Atmadharma magazine - Ank 361
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration). Entry point of HTML version.

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आत्मधर्म
वर्ष ३१
सळंग अंक ३६१
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001 Apr 2005 First electronic version.

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३६१
अहा, अतीन्द्रियसुखथी भरेला अगाध
चैतन्यनिधान जेमनी पासे खुल्ला हता एवा वीरनाथ
भगवानना आपणे वारस छीए...प्रभुजीए ते अगाध
चैतन्यनिधान आपणने पण सोंप्या छे; प्रभुना वंशमां
थयेला वीतरागी संतोए चैतन्यनिधान खोलवानी चावी
आपणने आपी छे. अहा, श्रीगुरुप्रतापे आ काळे आवा
अगाध चैतन्यनिधाननी प्राप्ति प्रभु वीरनाथना मार्गमां
आपणने थाय छे.
‘बाप एवा बेटा’ होय छे तेम आपणे पण परम
धर्मपिता वीरप्रभुनो वारसो लेवा माटे वीर थईने आत्माने
साधवानो छे. आत्मसाधक वीर स्वानुभूतिवडे वीरनाथनो
वीतरागी वारसो ल्ये छे. अहा, धनभाग्य छे के आपणे
वीरप्रभुना वारस छीए.
जय महावीर

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अढीहजारवर्ष पहेलां सिद्धालयमां सीधावेला महावीरनाथनो संदेश छे के शरीर
अने राग वगरनुं चैतन्यजीवन ते ज जीवनुं साचुं आनंदमय जीवन छे. रागनो
अनुभव ते जीवनुं जीवन नथी, रागनो अनुभव ते आत्मा नथी, ए तो अनात्मभाव
छे, भावमरण छे, चैतन्यनुं आनंदमय जीवन तेमां हणाय छे. भेदज्ञानवडे रागथी
भिन्न, इंद्रियोथी भिन्न, अतीन्द्रिय चैतन्यवस्तुनी अनुभूतिरूप जीवन ते ज आत्मानुं
साचुं जीवन छे, ते साचो आत्मा छे; तेमां जन्म–मरणनां दुःखनो अभाव छे; ते
चैतन्यजीवन आनंदथी भरेलुं छे. भाई! जैन थईने तुं एकवार आवुं वीतरागी जीवन
जीवतां शीख. तने महा आनंद थशे. वीतरागी संतो अने अरिहंतो–सिद्धो आवुं
वीतराग चैतन्यजीवन जीवे छे. ते ज साचुं जीवन छे.
चेतन–जीवन साचुं...चेतन जीवन...जीवी जाणे छे संतो साचुं जीवन...
सुतां रे जागतां ऊठतां बेसतां...हैडे रहे छे एनुं खूब रटन...
अहो, अतीन्द्रिय चैतन्यना अनुभवथी संतो अद्भुत जीवन जीवे छे, ते ज साचुं
जीवन छे. रागथी भिन्न चैतन्यजीवन धर्मीना अंतरमांथी एकक्षण पण खसतुं नथी.
जीव तो ज्ञान–आनंदमय सत्ता छे, ते पोतानी चैतन्यसत्ताथी जीवन जीवनारो
छे, तेनुं जीवन कांई इंद्रिय के मनना आधारे नथी. आवा आत्माने ओळखीने
चैतन्यना आश्रये जे ज्ञान–आनंदमय अतीन्द्रियभाव प्रगटयो ते ज जीवनुं साचुं जीवन
छे. आवुं जीवन धर्मी जीवे छे ने जगतने पण तेवा ज जीवननो उपदेश आपे छे.–आवुं
जीवन जीववुं ते महावीरनो संदेश छे. जे जीवनमां आत्मानी शांति आवे ने जेना फळमां
मोक्ष थाय, ते ज साचुं जीवन छे. अन्न–वस्त्र के शरीरने आधीन जीववुं ए कांई साचुं
जीवन नथी. सिद्धभगवंतो शरीर वगर ज साचुं सुखी जीवन जीवी रह्या छे.
आवुं अतीन्द्रिय आनंदमय चैतन्यजीवन अमे जीवीए छीए, अने तमे पण
एवुं आनंदमय चैतन्यजीवन जीवो–एम सिद्धप्रभुना समाचार छे. –जय महावीर

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वार्षिक वीर सं. र५००
लवाजम कारतक
चार रूपिया Nov. 1973
आसो वद अमासे भगवान श्री वीरनाथप्रभुना मोक्षगमननुं
अढीहजारमुं (२५०० मुं) वर्ष बेठुं. अभूतपूर्व सिद्धदशाने पामीने प्रभु मुक्त
थया. अनंतसुखनी प्राप्तिरूप सिद्धि, अने दुःखथी–संसारथी सर्वथा
छूटकारारूप मुक्ति, आवी दशा प्रभु आ दिवसे पाम्या; तेनुं स्मरण करवानो
आ दिवस छे. गौतम स्वामी आ दिवसे ज केवळज्ञान पामीने अरिहंत थया;
अने सुधर्मस्वामी आ दिवसे ज श्रुतकेवळी थया. देहातीत थईने
सिद्धभगवान एम प्रसिद्ध करी रह्या छे के अहो जीवो! संयोग अने शरीर
वगर ज देहातीत चैतन्यभावथी आत्मा पोते ज स्वयं सुखी छे...अतीन्द्रिय
आनंदरूप आत्मा पोते छे.–आवा अतीन्द्रिय ज्ञान–आनंद स्वरूप आत्माने
ओळखतां, पोते अतीन्द्रिय ज्ञानरूप थईने आनंदनो स्वाद आवे छे; –आ
वीरनाथनो मार्ग छे. आवो मार्ग जयवंत छे.
मोक्षना अढी हजारमा वर्षना मंगल–प्रारंभे दीवाळीनी बोणी तरीके
गुरुदेवे ए सिद्धपदना परम महिमापूर्वक कह्युं के अहो! आजे महावीरप्रभुना
मोक्षगमननुं २५०० मुं वर्ष बेठुं. अत्यारे आवो चोकखो वीरमार्ग पामीने,
सम्यग्दर्शन वडे (२+५) (सात) प्रकृतिना क्षयनो प्रारंभ करी दीधो ते
मंगळ छे. सात प्रकृति (२+५) तेना शून्य (००) नो प्रारंभ करवो, एटले
के सम्यक्त्वनी एवी अप्रतिहत आराधना करवी–के जेमां वच्चे भंग पड्या
वगर क्षायिकसम्यक्त्व थशे,–ते भगवानना मोक्षकल्याणकनी साची उजवणी
छे; ते अपूर्व आनंदमय मंगळ छे. साधकजीव सम्यक्त्वना अखंड दीवडा
प्रगटावीने दीवाळीनो महोत्सव करे छे. आवी आराधना शरू थई तेना
फळमां मोक्ष थशे.

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: : आत्मधर्म : कारतक : २५००
‘अहो, समकितरूपी सोनानो सूरज ऊग्यो!’
बेसता वर्षना मंगलप्रभाते चैतन्यनी अत्यंत
प्रसन्नतापूर्वक वहेली सवारमां गुरुदेवे नव देवताने याद
करीने, आनंदझरती जे उत्तम बोणी आपी ते ‘आत्मधर्म’
द्वारा आपने पहोंचाडतां आनंद थाय छे. –सं.

