: भाद्रपद र४९९ : आत्मधर्म : १५ :
परम नैष्कर्म्य (शुभाशुभ कोईपण कर्मथी रहित) एवा मुनिवरोने पण
रत्नत्रयनी भक्ति होवानुं कह्युं;–आ भक्ति शुं रागवाळी छे? ना; रत्नत्रयनी
जेटली शुद्धता थई तेटली शुद्धरत्नत्रयनी भक्ति छे, ते ज निर्वाणभक्ति छे, आ
भक्ति अपुनर्भव एवा मोक्षनुं कारण छे. श्रावकने पण सम्यक्त्वादिनी जेटली
शुद्धता छे तेटली भक्ति छे. (३)
आवी निर्वाणभक्ति कोई परना आश्रये थती नथी, बहारमां बीजा
भगवानना आधारे पण आवी निर्वाणभक्ति थती नथी, पण अंतरमां
पोताना परमात्मानी सन्मुख थईने आवी भक्ति थाय छे. स्वभावमां
उपयोगने जोडवाथी आवी परम भक्ति थाय छे. आवी भक्ति वडे ऋषभादि
जिनवरो निर्वाणसुखने पाम्या; माटे तुं पण उपयोगने अंतर्मुख करीने आवी
श्रेष्ठ भक्ति कर. (४)
श्रावक पण शुद्धरत्नत्रयनो भक्त छे. सम्यक्त्वादि वडे जे शुद्ध रत्नत्रयनी
भक्ति करे छे, तेनी आराधना करे छे, ते श्रावक छे. रत्नत्रयनी आवी
आराधना वगर श्रावणपणुं के मुनिपणुं होय नहि. (प)
शुद्धरत्नत्रयनी सेवा–भक्ति पोताना परमात्मतत्त्वनी सन्मुखता वडे थाय छे.
स्वसन्मुख थईने जेणे शुद्धरत्नत्रयने सेव्या ते जीव रागने सेवे नहि. शुभराग
वच्चे आवी जाय तेने ते जीव सेववा योग्य के मोक्षनुं कारण मानतो नथी. राग
ते निर्वाणभक्ति नथी. (६)
अहो, ज्ञानस्वरूप आत्मा, पोते ज्ञानरूप थईने ज्ञानने सेवे ते ज मोक्षनुं कारण
छे. पोते ज्ञानस्वरूप होवा छतां, अज्ञानी ज्ञानने एकक्षण पण सेवतो नथी.
ज्ञाननुं सेवन करे तो मोक्षमार्ग प्रगटे. (७)
गुण–गुणी अभेद करीने, एटले के द्रव्य–पर्याय अभेद करीने ज ज्ञाननुं सेवन
थाय छे. आवी रीते ज्ञाननुं सेवन कर्युं ते तो साधक थयो, ते अनंत सिद्ध
भगवंतोनो कुटुंबी थयो, तेणे संसार साथे संबंध तोड्यो ने सिद्धपद साथे
संबंध जोड्यो. (८)
भगवंतो जे करीने निर्वाण पाम्या तेवुं पोतामां करवुं ते ज खरी निर्वाणभक्ति
छे, ते ज मोक्षगत पुरुषोनी गुणभक्ति छे. आवी गुणभक्ति तो मोक्षनुं कारण
छे. आवी गुणभक्ति रागवडे थई शकती नथी, स्वभाव सन्मुखता वडे ज
थाय छे. (९)