छे; पण ते ज वखते रागथी भिन्न चिदानंदस्वभावने चेतनारी जे
ज्ञानचेतना छे, ते ज्ञानचेतनाना बळे धर्मी एम अनुभवे छे के मारी
ज्ञानचेतनामां रागादिनुं वेदन नथी, ज्ञानचेतना तो आनंदने ज वेदनारी
छे. मारी ज्ञानचेतनाना परिणमनमां कोई कर्मनुं कर्तापणुं नथी, के कोई
कर्मफळनुं भोक्तापणुं नथी. –आवी ज्ञानचेतना धर्मात्माने होय छे;
आनंदनी वर्षा तेना आत्मामां निरंतर वरसे छे.
आनंदरसनी धारा वरसे ते अपूर्व छे, तेना वडे अनादि काळना
मिथ्यात्वनो दाह मटी जाय छे ने धर्मना अंकुरा फूटे छे, मोक्षना पाक पाके
छे. भाई, एकवार स्वसन्मुख थईने तारा निरालंबी चैतन्य–गगनमांथी
आनंदनी वर्षा वरसाव.
मार्ग बतावनार आवो सुंदर वीतरागमार्ग मळ्यो, साचा देवगुरुनो
उपदेश मळ्यो, तो हवे चैतन्यतत्त्वना अगाध महिमाने लक्षगत करीने तेमां
उपयोग वाळ. स्वसन्मुख थतां जे अपूर्व सम्यग्दर्शन थयुं त्यां धर्मीने
पूर्णता साधवानो परम उल्लास थाय छे; अंदर चैतन्यनी
अतीन्द्रियशांतिरूप प्रशम छे, ने बाह्यचिह्न तरीके पण शांतभावरूप प्रशम
होय छे. अहा, मारुं चैतन्यतत्त्व प्रशांत, अनंत सुखमय छे, –एनुं ज्यां
स्वसंवेदन थई गयुं त्यां कषायो पण एकदम प्रशांत थई गया.
आत्मानो स्वाद ल्ये छे; जेणे पोताना अंतरमां चैतन्यनी अपार रिद्धि–
सिद्धि देखी छे; आवा चैतन्यना भान वगरना जीवो दुःखीया छे–भले पछी
ते पुण्य करीने स्वर्गमां गया होय. जेणे चैतन्यना निधान पोतामां देख्या
ने महा आनंदनो स्वाद चाख्यो तेने जगतमां क्यांय मरणादिनो भय नथी
अनंतगुणथी शोभतुं चैतन्यजीवन तेणे प्राप्त करी लीधुं छे.