बेसता वर्षना सुप्रभातमां गुरुदेवे मंगल तरीके सौ प्रथम नव देवोने याद कर्यां
–अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनालय, जिनचैत्य, जिनवाणी अने
जिनधर्म–ए नव देव छे. ए नवे वीतरागस्वरूप छे, वीतरागताना प्रतिपादक छे. अने
वीतरागभाव वडे ज तेमनी साची ओळखाण थाय छे.
आत्मानो स्वभाव अतीन्द्रियज्ञान छे; अतीन्द्रियज्ञान वडे जाणवानो तेनो
स्वभाव छे, तेमज ते पोते अतीन्द्रियज्ञानथी ज जणाय छे; आ रीते अतीन्द्रिय
(स्वसंवेदन–प्रत्यक्ष) ज्ञानपूर्वक ज अरिहंत–सिद्ध–जिनवाणी वगेरेनुं साचुं ज्ञान थाय
छे.–ए वात प्रवचनसारनी १७२ गाथामां घणी सरस कही छे; गुरुदेव तेनो वारंवार
उल्लेख करे छे ने तेनुं रहस्य मुमुक्षुजीवे खास समजवा योग्य छे.
एवी ज रीते समयसारनी ४७ शक्तिमांथी १२ मी प्रकाशशक्तिनो उल्लेख
करीने वारंवार कहे छे के स्वसंवेदन–प्रत्यक्ष थवानो आत्मानो स्वभाव छे. साधकना
मति–श्रुतज्ञानमां पण स्वसंवेदन–प्रत्यक्षथी आत्माने जाणवानी ताकात छे. अहो,
आवुं स्वसंवेदन थयुं ते पण अशरीरी छे, अतीन्द्रिय–आनंदसहित छे, ने ते
वीरप्रभुनो मार्ग छे.
अहो, वीरप्रभुना मोक्षनुं आ अढीहजारमुं वर्ष छे; भगवाननो मार्ग तो
वीतरागभावमां छे. प्रभुनो वीतरागमार्ग जयवंत छे. आवा मार्गने ओळखीने
सम्यग्दर्शननी एवी अप्रतिहत आराधना करवी के, अत्यारे क्षायोपशमिक होवा छतां
वच्चे भंग पड्या वगर क्षायिकसम्यक्त्व थाय. आ रीते क्षायिक साथे जोडणीवाळुं
सम्यक्त्व ते पण क्षायिक जेवुं ज छे;–‘ए वात भगवाननी वाणीमां आवेली छे.’
(–पू. बेनश्रीना जातिस्मरणमां). आवी आराधना ते सुप्रभात छे.

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: कारतक : २५०० आत्मधर्म : ३ :
मिथ्यात्वना अंधारानो नाश करीने चैतन्यनो जे सम्यक्त्व–प्रकाश खील्यो ते अपूर्व
मंगल सुप्रभात छे. ‘अहो! समकितरूपी सोनानो सूरज ऊग्यो! ’
अहो, अमृतस्वरूप सच्चिदानंद विज्ञानघन आत्मा छे; ते आनंदनो मोटो
महेरामण छे. ‘अमृत’ एटले एक तो मरे नहि, कदी नाश न थाय एवो आत्मा छे,
अने बीजुं आनंदना मीठा स्वादरूप अमृत, तेनाथी आत्मा भरेलो छे. आवा परम
अमृतस्वरूप आत्मा छे. ने शरीर तो मृतक–जड कलेवर छे, तेनाथी विज्ञानघन आत्मा
जुदो छे. आवा आत्माने द्रष्टिमां लेतां झरमर–झरमर अमृतधारा वरसे छे.–आ
सुप्रभात छे. सम्यग्दर्शन ते सुप्रभात छे, अने केवळज्ञान ते सर्वोत्कृष्ट सुप्रभात छे. आ
सुप्रभात जगतने मंगळरूप छे.
सम्यग्दर्शन थयुं त्यां आत्मा साक्षात् थयो; त्यां धर्मी जाणे छे के मारी
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र वगेरे समस्त पर्यायोमां मारो आत्मा ज तन्मय छे;
सम्यक्त्वादि पर्यायोमां ध्येयपणे आत्मा ज बिराजे छे, आत्मा ज तन्मय थईने ते
पर्यायरूपे परिणम्यो छे. अनंतगुणनो चैतन्यपिंड जे प्रतीतमां आव्यो ते
सम्यग्दर्शनपर्याय पोते चैतन्यपिंड छे. शुद्धपर्यायने पण चैतन्यपिंड कह्यो छे.
आ रीते मंगल प्रभातमां नव देवने याद कर्या, अने स्वसंवेदनप्रत्यक्ष आनंद–
अमृतथी भरेला भगवान चैतन्यदेवने याद कर्या, ते मंगळ छे; तेनी रुचि–ज्ञान–
अनुभूति करवा ते चैतन्यनुं अपूर्व सुप्रभात छे.
[हवे आप वांचशो–बेसता वर्षनी बोणीरूप सुप्रभात–मंगलनुं प्रवचन]
झरमर झरमर आनंदझरतुं सुप्रभात
बेसता वर्षना मंगलप्रभाते चैतन्यनी अत्यंत प्रसन्नतापूर्वक वहेली सवारमां
गुरुदेवे नव देवताने याद करीने जे उत्तम बोणी मुमुक्षुओने आपी, ते हमणां आपे
वांची...वांचीने प्रसन्नता थई. त्यारपछी प्रवचनमां
समयसारनो सुप्रभात–कळश (२६८ मो)
वांचतां चैतन्यना आनंदनी मीठी झरमर
वरसावतां गुरुदेवे कह्युं के–
आत्मा ज्ञानानंदस्वभाव छे तेना स्वसंवेदनथी ज्यां सम्यग्दर्शन थयुं त्यां

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: : आत्मधर्म : कारतक : २५००
मिथ्यात्वरात्रिनो नाश करीने मंगल आनंदप्रभात खील्युं. अने पछी केवळज्ञान थतां
तो आनंदनुं महा सुप्रभात खील्युं; चैतन्यतत्त्व पर्यायमां चकचकाट करतुं खीली नीकळ्‌युं.
जेम फूलझरमांथी तेजना तणखा झरमर झरे छे तेम सम्यक्त्वनी चीनगारी वडे
चैतन्यपिंडमांथी आनंदनो रस झरझर झरे छे. लौकिकमां दीवाळीना दिवसे दारूना
फटाकडा फोडे छे तेना अवाजथी तो अनेक जीवो मरी जाय छे (ने तेमां तो पाप लागे
छे), पण अहीं आत्मानी दीवाळीमां (पर्यायने अंतरमां वाळीने) अंतर्मुख थईने
चैतन्यचीनगारी मुकतां जे सम्यग्दर्शन अने केवळज्ञाननो फटाकडो फूटयो ते तो
मिथ्यात्वादिने फोडीने अंदरथी चैतन्यने जीवतो–जागतो करीने आनंद पमाडे छे. आ ज
साची अहिंसक दीवाळी छे. आत्मामां आवी वीतरागदशारूप आनंदमय वर्ष बेठुं तेमां
चैतन्यनो सोनेरी–सूर्य खील्यो ने सुप्रभात प्रगट्युं, तेनो हवे कदी अस्त
नहि थाय.
अहो, सम्यक्त्वना सोनेरी सूरजथी झगझगतो आत्मा शोभे छे, ते ज साचुं
सुप्रभात छे. एमां ज्ञानचक्षु ऊघड्या ते फरीने कदी बीडाशे नहि. आ तो वीतरागी
जिनवाणीना अमोघ बाण छे, ए बाण जेने लाग्या तेनो मोह छेदाई जाय ने अंदरथी
आनंदमय भगवान प्रगटे.
सद्गुरुए मार्या शब्दनां बाण रे...
अंदरथी खील्यो चैतन्य भगवान.
अहो, जैनसंतोनी वाणी वीतरागता–पोषक छे, ते रागनी एकताने तोडीने,
चैतन्यना पाताळमां पेसी जाय छे ने अंदरथी आनंदनी गंगा ऊछाळीने बहार
पर्यायमां आनंदनी रेलमछेल करी दे छे. वाह रे वाह! वीतरागी संतोनी वाणी! आवी
वीतरागी–जिनवाणीने पण नव देवोमां गणी छे; ते पूज्य छे.
वीतरागवाणी चैतन्यपिंड आत्माने प्रकाशे छे. चैतन्यनुं ज्ञान एकलुं नथी होतुं,
तेनी साथे अतीन्द्रियआनंद वगेरे अनंत भावो होय छे. आवुं आनंदझरतुं सुप्रभात
धर्मीना अंतरमां ऊग्युं ते स्याद्वादथी लसलसाट करे छे, अने चैतन्यना अपार
महिमाथी भरेलुं छे. आत्मानो आनंदरस एवो अद्भुत छे के एकवार ते आनंदरस
पीधो त्यां मोक्षनुं वर्ष बेठुं, मोक्षनुं प्रभात तेने खील्युं; ते अल्पकाळे मोक्ष पामीने
सादि–अनंत सिद्धपणे बिराजशे.
साधक कहे छे के अहो, चैतन्यनो आवो अद्भुत स्वभाव मारामां उदयरूप

