Atmadharma magazine - Ank 360
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: आसो र४९९ : आत्मधर्म : र९ :
परिणमन थयुं ते ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान वगेरे छे. ज्यां जे वस्तुनी खाण भरी होय
तेमांथी ते नीकळे; कुवामां पाणी होय तो बहार आवे; तेम सम्यग्दर्शननी खाण क्यां
छे? सम्यग्दर्शननी खाण आत्मा छे. अनंत गुणनी खाण आत्मा छे. सम्यग्दर्शन
वगेरेनी प्राप्ति माटे पोताना आत्मा सिवाय बीजे क्यांय जवुं पडे तेम नथी.
सम्यग्दर्शननी ध्रुव खाण एवो आत्मस्वभाव तेनो स्वीकार करतां ज सम्यग्दर्शन थाय
छे, बीजो कोई उपाय छे ज नहि. सम्यग्ज्ञान वगेरेनी पण आ ज रीत छे शुद्धात्मानी
सन्मुखतामां वच्चे बीजा कोईनुं के रागादिनुं आलंबन छे ज नहीं. आखोय मोक्षमार्ग
एकला आत्माना ज आश्रये छे.
ज्ञानस्वरूप आत्मा छे, तेमां केवळज्ञान भर्युं छे; रागनी भेळसेळ वगरनुं एकलुं
शुद्ध ज्ञान ते आत्मानुं स्वरूप छे. आवा आत्माने जाणतां आनंदरसथी भरेलुं
सम्यग्ज्ञान प्रगटे छे. सम्यग्दर्शन साथे आवुं सम्यग्ज्ञान सदाय होय छे. भगवान
आत्माना श्रद्धागुणनी सम्यग्दर्शनपर्याय ज्ञान–आनंद ने शांतिना अपूर्व वेदन सहित
प्रगटे छे. जीवादि सात तत्त्वो अने तेमां परथी भिन्न पोतानो शुद्धात्मा तेने सम्यग्द्रष्टि
जाणे छे ने तेनी श्रद्धा करे छे. सामान्य अने विशेष बन्नेनी विपरीतता रहित प्रतीत
सम्यग्द्रष्टिने छे. एकलुं सामान्य माने, विशेषने न माने, अथवा एकलुं विशेष माने,
सामान्यने न माने, तो तत्त्वश्रद्धा साची थती नथी. वस्तु पोते सामान्य–विशेष स्वरूप
छे, तेने विपरीतता वगर जेम छे तेम जाणीने श्रद्धा करवी जोईए. धर्मीने श्रद्धा–ज्ञानमां
विपरीतता नथी के संशयादि दोष नथी. अमारा आत्माने अमे जाण्यो के नहीं, अमने
सम्यग्दर्शन हशे के नहीं, अमने अनुभव थयो ते साचो हशे के नहीं! आवो संशय
धर्मात्माने होतो नथी. ज्यां एवो संशय होय त्यां तो अज्ञान छे. धर्मी तो पोतानी
दशाने निःशंक जाणे छे के अपूर्व आनंदना वेदनसहित अमने सम्यग्दर्शन थयुं छे,
आत्मानी स्वानुभूति थई छे, सर्वज्ञदेवे जेवो आत्मा जाण्यो तेवो ज अमारो आत्मा
अमे अनुभवसहित जाण्यो छे; तेमां हवे कोई शंका नथी. आवा श्रद्धा–ज्ञानवडे
मोक्षमार्गनी आराधना थाय छे. आत्माना श्रद्धा–ज्ञान वगर कोई जीव भले द्रव्यलिंगी
साधु थाय पण अंदर तेने संशयादि दोष रह्या ज करे छे. ज्यां सम्यग्ज्ञान त्यां
आत्मानो संशय नहीं, अने ज्यां आत्मानो संशय त्यां सम्यग्ज्ञान नहीं. ‘ज्यां शंका
त्यां गण संताप, ज्ञान तहां शंका नहि स्थाप. ’ ज्ञानी जीवो आत्मस्वरूपमां निःशंकित
होय छे अने तेथी मरणादिना भयरहित निर्भय होय छे.