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भगवानना आपणे वारस छीए...प्रभुजीए ते अगाध
चैतन्यनिधान आपणने पण सोंप्या छे; प्रभुना वंशमां
थयेला वीतरागी संतोए चैतन्यनिधान खोलवानी चावी
आपणने आपी छे. अहा, श्रीगुरुप्रतापे आ काळे आवा
अगाध चैतन्यनिधाननी प्राप्ति प्रभु वीरनाथना मार्गमां
आपणने थाय छे.
साधवानो छे. आत्मसाधक वीर स्वानुभूतिवडे वीरनाथनो
वीतरागी वारसो ल्ये छे. अहा, धनभाग्य छे के आपणे
वीरप्रभुना वारस छीए.
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छे, भावमरण छे, चैतन्यनुं आनंदमय जीवन तेमां हणाय छे. भेदज्ञानवडे रागथी
भिन्न, इंद्रियोथी भिन्न, अतीन्द्रिय चैतन्यवस्तुनी अनुभूतिरूप जीवन ते ज आत्मानुं
साचुं जीवन छे, ते साचो आत्मा छे; तेमां जन्म–मरणनां दुःखनो अभाव छे; ते
जीवतां शीख. तने महा आनंद थशे. वीतरागी संतो अने अरिहंतो–सिद्धो आवुं
वीतराग चैतन्यजीवन जीवे छे. ते ज साचुं जीवन छे.
सुतां रे जागतां ऊठतां बेसतां...हैडे रहे छे एनुं खूब रटन...
चैतन्यना आश्रये जे ज्ञान–आनंदमय अतीन्द्रियभाव प्रगटयो ते ज जीवनुं साचुं जीवन
जीवन जीववुं ते महावीरनो संदेश छे. जे जीवनमां आत्मानी शांति आवे ने जेना फळमां
मोक्ष थाय, ते ज साचुं जीवन छे. अन्न–वस्त्र के शरीरने आधीन जीववुं ए कांई साचुं
जीवन नथी. सिद्धभगवंतो शरीर वगर ज साचुं सुखी जीवन जीवी रह्या छे.
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थया. अनंतसुखनी प्राप्तिरूप सिद्धि, अने दुःखथी–संसारथी सर्वथा
छूटकारारूप मुक्ति, आवी दशा प्रभु आ दिवसे पाम्या; तेनुं स्मरण करवानो
आ दिवस छे. गौतम स्वामी आ दिवसे ज केवळज्ञान पामीने अरिहंत थया;
अने सुधर्मस्वामी आ दिवसे ज श्रुतकेवळी थया. देहातीत थईने
सिद्धभगवान एम प्रसिद्ध करी रह्या छे के अहो जीवो! संयोग अने शरीर
वगर ज देहातीत चैतन्यभावथी आत्मा पोते ज स्वयं सुखी छे...अतीन्द्रिय
आनंदरूप आत्मा पोते छे.–आवा अतीन्द्रिय ज्ञान–आनंद स्वरूप आत्माने
ओळखतां, पोते अतीन्द्रिय ज्ञानरूप थईने आनंदनो स्वाद आवे छे; –आ
वीरनाथनो मार्ग छे. आवो मार्ग जयवंत छे.
मोक्षगमननुं २५०० मुं वर्ष बेठुं. अत्यारे आवो चोकखो वीरमार्ग पामीने,
सम्यग्दर्शन वडे (२+५) (सात) प्रकृतिना क्षयनो प्रारंभ करी दीधो ते
मंगळ छे. सात प्रकृति (२+५) तेना शून्य (००) नो प्रारंभ करवो, एटले
के सम्यक्त्वनी एवी अप्रतिहत आराधना करवी–के जेमां वच्चे भंग पड्या
वगर क्षायिकसम्यक्त्व थशे,–ते भगवानना मोक्षकल्याणकनी साची उजवणी
छे; ते अपूर्व आनंदमय मंगळ छे. साधकजीव सम्यक्त्वना अखंड दीवडा
प्रगटावीने दीवाळीनो महोत्सव करे छे. आवी आराधना शरू थई तेना
फळमां मोक्ष थशे.
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करीने, आनंदझरती जे उत्तम बोणी आपी ते ‘आत्मधर्म’
द्वारा आपने पहोंचाडतां आनंद थाय छे. –सं.