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: कारतक : २५०० आत्मधर्म : ५ :
थयो छे, तो पछी हवे बीजा भावोथी (बंध–मोक्षना विकल्पोथी) मारे शुं काम छे?
आनंदमय आ चैतन्यप्रकाश मने सदाय स्फुरायमान रहो.
आगम एटले अक्षरज्ञान, ते आत्माना अक्षर–अक्षय आनंदस्वरूपने देखाडे छे.
एवा अक्षय आत्मानुं ज्ञान ते भावआगम छे. भावआगम एटले अतीन्द्रिय आत्मानुं
ज्ञान; तेमां आनंद झरे छे. आनंद वगरनुं ज्ञान कदी होय नहि. आत्मानुं जे ज्ञान थयुं
ते ज्ञानप्रभात आनंदथी भरेलुं छे. आवुं आनंदमय सुप्रभात जगतमां मंगळरूप छे.
स्वभाव–प्रभानो पुंज आत्मा चैतन्यकिरणोथी शोभे छे. मति–श्रुतज्ञानादि
अनेक निर्मळपर्यायो आत्मानी एकताने खंडित करती नथी पण ते तो आत्माना
एकत्वस्वभावने अभिनंदे छे. अनित्यपर्यायो नित्यस्वभावने अभिनंदे छे,–तेनी
सन्मुख थईने तेमां तन्मय थाय छे. त्यां चैतन्यसूर्य आत्मा सदाय उदयमान छे. अनंत
ज्ञानादि चतुष्टयथी भरेला स्वभावमां द्रष्टि करतां सम्यक्त्व–सुप्रभात ऊग्युं ते मंगळ
छे, अने केवळज्ञान ते सर्वोत्कृष्ट मंगल सुप्रभात छे.
बेसता वर्षनी मंगल
बोणीरूपे गुरुदेवे सुहस्ते मुमुक्षुओने
‘समाधितंत्र’ आप्युं...अहो! जाणे
परम वात्सल्यथी गुरुदेवे सम्यक्
बोधिसहित समाधिना ज आशीर्वाद
आप्या.
केवळज्ञान–सुप्रभात जगतमां सत्पुरुषोने वंद्य छे अने जगतने मंगळरूप छे.
अंतर्मुख थईने शुद्ध चैतन्यतत्त्वनी भावनाथी मोहने निर्मूळ करीने समस्त राग–द्वेषनो
क्षय करतां सर्वोत्कृष्ट ज्ञानज्योति प्रगट थाय छे, तेनो अत्यंत महिमा करतां श्री
पद्मप्रभस्वामी नियमसारमां (कळश २०मां) कहे छे के अहो, भेदज्ञानरूपी वृक्षनुं आ
सत्फळ वंद्य छे, जगतने मंगळरूप छे.
–आवुं सुप्रभात केम प्रगटे?–के ज्ञान ज उपाय छे ने ज्ञान ज उपेय छे,
–मोक्षमार्ग अने मोक्ष बंने ज्ञानमय ज छे, तेमां बीजो कोई राग–विकल्प नथी. आवा
ज्ञानमात्र भावने ओळखीने तेनो जे आश्रय करे छे तेने, अनादिसंसारथी अलब्ध
एवी चैतन्यनी साधकभूमिका प्राप्त थाय छे, एटले के अनादिथी कदी नहि

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: : आत्मधर्म : कारतक : २५००
खीलेलुं एवुं सम्यक्त्वादि सुप्रभात तेने खीले छे, ने पछी तेना फळमां साध्य एवा
केवळज्ञानरूप आनंदप्रभात खीले छे. आ प्रभात अपूर्व छे; ‘सोना समो रे सूरज
ऊग्यो’ एम लोको मंगळप्रसंगे कहे छे, अहीं तो आत्मामां आनंदथी झगमगतो
सम्यक्त्वसूर्य ऊग्यो ते साचुं सुप्रभात छे. सूरज तो सवारे ऊगीने सांजे आथमी जाय
छे, पण आ चैतन्यसूर्य ऊग्यो ते कदी अस्त थाय नहि. अखंड चैतन्यतत्त्वमां जे
निधान भर्या छे तेमांथी प्रगटेली अनंत ज्ञान–दर्शन–आनंद–वीर्यरूप अवस्था कदी
अस्त थती नथी.
जेम हजार पांखडीनुं कमळ खीले, के झरमर मेघ वरसे, तेम चैतन्यना
आनंदसरोवरमां द्रष्टि करीने एकाग्र थतां अनंत गुणनी पांखडीथी चैतन्यकमळ खीली
उठ्युं ने झरमर–झरमर आनंद वरसवा लाग्यो. अहा, आवा आत्मानो प्रेम करवो ने
पर्यायमां तेने प्रगट करवो ते संतोनी अपूर्व बोणी (प्रसादी) छे.
सम्यग्दर्शन पण चैतन्यपिंड छे, केवळज्ञान पण चैतन्यपिंड छे; ते बंने सुप्रभात
छे. सुप्रभात थतां आत्माना अनंतगुणो आनंदसहित खीली उठ्या, तेमां अत्यंत मधुर
चैतन्यस्वाद छे.
बापु! तुं अतीन्द्रियआनंदथी भरेलो भगवान छो. तुं खाली नथी, अनंत
गुणनिधानथी भरेलो छो. पूर्वे आत्माने भूलीने दयादि शुभराग पण कर्यो पण तेनाथी
कांई आनंदनुं सुप्रभात तारा आत्मामां खील्युं नहि, तारा अज्ञानअंधारा मट्या नहि,
ने तारा ज्ञानपलक ऊघड्या नहि. रागथी पार चिदानंदपिंड आत्माने अंदरना
अतीन्द्रिय स्वसंवेदनज्ञानथी प्रतीतमां लेतां आत्मामां ज्ञानदीवडा प्रगट्या, तेना घरे
दीवाळी आवी; तेने अपूर्व सुप्रभात ऊग्युं, अनादिना अज्ञानअंधारा टळ्‌या ने ज्ञान–
दर्शनरूपी आंखना पलक ऊघड्या; सुखे–सुखे ते हवे सिद्धपदने साधशे. आत्मामां
अपूर्व वर्ष बेठुं ते हवे सदा सुखमय रहेशे. अहो, आवो मार्ग बतावीने संतोए मोटो
उपकार कर्यो छे.
अंतरमां पर्यायनो दि’ वाळीने जेणे चैतन्यप्रभुना भेटा कर्या तेने ज्ञाननी
धारामां आनंदनां फूल झरे छे. अहा, पहेलांं श्रद्धा तो करो....रुचि तो करो....के मारो
आत्मा ज्ञान–आनंदमय छे, आवो आत्मा ज मारे जोईए छीए, आत्मा सिवाय बीजुं
कांई मारे जोईतुं नथी.–आवी अंतर्मुख दशा करतां पर्याय अंतरमां वळी जाय छे एटले
सम्यक्त्वादि झगझगती चैतन्यदशारूपे आत्मा खीली जाय छे, ते मंगल सुप्रभात छे.
चैतन्यना आनंदना अनंत अंकुरा तेने प्रगट्या; आनंदनां अनंत

