Atmadharma magazine - Ank 360
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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: आसो र४९९ : आत्मधर्म : ७ :
मानवो नहि. आवा यथार्थ मार्गनी प्रतीतपूर्वक शुद्ध ज्ञाननी अनुभूति ते
सम्यकत्वनुं लक्षण छे. –आ धर्मनुं मूळ छे.
अहो, सम्यकत्व साथेनी अनुभूतिमां तो अतीन्द्रिय आनंद छे, ते अनुभूति
स्वसंवेदन–प्रत्यक्ष छे, रागथी पार छे. आवी निःशंक अनुभवदशा वगर
सम्यकत्व होतुं नथी.
भेदज्ञान थतां, अने सम्यग्दर्शन थतां, धर्मीने एवो स्वाद आव्यो के अहो!
आ अतीन्द्रिय महा आनंद अने शांतिना स्वादरूपे जेनुं वेदन थयुं ते ज
मारुं स्वरूप छे, ते ज हुं छुं; अनादिथी राग–द्वेष–अशांतिनो जे स्वाद
अनुभव्यो–ते हुं नहि, ते मारुं स्वरूप नहि. –आम परभावोथी अत्यंत
भिन्न पोताना चैतन्यस्वादनुं वेदन ते सम्यग्दर्शन छे. सम्यग्दर्शननी साथे
अनंतगुणनी निर्मळतानुं वेदन छे. स्वसंवेदनमां अभेदपणे अनंतगुणना
आनंदनो स्वाद भर्यो छे.
धर्मीनो उत्साह पोताना धर्ममां छे. ज्ञानचेतना–स्वरूप जे पोतानो स्वभाव
ते धर्म छे, तेमां ज धर्मीनो प्रेम ने उत्साह छे; रागमां के रागना फळमां
धर्मीने उत्साह नथी. मोक्षदशाने साधवानो तेने उत्साह छे, रत्नत्रयमार्गनो
तेने उत्साह छे; रागनो–पुण्यनो–संसारनो तेने उत्साह नथी.
धर्मने साधनारा बीजा धर्मात्मा प्रत्ये सम्यग्द्रष्टिने बहु प्रेम आवे छे;
पंचपरमेष्ठीप्रत्ये प्रमोद आवे छे. संसारना प्रेम करतां धर्मनो प्रेम अने
उत्साह धर्मीने वधु होय छे. अंतरमां तो ते शुभरागथी पण पार
चैतन्यतत्त्वनी परमप्रीति छे. चैतन्यस्वरूपना श्रद्धा–ज्ञान–आचरणरूप जे
ज्ञानचेतना छे ते ज परमार्थधर्म छे, ते ज जैनशासन छे; ने एवा
रत्नत्रयवंत निर्ग्रंथ मुनिराजनुं दर्शन, ते दर्शननो मार्ग छे, ते जैनमार्ग छे.
स्वभावनी प्राप्तिनो जेने अनुराग थयो तेने संसार तरफनी प्रीति हटी
गई, संसारभावथी ते विरक्त थयो, अने चैतन्यना वीतरागभावरूप
मोक्षमार्गप्रत्ये ते उत्साहित थयो. –आवा संवेग अने निर्वेद धर्मात्माने होय
छे. ज्ञानचेतनारूप आत्मधर्मनो जेने प्रेम लाग्यो, तेनो चैतन्यरस जेणे
चाख्यो, ते हवे बीजानो प्रेम नहि करे चैतन्यनो अमृतरस चाख्खा पछी
विभावना झेरने कोण चाहे?