Atmadharma magazine - Ank 358
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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श्रावणसुद पूनम आवे छे ने वात्सल्यना मधुर संदेश लावे छे. लौकिकमां बहेन
पोताना भाई प्रत्ये रक्षाबंधन करीने केवुं निर्दोष वात्सल्य बतावे छे! तो पछी
साधर्मीनो धर्मसंबंध तो भाई – बहेनना संबंध करतांय वधु ऊंचो छे, एना परस्पर
वात्सल्यनी शी वात!
धर्मात्माओ तो निस्पृह होय छे, तेओ कांई कोईनी सहायनी अपेक्षा राखता
नथी, तेओ तो निःशंक अने निष्कांक्षपणे पोतानी आत्मसाधनामां वर्ते छे; पण जेम
पुत्र उपरनुं संकट माता देखी शकती नथी तेम धर्मात्मा उपर के धर्मी उपरनुं कोई संकट
धर्मात्मा देखी शकता नथी, तेमना प्रत्ये सहेजे वात्सल्य आवी जाय छे. साधर्मीने
देखीने प्रेम – प्रसन्नता अने आ मारा स्वजन छे एवो आत्मीयभाव धर्मीने आवे छे;
तेथी एकबीजानी धार्मिकभावनानी अनुमोदना अने पुष्टि करे छे.
अहा, एक ज वीतराग–परमात्माना चरणमां शिर झुकावनारा सौ साधर्मीओने
परस्पर वात्सल्य होय एमां शुं आश्चर्य छे! अहो, जगतमां सर्वोत्कृष्ट आवो वीतराग
जैनमार्ग, तेने उपासनारा साधर्मीओ धन्य छे.... आदरणीय छे, तेमने माटे हुं जेटलुं
करुं एटलुं ओछुं छे.
बंधुओ! वीरप्रभुना मोक्षनुं अढी हजारमुं वर्ष बेसवानी तैयारी छे त्यारे
आपणे समस्त जैनो अंतरना हार्दिक वात्सल्यथी जैनसमाजने दीपावीए...एक
धर्मापिताना सौ वीर–संतानो एक बनीए, वीरनाथना मार्गमां आपणा जीवनने
पवित्र करीने वात्सल्यना शणगारथी शोभावीए, ने जैनधर्मध्वजने आनंदथी जगतमां
फरकावीए...ए ज भावना..
– ब्र. ह. जैन.