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: कारतक : २५०० आत्मधर्म : ७ :
किरणो सहित झगझगाट करतो चैतन्यसूर्य ऊग्यो.....अनंता निधान पोतामां प्रगट्या
शक्तिमां आनंदनिधान भर्या हता ते पर्यायमां झरझर झरवा लाग्या...ते आत्मा धर्मी
थयो, मोक्षनो साधक थयो.
आहाहा! आ दशानी शी वात! ते दशा खीलतां–खीलतां ज्यां केवळज्ञाननुं पूर्ण
प्रभात खील्युं तेनी शी वात! भाई, आ तारा पोतानां गाणां गवाय छे; जे कहेवाय छे
ते बधुं तारामां भर्युं छे. तेमां अंतर्मुख थतां पर्यायमां ते खीली जाय छे.–ए आनंदमय
सुप्रभात छे, ते शांतिनुं अपूर्व वर्ष बेठुं.–आ बेसतावर्षना अपूर्व लाडवा पीरसाय छे,
तेमां आनंदरसनो स्वाद छे.
जेम सोना–रूपाना सिक्का थाय छे तेम धर्मी जीवे अंतरनी शक्तिमांथी जे
शुद्धपर्याय प्रगट करी तेमां अतीन्द्रिय आनंदनी छाप छे; सम्यक्श्रद्धानो सोनेरी सिक्के
तेना आत्मामां लागी गयो, मोक्षनो सिक्को लागी गयो. हुं तो अनंत आनंदनो समुद्र
छुं–एम श्रद्धा करीने ज्यां आनंदमय स्वसंवेदननो सिक्को लगाव्यो ते जीव हवे
अल्पकाळमां अनंतगुणमय केवळज्ञान–प्रभातथी खीली जशे, ने मोक्ष पामशे.
साधकने एवी शुद्धदशा थई के मिथ्यात्व–अंधकारनो नाश थयो, आनंदमय
ज्ञानप्रकाश खील्यो, तेनी धारा अतिशयपणे मोक्ष तरफ चाली. धर्मीनी ज्ञानधारा
रागादिथी जुदी छे–अधिक छे–माटे ते ज्ञानधाराने अतिशयपणुं छे. तेनुं सम्यग्दर्शन
वीतराग छे, तेनुं सम्यग्ज्ञान पण वीतराग छे. आम वीतरागरसनी झरझर धारा तेने
निरंतर वर्ते छे. आवुं सम्यग्दर्शन थयुं त्यां सोनानो सूरज ऊग्यो; जेम सोनामां काट न
होय तेम सम्यग्दर्शन थतां जे ज्ञानधारा प्रगटी ते शुद्ध छे, तेमां रागादि विकाररूप काट
नथी.–राग वगरना चैतन्यप्रकाशथी ते अतिशय शोभे छे.
* आवुं आनंदमय चैतन्यप्रभात जयवंत वर्ते छे. *
सम्यग्दर्शन थतां आत्मामां शुद्धपरिणति प्रगटी ते ज सुप्रभात छे. ते
परिणतिमां आनंद पण भेगो ज छे. संतोनी वाणी आत्माना आवा स्वरूपने बतावे
छे. केवळीप्रभुनी वाणी हो, के गणधरनी, मुनिनी के ज्ञानी–सम्यग्द्रष्टि गृहस्थनी वाणी
हो; तेमां एवुं स्वरूप आव्युं छे के जे स्वरूप समजतां आनंददशासहित आत्मा खीली
जाय छे. रागथी लाभ थाय–एवी वाणी संतोनी नथी. जे समजवाथी रागनो नाश थाय
ने वीतरागता खीले एवी वाणी संतोनी छे. वीतरागी संतोनी वाणी वीतरागता–
पोषक होय, आनंदनी दातार होय. ज्यां वाणीमां कहेलुं चैतन्यतत्त्व काने पड्युं के अंदर
फडाक सम्यग्ज्ञान थईने आनंदमय प्रभात खीली जाय छे. आवी आनंदपर्यायमां
सुस्थित आत्मा शोभे छे. ते अपूर्व मंगलमय सुप्रभात छे.

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: : आत्मधर्म : कारतक : २५००
आनंदमय अपूर्व भेदविज्ञान
ज्ञानपर्यायनुं आत्माथी अनन्यपणुं ने परथी अत्यंत भिन्नपणुं

जैनशासनमां बतावेली जीव–अजीवनी भिन्नताना
भेदविज्ञाननुं अपरंपार माहात्म्य छे, अने ते अपूर्व छे.
अनंतकाळथी संसारमां परिभ्रमण करता जीवे परलक्षी
शास्त्रज्ञान, के शुभरागरूप व्रत–तप–त्याग वगेरे बधुं कर्युं छे, पण
शुद्धात्माना भावश्रुतज्ञानरूप भेदविज्ञान तेणे एक सेकंड पण पूर्वे
कर्युं नथी. वीतरागी संतो कहे छे के हे जीव! एकवार तुं स्व–परनुं
साचुं भेदज्ञान कर तो अल्पकाळमां तारो मोक्ष थया वगर रहे
नहि. एक सेकंडनुं भेदज्ञान अनंतकाळना जन्ममरणथी छोडावीने
मोक्षसुखनो अपूर्व स्वाद चखाडे छे. सर्वे परद्रव्यो अने
परभावोथी आत्मानुं जुदापणुं अने पोताना ज्ञानस्वभावथी
एकपणुं समजीने, अपूर्व भेदज्ञानवडे चैतन्यस्वादनुं वेदन करवुं ते
श्री जिनागमनो सार छे. भेदज्ञान वगरनुं बधुं असार छे,
भेदज्ञान ज सारभूत छे. मुमुक्षु जीवोए पळेपळे भेदज्ञान
भाववायोग्य छे.
[समयसार गा. ३९० थी ४०४ ना प्रवचनमांथी]
आत्मा पोते ज्ञान छे; आत्मामां परिपूर्ण ज्ञान छे ने शब्दादि अचेतनमां ज्ञान
जराय नथी; एटले ज्ञान आत्माथी ज थाय छे ने परथी थतुं नथी–आवो अनेकांत–
स्वभाव वर्णवीने श्री आचार्यदेवे आ गाथाओमां ज्ञानस्वभावनी स्वतंत्रतानो ढंढेरो
जाहेर कर्यो छे. शास्त्रो वगेरे परद्रव्यो ज्ञान नथी माटे तेओ ज्ञाननुं जरा पण कारण
नथी; आत्मा पोते ज्ञान छे तेथी आत्मा ज ज्ञाननुं कारण छे; ज्ञानादि पर्यायो साथे
आत्मा तन्मय छे.