बेसता वर्षना सुप्रभातमां गुरुदेवे मंगल तरीके सौ प्रथम नव देवोने याद कर्यां
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मंगल सुप्रभात छे. ‘अहो! समकितरूपी सोनानो सूरज ऊग्यो! ’
अने बीजुं आनंदना मीठा स्वादरूप अमृत, तेनाथी आत्मा भरेलो छे. आवा परम
अमृतस्वरूप आत्मा छे. ने शरीर तो मृतक–जड कलेवर छे, तेनाथी विज्ञानघन आत्मा
जुदो छे. आवा आत्माने द्रष्टिमां लेतां झरमर–झरमर अमृतधारा वरसे छे.–आ
सुप्रभात छे. सम्यग्दर्शन ते सुप्रभात छे, अने केवळज्ञान ते सर्वोत्कृष्ट सुप्रभात छे. आ
सुप्रभात जगतने मंगळरूप छे.
सम्यक्त्वादि पर्यायोमां ध्येयपणे आत्मा ज बिराजे छे, आत्मा ज तन्मय थईने ते
पर्यायरूपे परिणम्यो छे. अनंतगुणनो चैतन्यपिंड जे प्रतीतमां आव्यो ते
सम्यग्दर्शनपर्याय पोते चैतन्यपिंड छे. शुद्धपर्यायने पण चैतन्यपिंड कह्यो छे.
अनुभूति करवा ते चैतन्यनुं अपूर्व सुप्रभात छे.
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तो आनंदनुं महा सुप्रभात खील्युं; चैतन्यतत्त्व पर्यायमां चकचकाट करतुं खीली नीकळ्युं.
जेम फूलझरमांथी तेजना तणखा झरमर झरे छे तेम सम्यक्त्वनी चीनगारी वडे
चैतन्यपिंडमांथी आनंदनो रस झरझर झरे छे. लौकिकमां दीवाळीना दिवसे दारूना
फटाकडा फोडे छे तेना अवाजथी तो अनेक जीवो मरी जाय छे (ने तेमां तो पाप लागे
छे), पण अहीं आत्मानी दीवाळीमां (पर्यायने अंतरमां वाळीने) अंतर्मुख थईने
चैतन्यचीनगारी मुकतां जे सम्यग्दर्शन अने केवळज्ञाननो फटाकडो फूटयो ते तो
मिथ्यात्वादिने फोडीने अंदरथी चैतन्यने जीवतो–जागतो करीने आनंद पमाडे छे. आ ज
साची अहिंसक दीवाळी छे. आत्मामां आवी वीतरागदशारूप आनंदमय वर्ष बेठुं तेमां
चैतन्यनो सोनेरी–सूर्य खील्यो ने सुप्रभात प्रगट्युं, तेनो हवे कदी अस्त
नहि थाय.
जिनवाणीना अमोघ बाण छे, ए बाण जेने लाग्या तेनो मोह छेदाई जाय ने अंदरथी
आनंदमय भगवान प्रगटे.
अंदरथी खील्यो चैतन्य भगवान.
पर्यायमां आनंदनी रेलमछेल करी दे छे. वाह रे वाह! वीतरागी संतोनी वाणी! आवी
वीतरागी–जिनवाणीने पण नव देवोमां गणी छे; ते पूज्य छे.
धर्मीना अंतरमां ऊग्युं ते स्याद्वादथी लसलसाट करे छे, अने चैतन्यना अपार
महिमाथी भरेलुं छे. आत्मानो आनंदरस एवो अद्भुत छे के एकवार ते आनंदरस
पीधो त्यां मोक्षनुं वर्ष बेठुं, मोक्षनुं प्रभात तेने खील्युं; ते अल्पकाळे मोक्ष पामीने
सादि–अनंत सिद्धपणे बिराजशे.
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आनंदमय आ चैतन्यप्रकाश मने सदाय स्फुरायमान रहो.
ज्ञान; तेमां आनंद झरे छे. आनंद वगरनुं ज्ञान कदी होय नहि. आत्मानुं जे ज्ञान थयुं
ते ज्ञानप्रभात आनंदथी भरेलुं छे. आवुं आनंदमय सुप्रभात जगतमां मंगळरूप छे.
