: आसो र४९९ : आत्मधर्म : ९ :
‘ज्ञायकभाव’ आत्मा छे, ते ज्ञायकभाव राग–द्वेषरूप नथी; शुभ–
अशुभभावोरूप जे कषायचक्र छे ते–रूपे ज्ञायकभाव कदी थई गयो नथी;
पर्यायने अंतर्मुख करीने आवा ज्ञायकभावपणे पोते पोताना आत्माने
उपासवो–ते सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र छे, ते ज मोक्षमार्ग छे.
स्वसंवेदनथी आत्मा पोते पोताने जाणे छे, त्यारे आत्मा पोते ज्ञायकपणे
ज्ञाता छे, ने पोते ज स्वज्ञेय छे, –आम ज्ञाता–ज्ञेयनुं अनन्यपणुं छे–
अभेदपणुं छे; त्यारे ‘ज्ञायक’ पोते स्वरूप–प्रकाशनपणे पोताने प्रकाशे छे–
जाणे छे– अनुभवे छे. पर्याय अंतर्मुख थईने अभेद थई त्यां ज्ञायकभावनी
उपासना थई; तेने ज ‘शुद्ध’ कहेवाय छे. –आत्मानी आवी उपासना ते
मोक्षमार्ग छे, तेमां राग–द्वेष के पुण्य–पाप नथी; तेथी कह्युं के ज्ञायकभाव छे
ते शुभाशुभभावरूपे परिणमतो नथी.
अरे जीव! तुं तारा आनंदमय ज्ञायकतत्त्वने भूलीने अनादिथी
शुभाशुभभावना कषायचक्रमां दुःखी थयो. ते कषायचक्र मटवुं जोके कठण
छे–पण कांई अशक््य नथी. ज्यां अंतर्मुख थईने पोते पोताने
ज्ञायकस्वभावपणे अनुभवमां लीधो त्यां पर्याय ज्ञायकस्वभावमां अभेद
थई गई ने पुण्य–पापनुं कषायचक्र तेमांथी छूटी गयुं. आनुं नाम
शुद्धात्मानी उपासना छे, आ सम्यग्दर्शन छे. आत्माना निजवैभवनी
प्राप्तिनी आ रीत छे.
अहा, सम्यग्दर्शन चीज अलौकिक गंभीर छे; सम्यग्दर्शन थतां सर्वज्ञदेवे
कहेला आत्मानो अने बधा तत्त्वोनो साचो निर्णय थई जाय छे. अहो,
जिनधर्मनी गंभीरता, अज्ञानीओ एनो पत्तो न पामी शके. गुरुगमे
जिनप्रवचननुं साचुं रहस्य समजाय छे के अहो, जिनप्रवचन तो आत्मानुं
स्वरूप जिन समान बतावे छे, ‘जिनपद निजपद एकता, भेदभाव नहि
कांई, आवा आत्माने लक्षगत करीने स्वसन्मुखपणे तेनो अनुभव करवो
ते जैनशासननुं हार्द छे. –एमां आत्माना महान आनंदनुं वेदन छे. एवा
सम्यग्द्रष्टिने बीजा धर्मात्माओ प्रत्ये अत्यंत प्रेम–वात्सल्य होय छे. बीजा
धर्मात्मा आगळ वधी जाय ते देखीने ईर्षा थती नथी पण प्रसन्नता थाय
छे, बहुमान आवे छे; सर्वप्रकारे तेने सहाय करे छे. ते वीतरागी देव–गुरु–
धर्मनो दास थईने वर्ते छे, तेमना प्रत्ये तेने अत्यंत भक्ति ने आदरभाव
आवे छे. आवो धर्मप्रेम धर्मीने होय छे. रत्यत्रयधर्मनी परम प्रीतिथी,
जगतमां तेनो प्रभाव वधे तेम करे छे, ने