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: कारतक : २५०० आत्मधर्म : ९ :
भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवना मूळ सुत्रोमां त्रण ठेकाणे खास वजन छे–
(१)
‘सत्यं ण याणए किचि’ एटले के शास्त्र वगेरे कांई जाणतां नथी.
–एटले तेनामां पूरेपूरुं अचेतनपणुं बताव्युं.
(२) ‘अण्णं णाणं’ एटले के ते शास्त्र वगेरे अचेतनथी ज्ञान जुदुं छे. शास्त्रो
वगेरे कांई जाणतां नथी, तेनी सामे ‘आत्मामां ज्ञानपूरेपूरुं छे.’ एम आव्युं. आत्मामां
ज्ञान पूरेपूरुं छे अने श्रुत वगेरेमां ज्ञान जरा पण नथी–आम अस्ति–नास्तिथी पूरो
ज्ञानस्वभाव बताव्यो छे.
(३) ‘जिणा विंति’ एटले के जिनदेवो एम जाणे छे अथवा जिनदेवो एम कहे
छे. गाथाए–गाथाए ‘जिणा विंति’ एम कहीने सर्वज्ञ भगवाननी साक्षी आपी छे.
अहो, कोई अपूर्व योगे आ समयसार शास्त्र रचायुं छे. गाथाए–गाथाए
अचिंत्य भावो भर्या छे; एकेक गाथाए परिपूर्ण आत्मस्वभाव बतावी दे छे.
आत्मा पोते ज्ञान छे ने श्रुतना शब्दो वगेरे अचेतन छे; आत्मामां ज्ञान
परिपूर्ण छे ने श्रुत वगेरेमां किंचित् ज्ञान नथी. श्रुतमां ज्ञान नथी अने ज्ञानमां श्रुत
नथी; तो हे भाई, तारा ज्ञानमां श्रुत तने शुं मदद करशे? अने तारो आत्मा ज्ञानथी
पूरो छे तो तारुं ज्ञान परनी शुं आशा राखशे? माटे ज्ञानने परनुं जराय अवलंबन
नथी. पोताना आत्मस्वभावनुं ज अवलंबन छे.
आ रीते आत्मानो परिपूर्ण स्वाश्रित ज्ञानस्वभाव आचार्यभगवाने आ पंदर
गाथाओमां बताव्यो छे.
जेने पोताना आत्मानुं हित करवुं छे–कल्याण करवुं छे तेणे शुं करवुं जोईए?
तेनो आ अधिकार चाले छे. प्रथम तो, आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, ज्ञान अने आनंद ज
तेनो स्वभाव छे अने परथी तेम ज विकारथी ते जुदो छे,–एवा आत्मानी ज्यां सुधी
श्रद्धा न थाय त्यां सुधी शरीर–पैसा–स्त्री–पुत्र वगेरेमांथी हितबुद्धि टळे नहि; अने ज्यां
सुधी परमां हितबुद्धि के लाभ–अलाभनी बुद्धि टळे नहि त्यां सुधी स्वभावने
ओखळवानो अने राग–द्वेष टाळीने तेमां ठरवानो सत्य पुरुषार्थ करे नहि. माटे पोतानुं
हित करवाना ईच्छक जीवोए, आत्मानुं स्वरूप शुं छे? तेने कोनी साथे एकता छे ने
कोनाथी जुदाई छे? ते जाणवुं जोईए.
आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, ते ज्ञान–सुख वगेरे साथे एकमेक छे, अने शरीर–पैसा

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: १० : आत्मधर्म : कारतक : २५००
वगेरेथी तेने जुदाई छे, रागथी पण खरेखर जुदाई छे. ज्ञान–आनंदस्वरूप आ आत्मा
परथी जुदो छे एम कहेतां ज आत्मा पोताना स्वभावथी परिपूर्ण, स्वाधीन अने
परना आश्रय वगरनो निरालंबी सिद्ध थाय छे. आवा आत्माने जाणवो–मानवो ते ज
हितनो उपाय छे, ते ज कल्याण छे, ते ज धर्म छे, ते ज मंगल छे.
दरेक आत्मा परिपूर्ण ज्ञानस्वरूप छे. आ शरीर ते हुं नथी, हुं तो आत्मा छुं,
मारो आत्मा ज्ञानथी परिपूर्ण छे ने पर चीजोथी जुदो छे; मारा आत्माने ज्ञान अने
आनंद माटे कोई पर चीजनी जरूर नथी. आ प्रमाणे पोताना ज्ञानानंदस्वभावी
आत्मानो स्वीकार कर्या वगर कोई जीव धर्म करी शके नहि. आ आत्मस्वभाव
आबाळगोपाळ सर्वे जीवोने समजाय तेवो छे; दरेक जीवोए सुख माटे आवो
आत्मस्वभाव ज समजवानो छे. अहीं आचार्यदेव ते स्वभाव समजावे छे.
जाणनार–देखनार–आनंदस्वभावी आत्मा पोते छे; ते समजवामां निमित्तरूप
द्रव्यश्रुत छे. तेथी सौथी पहेलांं ते द्रव्यश्रुतथी ज्ञानने जुदुं समजावे छे. श्री सर्वज्ञ–
भगवाननी दिव्यवाणी, गुरुओनी वाणी के सूत्रोना शब्दो ते बधा द्रव्यश्रुत छे; तेना
आधारे आ आत्मानुं ज्ञान थतुं नथी. साक्षात् सर्वज्ञभगवान, गुरु के शास्त्रना लक्षे
रागमां अटकीने जे ज्ञान थाय ते पण द्रव्यश्रुत जेवुं छे. देव अने गुरुना आत्मानुं ज्ञान
तेमनामां छे, परंतु आ आत्मानुं ज्ञान तेमनामां नथी. जीव पोताना स्वभाव तरफ
वळीने ज्यारे साचुं समजे छे त्यारे द्रव्यश्रुतने निमित्त कहेवाय छे; पण देव–गुरु–
शास्त्रना रागथी आत्मस्वभाव समजातो नथी. देव–गुरुनी वाणीथी तेमज शास्त्रोथी
आ आत्मा जुदो छे. द्रव्यश्रुत तो अचेतन छे, तेमां कांई ज्ञान रहेलुं नथी, माटे ते
द्रव्यश्रुत पोते कांई जाणतुं नथी, ने द्रव्यश्रुतना लक्षे आत्मा समजातो नथी. आत्मा
पोते ज्ञानस्वभावी छे, ते ज्ञानस्वभावनी सन्मुखताथी ज आत्मा जणाय छे.
जाणवानो पोतानो ज स्वभाव छे.
द्रव्यश्रुतथी आत्मा जुदो छे, देव–शास्त्र–गुरुथी आत्मा जुदो छे, एटले तेमना
लक्षे थतो राग पण द्रव्यश्रुतमां आवी जाय छे. आम समजीने ते द्रव्यश्रुत तरफना
रागथी जुदो पडीने, वर्तमान ज्ञानने अंदर रागरहित त्रिकाळी ज्ञानस्वभाव तरफ वाळे
तो पोतानो आत्मस्वभाव जणाय. वर्तमान ज्ञानपर्यायने पर तरफ रागमां एकाग्र करे
तो अधर्म थाय छे, ने पोताना त्रिकाळी ज्ञानस्वभाव तरफ वाळीने त्यां एकाग्र करे तो
धर्म थाय छे. ज्ञानस्वभावना आधारे जे ज्ञान थाय ते सम्यग्ज्ञान छे. पर द्रव्यो आ

