जातनो छे, तेम
शांतरसरूप ज्ञान, अने आकुळतारूप राग, ए बंनेनो स्वाद तद्न जुदी जातनो छे,
ते ज्ञानथी ओळखाय छे, रागथी भिन्न ज्ञानना अचिंत्य सुखनो स्वाद जेणे
चाख्यो छे एवा ज्ञानी जाणे छे के – ज्ञानथी भिन्न एवा जे शुभाशुभ
ईन्द्रियविषयो तेमां क््यांय मारा सुखनो छांटोय नथी; तेमां परमां सुख मानवुं ते
मिथ्यात्व छे. ज्यां सुख भर्युं छे एवा स्वविषयने भूलीने, परविषयोमां
सुखबुद्धिने लीधे मिथ्याद्रष्टि जीव विषयकषायनी भयंकर आगमां निरंतर बळी
रह्यो छे, – दुःखी थई रह्यो छे. तारा आत्माने दुःखमां बळतो बचाववा माटे हे
जीव! तुं शीघ्रपणे विषयोथी भिन्न एवा तारा चैतन्यअमृतना समुद्रने देख. एक
वहालो भाई के बहेन बळती होय, के घर सळगतुं होय तो तेने बचाववा बीजा
बधा काम पडता मुकीने केवी तालावेली करे छे! तो अहीं वहालामां वहालो एवो
पोतानो आत्मा भयंकर भवदुःखना अग्निमां बळी रह्यो छे तेने बचाववा हे जीव!
तुं शीघ्र तालावेली कर... ने सम्यग्ज्ञान कर. सम्यग्ज्ञान थतां आत्मामां शांतरसनी
अतीन्द्रिय मेघधारा वरसशे. आ सम्यग्ज्ञान ज भयंकर संसार – दावानळथी
बचवानो एकमात्र उपाय छे. तेथी मुनिवरोए सम्यग्ज्ञानने अत्यंत प्रशंस्युं छे.