Atmadharma magazine - Ank 357
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: ३० : आत्मधर्म : अषाढ : २४९९
शुद्धोपयोग वडे स्वरूपमां पूर्ण लीन थतां वीतरागता अने केवळज्ञान थयुं एटले
के तेओ अरिहंत परमात्मा थया. ते परमात्मा दिव्यशक्तिवाळा केवळज्ञान वडे
त्रणलोक–त्रणकाळने एक साथे प्रत्यक्ष जाणे छे. ‘नमो अरिहंताणं’ कहेता आवा
केवळज्ञाननी प्रतीत साथे आववी जोईए, तो ज अरिहंतदेवने साचा नमस्कार
थाय. पंचपरमेष्ठीमां अरिहंतभगवान तथा सिद्धभगवान केवळज्ञानी छे.
सीमंधरभगवान वगेरे लाखो अरिहंतभगवंतो अत्यारे पण आ मनुष्यलोकमां
विचरी रह्या छे. आवा केवळज्ञाननी प्रतीत आत्माना ज्ञानस्वभावनी प्रतीतपूर्वक
थाय छे. एवुं केवळज्ञान केम थाय? – के सर्वज्ञस्वभावी आत्माना सम्यग्दर्शन–
ज्ञानपूर्वक तेनो अनुभव करतां करतां केवळज्ञान थाय छे, बीजा कोई उपायथी
केवळज्ञान थतुं नथी. पहेलांं सम्यग्ज्ञान पण शुभरागथी नथी थतुं पण राग
वगरना आत्माना अनुभवथी ज थाय छे; ने पछी केवळज्ञान पण रागरहित
आत्माना अनुभवमां एकाग्रतारूप शुद्धपयोगवडे ज थाय छे. – आम ओळखे तो
ज केवळज्ञानने ओळख्युं कहेवाय. रागवडे ज्ञान थवानुं माने तेणे केवळज्ञानने के
एककेय ज्ञानने ओळख्युं नथी; तेणे तो ज्ञान अने रागनी भेळसेळ करीने
केवळज्ञानने पण रागवाळुं मान्युं; केमके रागने कारण मान्युं तो तेनुं कार्य पण
रागवाळुं ज होय. – पण ज्ञान अने रागनी अत्यंत भिन्नता जाणीने
ज्ञानस्वभावनो अनुभव करवो ते ज केवळज्ञाननुं कारण छे – एम धर्मी जीवो
जाणे छे, ने तेओ ज्ञान साथे रागनी जरापण भेळसेळ करता नथी;
वीतरागविज्ञानवडे तेओ केवळज्ञानने अने मोक्षसुखने साधे छे.
चैतन्यनी अगाध ताकातवाळुं, अने सर्वथा राग वगरनुं एवुं केवळज्ञान
छे, ते केवळज्ञाननो स्वीकार रागवडे थई शकतो नथी पण ज्ञानस्वभावनी
सन्मुखताथी ज थाय छे. ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थतां रागथी जुदो पड्यो एटले
पोतामां भेदज्ञान थईने सम्यग्ज्ञान थयुं, त्यां सर्वज्ञनी पण साची ओळखाण थई.
ते ज्ञान साथे राग वगरनुं वीतरागी सुख पण भेगुं ज छे. सम्यक्मति–श्रुतज्ञान
ते रागथी भिन्न केवळज्ञाननी जातना ज छे, तेओ केवळज्ञान साथे केलि करनारा
छे.
आ प्रमाणे सम्यग्ज्ञाननुं स्वरूप ओळखीने तेनुं सेवन करो; केमके जगतमां
सम्यग्ज्ञान सिवाय बीजुं कोई जीवने सुखनुं कारण नथी; सम्यग्ज्ञान ज जन्म–
मरणनां दुःखोने मटाडनारुं ने मोक्षसुख देनारुं परम अमृत छे.