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: कारतक : २५०० आत्मधर्म : ११ :
आत्माथी जुदा छे, तेमना लक्षे जे मंदकषाय अने ईन्द्रियज्ञान थाय, ते मंदकषायना के
ईन्द्रियज्ञानना आश्रये सम्यग्ज्ञान थतुं नथी ने आत्मा समजातो नथी. आटलुं समजे
त्यारे द्रव्यश्रुतथी आत्माने जुदो मान्यो कहेवाय, अने त्यारे जीवने धर्म थाय.
‘द्रव्यश्रुतथी आत्मा जुदो छे’ एम कहेतां तेमां साचा द्रव्यश्रुतनो स्वीकार आवी
जाय छे; केमके द्रव्यश्रुत पोते ज एम कहे छे के तुं तारा ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थतुं
पोते ज ज्ञान छो. तारुं ज्ञान कांई शास्त्रना शब्दोमां नथी. परना आश्रये ज्ञान थवानुं
जे कहे ते तो द्रव्यश्रुत पण नथी, ते तो कुश्रुत छे. अहीं तो भगवाने कहेला द्रव्यश्रुतनी
वात छे. जे जीवने, आत्मा समजवानी जिज्ञासा छे तेने प्रथम द्रव्यश्रुत तरफ लक्ष होय
छे, द्रव्यश्रुतना लक्षे शुभ राग थाय छे खरो, साचा देव–शास्त्र–गुरुनी ओळखाण,
सत्समागम, शास्त्रस्वाध्याय वगेरे निमित्तो होय खरा अने जिज्ञासुने तेना लक्षे
शुभराग थाय, परंतु ते कोई निमित्तोना लक्षे आत्मस्वभाव समजातो नथी. द्रव्यश्रुत
वगेरे निमित्तो अने ते तरफना लक्षे थता रागनो आश्रय छोडीने, तेनाथी रहित
त्रिकाळी चैतन्यस्वभावनी रुचि करीने ज्ञानने स्व तरफ वाळे तो ज सम्यग्ज्ञान थाय.
जिज्ञासु जीवने श्रवण तरफनो शुभभाव होय, पण जो ते श्रवणथी ज ज्ञान थशे एम
मानी ले तो ते कदी रागथी जुदो पडीने पोताना तरफ वळे नहि ने तेनुं अज्ञान टळे
नहि. अचेतन शब्दोथी के रागथी ज्ञान थतुं नथी, ज्ञान तो पोताना ज्ञानस्वभावथी
थाय छे,–एम समजतां अपूर्व भेदज्ञान प्रगटे छे.
तीर्थंकर थनार जीव आत्मस्वभावनुं यथार्थ ज्ञान अने अवधिज्ञान सहित जन्मे
छे, अने पछी मुनिदशा प्रगट करी, ऊग्र पुरुषार्थ पूर्वक आत्मस्वभावमां स्थिरता करीने
वीतरागता अने केवळज्ञान प्रगट करे छे. एवुं परिपूर्ण केवळज्ञान दरेक जीवनो स्वभाव
छे. सर्वज्ञदेवने एवुं केवळज्ञान प्रगट थतां पोतानो परिपूर्ण आत्मस्वभाव अने
जगतना सर्वे द्रव्य–गुण–पर्यायो एक साथे प्रत्यक्ष जणाय छे. केवळज्ञान थया पछी पण
तेरमा गुणस्थाने योगनुं कंपन होय छे. तीर्थंकर भगवानने तेरमा गुणस्थाने
तीर्थंकरनामकर्मनो उदय होय छे. अने तेना निमित्ते ‘“’ एवो दिव्यध्वनि छूटे छे.
आत्मस्वभाव समजवामां निमित्तरूप द्रव्यश्रुत छे, ते द्रव्यश्रुतमां सौथी उत्कृष्ट
दिव्यध्वनि छे. परंतु तेना आश्रये सम्यग्ज्ञान थतुं नथी–एम अहीं बताववुं छे.
ज्ञानपर्याय दिव्यध्वनिथी जुदी छे ने आत्माथी अभिन्न छे. दिव्यध्वनि पुद्गलनी रचना
छे, ते

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: १२ : आत्मधर्म : कारतक : २५००
अचेतन छे, तेनामां ज्ञान नथी; ज्ञान तो आत्मानुं तन्मयस्वरूप छे. अहा केवुं अपूर्व
भेदज्ञान कराव्युं छे.!
ज्यां सुधी जीवने राग–द्वेषादि होय छे त्यां सुधी तेने पूरुं ज्ञान होतुं नथी अने
तेनी वाणी पण क्रमवाळी, अनेक अक्षरोवाळी ने भेदरूप होय छे. रागादि टळीने
वीतरागता थतां जे केवळज्ञान थयुं ते सर्वे पदार्थोने एकसाथे जाणे छे अने तेमनी
वाणी अक्रमरूप, निरक्षरी अने एक समयमां पूरुं रहस्य कहेनारी होय छे, तेथी तेने
दिव्यध्वनि कहेवाय छे.
श्री सर्वज्ञदेवने ज्ञान आखुं थई गयुं छे अने तेमनी वाणीमां पण एकेक
समयमां पूरुं रहस्य आवे छे. परंतु सामो जीव पोताना ज्ञाननी लायकातथी जेटलुं
समजे तेटलुं तेने निमित्त कहेवाय छे. कोई जीव बार अंग समजे तो तेने माटे बार
अंगमां ते वाणीने निमित्त कहेवाय छे. कोई जीव करणानुयोगनुं ज्ञान करे तो ते वखते
तेने ते वाणी करणानुयोगना ज्ञानमां निमित्त कहेवाय, छे, अने ते ज वखते बीजो जीव
द्रव्यानुयोगनुं ज्ञान करतो होय तो तेने ते वाणी द्रव्यानुयोगना ज्ञानमां निमित्त
कहेवाय छे. अहो, आमां ज्ञाननी स्वाधीनता सिद्ध थाय छे. जे जीव पोताना
अंतरस्वभावना आधारे जेटलो श्रद्धा–ज्ञाननो विकास करे तेटलो दिव्यध्वनिमां
निमित्तपणानो आरोप आवे छे. माटे अहीं भगवान आचार्यदेव कहे छे के ज्ञान अने
द्रव्यश्रुत जुदां छे. वाणी अने शास्त्रो तो अजीव छे, अजीवना आधारे कदी ज्ञान होय
नहि. जो वाणीथी ज्ञान थतुं होय तो अजीववाणी कर्ता बने अने ज्ञान तेनुं कार्य ठरे.
अजीवनुं कार्य तो अजीव होय, एटले ज्ञान पोते अजीव ठरे! जे जीव परवस्तुना
आधारे पोतानुं ज्ञान माने छे ते जीवनुं मिथ्याज्ञान छे, तेने अहीं अचेतन कह्युं छे.
पोताना चेतनस्वभावने ते जाणतो नथी.
पुस्तक अने वाणी तो जड छे, ते तो ज्ञान नथी ज. पण मंद कषायने लीधे
एकला शास्त्रना लक्षे थतो ज्ञाननो उघाड ते पण खरूं ज्ञान नथी. जिनेन्द्र भगवाने
कहेला द्रव्य–गुण–पर्याय, निश्चय–व्यवहार, उपादान–निमित्त, नव तत्त्वो वगेरे संबंधी
ज्ञाननो उघाड मात्र शास्त्रोना लक्षे थाय, अने शब्दोथी तथा रागथी जुदो पडीने ज्ञान–
स्वभावनुं लक्ष न करे तो ते ज्ञानना उघाडने पण द्रव्यश्रुतमां गणीने अचेतन जेवो
कह्यो छे. शास्त्र वगेरे परद्रव्यो, तेना लक्षे थतो मंद कषाय अने तेना लक्षे कार्य करतो
वर्तमान पूरतो ज्ञाननो उघाड ते बधानो आश्रय छोडीने–तेनी साथेनी एकता छोडीने,
–त्रिकाळी

