Atmadharma magazine - Ank 357
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page  


PDF/HTML Page 41 of 41

background image
फोन नं. : ३४ “आत्मधर्म” Regd. No. G. 182
*
(तत्त्वज्ञान–तरंगिणीमांथी अध्याय ८)
* ते महानुभावने शुद्धचिद्रूपनी प्राप्ति थाय छे के जेनी प्रज्ञा हंस जेवी, कतकफळ
जेवी अथवा छीणी जेवी छे.
* जेम तुषातुर पुरुष सेवाळने दूर करीने स्वच्छ पाणी पीए छे तेम उत्तम
बुद्धिमान मुमुक्षु जीव कलेशना नाशने माटे विकल्पजाळरूप सेवाळने दूर करीने
स्वात्मध्यानरूप स्वच्छ अमृतनुं पान करे छे.
* कदी क्यांय पण स्वात्मध्यान सिवाय बीजुं कोई सुख नथी, आत्मध्यान सिवाय
बीजो तप नथी, आत्मध्यान सिवाय बीजो कोई मोक्षमार्ग नथी.
* मोहथी घेरायेला कोई जीवो तो यशनी पाप्तिथी के ईंद्रियसुखथी, उत्तम स्त्रीथी,
पुत्रथी, सेवकथी, राज्यथी, अधिकारथी, उत्तम वाहनथी, बळथी, मित्रथी,
पंडिताईथी के रूप वगेरेथी संतुष्ट थईने पोतानो जन्म सफळ माने छे. परंतु हुं
तो, अत्यंत कठिनताथी प्राप्त जे आत्मा अने देहनुं भेदविज्ञान, – तेना वडे ज
मारा जन्मने सफळ मानुं छुं ने तेना वडे ज हुं संतुष्ट छुं.
* दुर्भेद्य एवो आ कर्मपर्वत, चैतन्यभूमिमां त्यांसुधी ज टकी शके छे के ज्यांसुधी
ते कर्मपर्वतना मस्तक पर आ भेदज्ञानरूपी वज्र नथी पडतुं. भेदज्ञानरूपी वज्र
पडतां ज कर्मपर्वतना चूरेचूरा थई जाय छे.
* आ जगत मध्ये प्रथम तो चैतन्यस्वरूपनी रुचि करावनारां कारणो मळवा
दुर्लभ छे; चैतन्यस्वरूपनुं पतिपादन करनारां शास्त्रोनी प्राप्ति तेनाथी पण
दुर्लभ छे; तेनाथी पण चैतन्यस्वरूपना उपदेशक गुरु मळवा मोंघा छे; अने
भेदज्ञानवडे चैतन्यस्वरूपनो अनुभव ते तो चिंतामणिरत्ननी प्राप्ति समान
दुर्लभ छे.
(अहा, आवा दुर्लभ चैतन्यरत्नने पामीने धर्मी पोताने कृतकृत्य अनुभवे छे.)
प्रकाशक: (सौराष्ट्र) प्रत: ३२प०
मुद्रक: मगनलाल जैन, अजित मुद्रणालय: सोनगढ (सौराष्ट्र) : अषाढ (३५७)