एकत्वस्वभावने अभिनंदे छे. अनित्यपर्यायो नित्यस्वभावने अभिनंदे छे,–तेनी
ज्ञानादि चतुष्टयथी भरेला स्वभावमां द्रष्टि करतां सम्यक्त्व–सुप्रभात ऊग्युं ते मंगळ
छे, अने केवळज्ञान ते सर्वोत्कृष्ट मंगल सुप्रभात छे.
परम वात्सल्यथी गुरुदेवे सम्यक्
बोधिसहित समाधिना ज आशीर्वाद
आप्या.
क्षय करतां सर्वोत्कृष्ट ज्ञानज्योति प्रगट थाय छे, तेनो अत्यंत महिमा करतां श्री
पद्मप्रभस्वामी नियमसारमां (कळश २०मां) कहे छे के अहो, भेदज्ञानरूपी वृक्षनुं आ
सत्फळ वंद्य छे, जगतने मंगळरूप छे.
एवी चैतन्यनी साधकभूमिका प्राप्त थाय छे, एटले के अनादिथी कदी नहि
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केवळज्ञानरूप आनंदप्रभात खीले छे. आ प्रभात अपूर्व छे; ‘सोना समो रे सूरज
ऊग्यो’ एम लोको मंगळप्रसंगे कहे छे, अहीं तो आत्मामां आनंदथी झगमगतो
सम्यक्त्वसूर्य ऊग्यो ते साचुं सुप्रभात छे. सूरज तो सवारे ऊगीने सांजे आथमी जाय
छे, पण आ चैतन्यसूर्य ऊग्यो ते कदी अस्त थाय नहि. अखंड चैतन्यतत्त्वमां जे
निधान भर्या छे तेमांथी प्रगटेली अनंत ज्ञान–दर्शन–आनंद–वीर्यरूप अवस्था कदी
अस्त थती नथी.
उठ्युं ने झरमर–झरमर आनंद वरसवा लाग्यो. अहा, आवा आत्मानो प्रेम करवो ने
पर्यायमां तेने प्रगट करवो ते संतोनी अपूर्व बोणी (प्रसादी) छे.
चैतन्यस्वाद छे.
कांई आनंदनुं सुप्रभात तारा आत्मामां खील्युं नहि, तारा अज्ञानअंधारा मट्या नहि,
ने तारा ज्ञानपलक ऊघड्या नहि. रागथी पार चिदानंदपिंड आत्माने अंदरना
अतीन्द्रिय स्वसंवेदनज्ञानथी प्रतीतमां लेतां आत्मामां ज्ञानदीवडा प्रगट्या, तेना घरे
दीवाळी आवी; तेने अपूर्व सुप्रभात ऊग्युं, अनादिना अज्ञानअंधारा टळ्या ने ज्ञान–
दर्शनरूपी आंखना पलक ऊघड्या; सुखे–सुखे ते हवे सिद्धपदने साधशे. आत्मामां
अपूर्व वर्ष बेठुं ते हवे सदा सुखमय रहेशे. अहो, आवो मार्ग बतावीने संतोए मोटो
उपकार कर्यो छे.
आत्मा ज्ञान–आनंदमय छे, आवो आत्मा ज मारे जोईए छीए, आत्मा सिवाय बीजुं
कांई मारे जोईतुं नथी.–आवी अंतर्मुख दशा करतां पर्याय अंतरमां वळी जाय छे एटले
सम्यक्त्वादि झगझगती चैतन्यदशारूपे आत्मा खीली जाय छे, ते मंगल सुप्रभात छे.