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: कारतक : २५०० आत्मधर्म : १३ :
आत्मस्वभावनो आश्रय करीने, आत्मामां जे ज्ञान अभेद थईने परिणमे ते ज खरूं
ज्ञान छे.
प्रश्न:–जो शब्द अचेतन छे ने वाणीथी–श्रुतथी ज्ञान नथी थतुं तो, ‘तीर्थंकरो–
संतोनी वाणी जयवंत वर्तो, श्रुत जयवंत हो’–एम शा माटे कहेवाय छे?
उत्तर:–वाणीथी ज्ञान थतुं नथी पण स्वभाव तरफनी एकाग्रताथी ज्ञान प्रगटे
छे. सम्यग्ज्ञान थया पछी जीव एम जाणे छे के पहेलांं वाणी तरफ लक्ष हतुं, एटले के
सम्यग्ज्ञान थवामां निमित्तरूप वाणी छे. खरेखर तो पोताना आत्मामां जे भेदज्ञान
प्रगट्युं छे ते (भावश्रुत) जयवंत हो–एवी भावना छे; अने शुभविकल्प वखते,
भेदज्ञानना निमित्तरूप वाणीमां आरोप करीने कहे छे के ‘श्रुत जयवंत हो, भगवाननी
ने संतोनी वाणी जयवंत हो. ’ केमके ते सम्यक्श्रुत भावश्रुतमां निमित्त छे. परंतु ते
वखतेय धर्मीने अंतरमां बराबर भान छे के वाणी वगेरे परद्रव्यथी के तेना तरफना
रागथी मारा आत्माने किंचित् लाभ थतो नथी.
आत्माना ज्ञानमां वाणीनो अभाव छे अने वाणीमां ज्ञाननो अभाव छे.
जीवनो कोई गुण अचेतनमां नथी, माटे जेणे पोताना आत्मामां सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान, शांति, सुख वगेरे प्रगट करवां होय तेणे क््यांय बहारमां न जोतां, अनंत–
गुणस्वरूप पोताना आत्मस्वभावमां जोवुं. आत्मस्वभाव तरफ वळतां सम्यग्दर्शन–
ज्ञान वगेरे प्रगट थाय छे. अने ते सिवाय वाणी–शास्त्र वगेरे बाह्य वस्तुओना लक्षे
रागादि बंधभावो थाय छे.
अहा, आचार्यदेवे ज्ञानस्वभावनी अपूर्व वात करी छे. वाणी अचेतन छे, तेना
आधारे ज्ञान नथी; ज्ञानस्वभावी आत्मा पोते ज ज्ञान छे. अहो! आ भेदविज्ञाननी
परम सत्य वात छे, आत्मकल्याणनो मार्ग छे. पण जेने पोताना कल्याणनी दरकार
नथी अने जगतना मान–आबरूनी दरकार छे एवा तूच्छबुद्धि जीवोने आ वात नथी
रुचती, एटले खरेखर तेने पोतानो ज्ञानस्वभाव ज नथी रुचतो ने विकार भाव रुचे
छे; तेथी आवी अपूर्व आत्मस्वभावनी वात काने पडतां एवा जीवो पोकार करे छे के
‘अरे, आत्मा परनुं कांई करे नहि–एम कहेवुं ते तो झेरनां ईन्जेक्शन आपवा जेवुं छे.
’ अरे, शुं थाय! आ भेदज्ञाननी परमअमृत जेवी वात पण तेने झेर जेवी लागी!!
बापु! एकवार आ भेदज्ञाननुं ईन्जेक्शन ले तो अनंतकाळना मिथ्यात्वनुं झेर ऊतरी
जशे, ने तने अतीन्द्रिय आनंद थशे. आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, विकारनो अने परनो ते
अकर्ता छे–एवी भेदज्ञाननी वात तो,

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: १४ : आत्मधर्म : कारतक : २५००
अनादिकाळथी जे मिथ्यात्वरूपी झेर चड्युं छे तेने उतारी नांखवा माटे, परम अमृतना
ईन्जेक्शन जेवी छे. जो एकवार पण आत्मा एवुं ईन्जेक्शन ल्ये तो तेने जन्म–
मरणनो रोग नाश थईने सिद्धदशा थया वगर रहे नहि. आत्मा अने विश्वना दरेक
पदार्थ स्वतंत्र छे, परिपूर्ण छे, निरावलंबन छे–आवो सम्यक्बोध ते तो परम अमृत छे
के झेर?? एवुं परम अमृत पण जे जीवने ‘झेरना ईन्जेक्शन’ जेवुं लागे छे ते जीवने
तेना मिथ्यात्व भावनुं जोर ज तेम पोकारी रह्युं छे! आ तो निजकल्याण करवा माटेना
अने मिथ्यात्वरूपी झेर दूर करवा माटेना अफर अमृतनां ईन्जेक्शन छे. पोताना
परिपूर्ण स्वभावनो विश्वास करे तो सम्यग्दर्शन प्रगटे एटले के धर्मनी पहेलामां पहेली
शरूआत थाय. ते सम्यग्दर्शन पोते चैतन्यअमृतथी भरेलुं छे, ने अमृत एटले के
मरणरहित एवा मोक्षपदनुं ते कारण छे.
आत्मस्वभावनो आश्रय करवो ते प्रयोजन छे
आत्मस्वभाव समजवामां, तेम ज समज्या पहेलांं अने समज्या पछी पण
सत्श्रुत निमित्तरूप होय छे, तेनो अहीं निषेध नथी. पण ते सत् निमित्तो एम कहे छे के
तुं तारा ज्ञानस्वभावनो आश्रय कर, ने परनो आश्रय छोड. केमके ज्ञान साथे तुं तन्मय
छो ने परथी तारी भिन्नता छे. जो निमित्तोनो आश्रय छोडीने पोताना स्वभावनो
आश्रय करे तो ज जीवने सम्यग्ज्ञान थाय छे, अने ए रीते स्वाश्रये सम्यग्ज्ञान प्रगट
करे तो ज द्रव्यश्रुतने तेनुं निमित्त खरेखर कहेवाय, अने तेना द्रव्यश्रुतना ज्ञानने
व्यवहारज्ञान कहेवाय छे. ए रीते अहीं निमित्तनो–व्यवहारनो आश्रय छोडीने
स्वभावनो आश्रय करवो ते प्रयोजन छे. ते ज धर्मनो रस्तो छे.
प्रश्न:–जो श्रुत–शास्त्र ते ज्ञाननुं कारण नथी, तो ज्ञानीओ पण आखो दिवस
समयसार–प्रवचनसार आदि शास्त्रो हाथमां राखीने केम वांचे छे?
उत्तर:–पहेलांं ए समजो के आत्मा शुं? ज्ञान शुं? शास्त्र शुं? ने हाथ शुं? हाथ
अने शास्त्र ते तो बन्ने अचेतन छे, आत्माथी जुदा छे, तेनी क्रिया तो कोई आत्मा
करतो नथी. ज्ञानीने स्वाध्याय वगेरेनो विकल्प थयो अने ते वखते ज्ञानमां ते प्रकारना
ज्ञेयोने ज जाणवानी लायकात हती तेथी ज्ञान थाय छे, ने ते वखते निमित्तरूपे
समयसारादि वीतरागी शास्त्र तेना पोताना कारणे स्वयं होय छे. त्यां ज्ञानीए तो
आत्मस्वभावना आश्रये ज्ञान ज कर्युं छे; ज्ञानपर्याय साथे ज तेने तन्मयता छे, बीजा
कोई साथे तेने तन्मयता नथी. हाथनी, शास्त्रनी के रागनी क्रिया पण तेणे करी नथी.
शास्त्रना कारणे ज्ञान थतुं नथी, अने जीवना विकल्पना कारणे

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: कारतक : २५०० आत्मधर्म : १५ :
शास्त्र आव्युं नथी. ज्ञाननुं कारण तो पोतानो ज्ञानस्वभाव होय, के अचेतन वस्तु
होय? जेने पोताना ज्ञानस्वभावनी श्रद्धा नथी अने अचेतन–श्रुतना कारणे पोतानुं
ज्ञान माने छे, तेने सम्यग्ज्ञान थतुं नथी. आ भगवान आत्मा पोते ज्ञानस्वरूप छे.
सर्वज्ञ वीतरागदेवनी साक्षात् वाणी ते ज्ञाननुं असाधारण–सर्वोत्कृष्ट निमित्त छे पण ते
अचेतन छे, तेना आश्रये–तेना कारणे पण आत्माने किंचित् ज्ञान थतुं नथी, तो अन्य
निमित्तोनी तो शुं वात!
कोई एम कहे के–पहेलांं तो वाणी वगेरे निमित्तना लक्षे आत्मा आगळ वधे
ने? तो तेने कहे छे के भाई, वाणीना लक्षे बहु तो पापभाव टाळीने पुण्यभाव थाय,
पण ते कांई आगळ वध्यो कहेवाय नहि. केमके शुभभाव सुधी तो जीव अनंतवार
आवी चूक्यो छे. शुभ–अशुभथी पार आत्मानुं भेदज्ञान करीने ज्ञानस्वभावमां आवे
तो ज आगळ वध्यो कहेवाय. निमित्तना लक्षे कदी पण भेदज्ञान थाय नहि. पोताना
ज्ञानस्वभावना लक्षे शरूआत करे तो ज आगळ वधे ने भेदज्ञानना बळे पूर्णता थाय.
आचार्यदेवना कथनमां गर्भितपणे आवी जता नव तत्त्वो
श्री आचार्यदेवनी घणी गंभीर शैलि छे; एकेक सूत्रनो जेटलो विस्तार करवो
होय तेटलो थई शके छे. ‘श्रुत ते ज्ञान नथी’ एम कहेतां तेमां नवे तत्त्वो गर्भितपणे
आवी जाय छे.
(१) पोते ज्ञानमय जीवतत्त्व चेतन छे.
(२) पोताथी भिन्न एवां द्रव्यश्रुत ते अचेतन छे–अजीवतत्त्व छे.
(३) पोतानुं लक्ष चूकीने ते अजीव तरफ (–वाणी तरफ) लक्ष करतां शुभराग थाय
छे ते पुण्यतत्त्व छे.
(४) विषय–कषाय तरफनो अशुभभाव ते पापतत्त्व छे.
(५) परना लक्षे थतो शुभ–अशुभ विकार ते आस्रवतत्त्व छे.
(६) ते विकार भाववडे कर्मनुं बंधन थाय छे, ते बंधतत्त्व छे.
(७–८) वाणी अने आत्माने भिन्न जाणीने पोताना ज्ञानस्वभावनो अनुभव
करतां सम्यग्दर्शनादि प्रगटे छे ते संवर–निर्जरातत्त्व छे. अने
(९) आत्मस्वभावमां लीन थतां रागादि टळीने ज्ञाननी पूर्णता थाय छे ते मोक्षतत्त्व छे.

