: अषाढ : २४९९ आत्मधर्म : ३१ :
ज्ञानरूपी मेघवर्षा वरसी..... ने भवदावानळ बुझाई गयो
सम्यक्त्वने श्रावणमासनी उपमा छे; श्रावण मासमां जेम मेघवर्षा थाय
छे ने सर्वत्र शांति प्रसरे छे, तेम सम्यक्त्व थतां आत्मामां अपूर्व शांतरसनी
मेघवर्षा थाय छे. छहढाळामां पं. दौलतरामजी कहे छे के सम्यग्ज्ञानरूपी मेघवर्षा
ज आ भयानक दुःख दावानळने बुझाववानो उपाय छे –
“विषय चाह–दवदाह जगतजन–अरनि दझावै;
तास उपाय न आन ज्ञान–घनघान बुझावे.”
अहो, ज्ञान अने रागनी भिन्नताना भावभासन वडे ज्यां सम्यग्ज्ञान थयुं त्यां
आत्मामां चैतन्यना शांतरसनी एवी मेघवर्षा थई के अनादिना विषय–कषायनी
भयंकर आग क्षणमात्रमां ठरी गई. ज्ञान थतां ज कषायोथी आत्मा जुदो पडी गयो ने
चैतन्यना परम शांतरसमां मग्न थयो. पछी जे अल्प रागादि रह्या ते तो ज्ञानथी
जुदापणे रह्या छे, एकपणे रह्या नथी. कषायना कोई अंशने धर्मीजीव ज्ञानमां भेळवता
नथी... आवुं अपूर्व ज्ञान ते परम महिमावंत छे – एम मुनिनाथे कह्युं छे.
सम्यग्ज्ञानवडे आत्माना अनुभवथी अंतरमां ज्यां शांत चैतन्यरसनी धारा
उल्लसी, त्यां धर्मी कहे छे के –
अब मेरे समकित – सावन आयो....
अनुभव–दामिनी (वीजळी) दमकन लागी, सुरति घटा घन छायो;
साधकभाव – अंकूर ऊठे बहु जित–तित हरष छवायो... अब मेरे समकित०
अमारा आत्मामां सम्यक्त्वरूपी श्रावणमास आवतां हवे मोहनी ग्रीष्मऋतुनो
ऊकळाट शमी गयो छे ने शांतरसनी घनघोर धारा असंख्यप्रदेशमां सर्वत्र वरसी रही
छे; मोहनी धूळ हवे ऊडती नथी; स्वानुभवरूपी वीजळीना झबकारा थाय छे, ने धर्मना
नवीन आनंदमय अंकूरा फूटया छे. – आम धर्मीने सम्यग्ज्ञाननी मेघवर्षा