चैतन्यना आनंदना अनंत अंकुरा तेने प्रगट्या; आनंदनां अनंत
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जैनशासनमां बतावेली जीव–अजीवनी भिन्नताना
अनंतकाळथी संसारमां परिभ्रमण करता जीवे परलक्षी
शास्त्रज्ञान, के शुभरागरूप व्रत–तप–त्याग वगेरे बधुं कर्युं छे, पण
शुद्धात्माना भावश्रुतज्ञानरूप भेदविज्ञान तेणे एक सेकंड पण पूर्वे
कर्युं नथी. वीतरागी संतो कहे छे के हे जीव! एकवार तुं स्व–परनुं
साचुं भेदज्ञान कर तो अल्पकाळमां तारो मोक्ष थया वगर रहे
नहि. एक सेकंडनुं भेदज्ञान अनंतकाळना जन्ममरणथी छोडावीने
मोक्षसुखनो अपूर्व स्वाद चखाडे छे. सर्वे परद्रव्यो अने
परभावोथी आत्मानुं जुदापणुं अने पोताना ज्ञानस्वभावथी
एकपणुं समजीने, अपूर्व भेदज्ञानवडे चैतन्यस्वादनुं वेदन करवुं ते
श्री जिनागमनो सार छे. भेदज्ञान वगरनुं बधुं असार छे,
भेदज्ञान ज सारभूत छे. मुमुक्षु जीवोए पळेपळे भेदज्ञान
भाववायोग्य छे.
स्वभाव वर्णवीने श्री आचार्यदेवे आ गाथाओमां ज्ञानस्वभावनी स्वतंत्रतानो ढंढेरो
नथी; आत्मा पोते ज्ञान छे तेथी आत्मा ज ज्ञाननुं कारण छे; ज्ञानादि पर्यायो साथे
आत्मा तन्मय छे.
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(१)
ज्ञान पूरेपूरुं छे अने श्रुत वगेरेमां ज्ञान जरा पण नथी–आम अस्ति–नास्तिथी पूरो
ज्ञानस्वभाव बताव्यो छे.
नथी; तो हे भाई, तारा ज्ञानमां श्रुत तने शुं मदद करशे? अने तारो आत्मा ज्ञानथी
पूरो छे तो तारुं ज्ञान परनी शुं आशा राखशे? माटे ज्ञानने परनुं जराय अवलंबन
नथी. पोताना आत्मस्वभावनुं ज अवलंबन छे.
तेनो स्वभाव छे अने परथी तेम ज विकारथी ते जुदो छे,–एवा आत्मानी ज्यां सुधी
श्रद्धा न थाय त्यां सुधी शरीर–पैसा–स्त्री–पुत्र वगेरेमांथी हितबुद्धि टळे नहि; अने ज्यां
सुधी परमां हितबुद्धि के लाभ–अलाभनी बुद्धि टळे नहि त्यां सुधी स्वभावने
ओखळवानो अने राग–द्वेष टाळीने तेमां ठरवानो सत्य पुरुषार्थ करे नहि. माटे पोतानुं
हित करवाना ईच्छक जीवोए, आत्मानुं स्वरूप शुं छे? तेने कोनी साथे एकता छे ने
कोनाथी जुदाई छे? ते जाणवुं जोईए.
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परथी जुदो छे एम कहेतां ज आत्मा पोताना स्वभावथी परिपूर्ण, स्वाधीन अने
परना आश्रय वगरनो निरालंबी सिद्ध थाय छे. आवा आत्माने जाणवो–मानवो ते ज
हितनो उपाय छे, ते ज कल्याण छे, ते ज धर्म छे, ते ज मंगल छे.
आनंद माटे कोई पर चीजनी जरूर नथी. आ प्रमाणे पोताना ज्ञानानंदस्वभावी
आत्मानो स्वीकार कर्या वगर कोई जीव धर्म करी शके नहि. आ आत्मस्वभाव
आबाळगोपाळ सर्वे जीवोने समजाय तेवो छे; दरेक जीवोए सुख माटे आवो
आत्मस्वभाव ज समजवानो छे. अहीं आचार्यदेव ते स्वभाव समजावे छे.
भगवाननी दिव्यवाणी, गुरुओनी वाणी के सूत्रोना शब्दो ते बधा द्रव्यश्रुत छे; तेना
आधारे आ आत्मानुं ज्ञान थतुं नथी. साक्षात् सर्वज्ञभगवान, गुरु के शास्त्रना लक्षे
रागमां अटकीने जे ज्ञान थाय ते पण द्रव्यश्रुत जेवुं छे. देव अने गुरुना आत्मानुं ज्ञान
तेमनामां छे, परंतु आ आत्मानुं ज्ञान तेमनामां नथी. जीव पोताना स्वभाव तरफ
वळीने ज्यारे साचुं समजे छे त्यारे द्रव्यश्रुतने निमित्त कहेवाय छे; पण देव–गुरु–
शास्त्रना रागथी आत्मस्वभाव समजातो नथी. देव–गुरुनी वाणीथी तेमज शास्त्रोथी
आ आत्मा जुदो छे. द्रव्यश्रुत तो अचेतन छे, तेमां कांई ज्ञान रहेलुं नथी, माटे ते
द्रव्यश्रुत पोते कांई जाणतुं नथी, ने द्रव्यश्रुतना लक्षे आत्मा समजातो नथी. आत्मा
पोते ज्ञानस्वभावी छे, ते ज्ञानस्वभावनी सन्मुखताथी ज आत्मा जणाय छे.