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: १६ : आत्मधर्म : कारतक : २५००
हुं ज्ञानस्वभावी आत्मा, वाणी वगेरे अचेतनथी जुदो छुं–एवो जेणे निर्णय
कर्यो ते पोताना ज्ञानने परनुं अवलंबन माने नहि. तेने पोताना अंतरस्वभावना
आश्रये आत्मानुं ज्ञान प्रगटे छे ने तेमां एकाग्रताथी क्षणे–क्षणे शुद्धिनी वृद्धि थती
जाय छे.
‘मारे मोक्ष करवो छे अथवा मारे धर्म करवो छे’ एम अंतरमां गोख्या करे तेथी
कांई धर्म थाय नहि. मोक्ष केम थाय ते बतावनारी संतोनी वाणीना लक्षे रोकाय तोपण
मोक्ष न थाय. मारी वर्तमान पर्यायमांथी विकार टाळीने मोक्षदशा करवी छे–एम पर्याय
उपर जोया करे तोपण मोक्ष न थाय–धर्म न थाय, पण ए वाणी अने विकारथी जुदो
ज्ञानस्वभाव ते हुं–एम समजी, ते आत्मस्वभावनो आश्रय करतां निर्मळदशा प्रगटे
छे, अने पराश्रये थनारा एवा मिथ्यात्व–रागादिभावो टळे छे. आत्मा ज्ञान–आनंदनुं
बिंब छे, तेनामां पूरुं ज्ञानसामर्थ्य छे, ते सामर्थ्यनो विश्वास करीने तेनो अनुभव
करतां पर्यायमां पूरुं ज्ञानसामर्थ्य प्रगट थाय छे. आ ज मुक्तिनो उपाय छे.
जे ज्ञान पोते अंतर्मुख थईने ज्ञानस्वभावमां तन्मय थईने परिणम्युं ते पोते
सम्यग्दर्शन छे. ते पर्याय पोते आत्मा छे; आत्मा पोते पोतानी पर्यायमां तन्मय थईने
परिणम्यो छे. जेम जड–चेतन बे वस्तु जुदी छे तेम कांई द्रव्य–पर्याय जुदां नथी, अनन्य
छे. अहीं तो कहे छे के आत्मानी बधी पर्यायोमां ज्ञान तन्मय छे; अचेतनना समस्त
गुण–पर्यायोथी ज्ञान अत्यंत जुदुं छे, ने चेतनना समस्त गुण–पर्यायोमां ज्ञान
तन्मयपणे रहेलुं छे. अहो, आवा ज्ञानस्वभावी आत्मानुं ग्रहण (एटले के तेने
जाणीने तेनां श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र) जेणे कर्या ते जीव कृतकृत्य स्वसमय छे. जिज्ञासु
जीवोने कुगुरुनो संग छोडीने, सत्पुरुषनी वाणीनुं श्रवण करवानो भाव आवे, पण
‘मारुं ज्ञान वाणीना कारणे नथी, वाणीना लक्षे पण मारुं ज्ञान नथी, अंतरमां
ज्ञानस्वभावमांथी ज मारुं ज्ञान आवे छे’ एम नक्की करीने जो स्वभाव तरफ वळे तो
ज सम्यग्ज्ञान थाय छे. अने तेणे ज द्रव्यश्रुतनुं साचुं श्रवण कर्युं छे; द्रव्यश्रुत जे कहेवा
मांगे छे ते तेणे लक्षमां लीधुं छे.
श्री कुंदकुंदप्रभु पोते महाविदेहक्षेत्रमां जईने सर्वज्ञदेव श्री सीमंधरभगवाननी
दिव्यवाणीनुं आठ दिवस श्रवण करी आव्या हता; तेओश्री आ गाथामां कहे छे के
भगवाननी साक्षात् दिव्यवाणी अचेतन छे, तेमां आत्मानुं ज्ञान नथी. भगवाननी
वाणी एम ज जणावे छे के ज्ञाननी उत्पत्ति वाणीना आश्रये नथी; आत्मा पोते
ज्ञानस्वरूप छे, तेना ज आश्रये तेनुं ज्ञान छे.

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: कारतक : २५०० आत्मधर्म : १७ :
वाणी अचेतन छे, तेमां ज्ञान नथी, ए व्यतिरेकपणुं कह्युं, अने ज्ञान ते आत्मा
छे–ते अन्वयपणुं छे. एटले के आत्मा पोताना अनंत गुणस्वभावोथी परिपूर्ण छे अने
वाणी वगेरेथी तद्न जुदो छे,–एम अस्ति–नास्ति द्वारा आचार्यदेवे आत्मस्वभाव
बताव्यो छे.
ज्ञान अने वाणी जुदा छे. ज्ञानमांथी वाणी नीकळती नथी, अने वाणीमांथी
ज्ञान प्रगटतुं नथी. ज्ञानमां जेवी लायकात होय तेवी वाणी निमित्तरूपे होय–एवो
निमित्त–नैमित्तिक संबंध छे; त्यां अज्ञानी जीव भ्रमथी एम माने छे के वाणीने कारणे
ज्ञान थाय छे. तेथी ते वाणीनो आश्रय छोडतो नथी ने स्वभावनो आश्रय करतो नथी,
एटले तेने सम्यग्ज्ञान थतुं नथी.–एवा जीवने वाणी अने ज्ञाननी अत्यंत भिन्नता
बतावे छे. ज्ञान चेतन छे अने वाणी जडनुं परिणमन छे. ज्ञान अने वाणी बंने
पोतपोतानी वस्तुमां तन्मय थईने स्वतंत्रपणे परिणमे छे. आवुं अपूर्व भेदविज्ञान
करनार जीव स्वसमयमां स्थिर थईने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र अने मोक्ष पामे छे.
–ते वीरनो मार्ग छे.
जय महावीर
मस्तानाका मारग मुक्ति....
शुं जाणे ते दीवाना?
मेरा मारग न्यारा सबसे
(पण) शिवमारगसे नहीं न्यारा;
वीतरागका वचन प्रमाणे
समजे तो जगकुं प्यारा....
सच्चा कहे जिनवाणी खुल्ला,
समजे ज्ञानी मस्ताना;
मस्तानाका मारग मुक्ति
शुं जाणे ते दीवाना?
धन्य धन्य जगमां एवा संतो,
संगत जेनी बहु सारी;
संतजनो सहु चढते भावे
हुं जाउं तस बलिहारी...