Atmadharma magazine - Ank 360
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: : आत्मधर्म : आसो र४९९ :
परमागमनी मधुरी प्रसादी
शुद्धचैतन्यनी प्रकाशक जिनवाणी परमागममां गुंथायेली
छे; अत्यंत बहुमानपूर्वक ते जिनवाणी (समयसार वगेरे)
सोनगढना भव्य परमागममंदिरमां कोतरायेली छे. तेनुं काम
झडपथी पूर्णता तरफ प्रगति करी रह्युं छे ने मंगलउत्सवना
भणकारा वागवा मांडया छे. बस, हवे तो जोशीजी कयुं शुभ
मूरत काढी आपे छे तेनी राह जोवाय छे. मात्र परमागम नहीं,
परमागमनी साथेसाथे तेना प्रणेता श्री महावीर भगवान पण
पधारशे ने पंचकल्याणकमहोत्सवपूर्वक परमागममां बिराजशे..
ते प्रभु ना कहेला परमागमोमां जे मधुरी चैतन्यप्रसादी भरी छे
ने जेनो अपूर्व स्वाद गुरुदेवे आपणने चखाड्यो छे, तेनो थोडो
थोडो नमूनो आत्मधर्ममां अपाय छे. अगाउ पण परमागमनी
मधुरी प्रसादी आपी गया छीए ने अहीं समयसार तथा
अष्टप्राभृतना प्रवचनमांथी प्रसादी आपवामां आवे छे.
आवता आखा वर्ष दरमियान ‘परमागमनी मधुरी प्रसादी’
नो आ विभाग चालु रहेशे. सौ जिज्ञासुओ आनंदथी
परमागमनो लाभ लेजो. (सं.)
सम्यग्द्रष्टिने पोताना सम्यक्त्वनो निर्णय तो स्वसंवेदन–प्रत्यक्षद्वारा थई
जाय छे; –आ निर्णय तो बधा सम्यग्द्रष्टिने जरूर होय छे; अने परना
सम्यक्त्वनो निर्णय पण अनुमानादि द्वारा थई शके छे.
सम्यक्त्व साथेनी, बीजा गुणनी निर्मळपर्याय द्वारा (शांतिनुं वेदन वगेरे
द्वारा) सम्यक्त्वने ओळखवुं ते व्यवहार छे.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूपे परिणमेली निर्ग्रंन्थमूर्ति ते जैनदर्शननो मार्ग छे.
आवो वीतरागमार्ग सांभळीने तेनी प्रतीत करवी, अने तेनाथी विरुद्ध मार्गने