जाणवानो पोतानो ज स्वभाव छे.
रागथी जुदो पडीने, वर्तमान ज्ञानने अंदर रागरहित त्रिकाळी ज्ञानस्वभाव तरफ वाळे
तो पोतानो आत्मस्वभाव जणाय. वर्तमान ज्ञानपर्यायने पर तरफ रागमां एकाग्र करे
तो अधर्म थाय छे, ने पोताना त्रिकाळी ज्ञानस्वभाव तरफ वाळीने त्यां एकाग्र करे तो
धर्म थाय छे. ज्ञानस्वभावना आधारे जे ज्ञान थाय ते सम्यग्ज्ञान छे. पर द्रव्यो आ
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ईन्द्रियज्ञानना आश्रये सम्यग्ज्ञान थतुं नथी ने आत्मा समजातो नथी. आटलुं समजे
त्यारे द्रव्यश्रुतथी आत्माने जुदो मान्यो कहेवाय, अने त्यारे जीवने धर्म थाय.
पोते ज ज्ञान छो. तारुं ज्ञान कांई शास्त्रना शब्दोमां नथी. परना आश्रये ज्ञान थवानुं
जे कहे ते तो द्रव्यश्रुत पण नथी, ते तो कुश्रुत छे. अहीं तो भगवाने कहेला द्रव्यश्रुतनी
वात छे. जे जीवने, आत्मा समजवानी जिज्ञासा छे तेने प्रथम द्रव्यश्रुत तरफ लक्ष होय
छे, द्रव्यश्रुतना लक्षे शुभ राग थाय छे खरो, साचा देव–शास्त्र–गुरुनी ओळखाण,
सत्समागम, शास्त्रस्वाध्याय वगेरे निमित्तो होय खरा अने जिज्ञासुने तेना लक्षे
शुभराग थाय, परंतु ते कोई निमित्तोना लक्षे आत्मस्वभाव समजातो नथी. द्रव्यश्रुत
वगेरे निमित्तो अने ते तरफना लक्षे थता रागनो आश्रय छोडीने, तेनाथी रहित
त्रिकाळी चैतन्यस्वभावनी रुचि करीने ज्ञानने स्व तरफ वाळे तो ज सम्यग्ज्ञान थाय.
जिज्ञासु जीवने श्रवण तरफनो शुभभाव होय, पण जो ते श्रवणथी ज ज्ञान थशे एम
मानी ले तो ते कदी रागथी जुदो पडीने पोताना तरफ वळे नहि ने तेनुं अज्ञान टळे
नहि. अचेतन शब्दोथी के रागथी ज्ञान थतुं नथी, ज्ञान तो पोताना ज्ञानस्वभावथी
थाय छे,–एम समजतां अपूर्व भेदज्ञान प्रगटे छे.
वीतरागता अने केवळज्ञान प्रगट करे छे. एवुं परिपूर्ण केवळज्ञान दरेक जीवनो स्वभाव
छे. सर्वज्ञदेवने एवुं केवळज्ञान प्रगट थतां पोतानो परिपूर्ण आत्मस्वभाव अने
जगतना सर्वे द्रव्य–गुण–पर्यायो एक साथे प्रत्यक्ष जणाय छे. केवळज्ञान थया पछी पण
तेरमा गुणस्थाने योगनुं कंपन होय छे. तीर्थंकर भगवानने तेरमा गुणस्थाने
तीर्थंकरनामकर्मनो उदय होय छे. अने तेना निमित्ते ‘“’ एवो दिव्यध्वनि छूटे छे.
आत्मस्वभाव समजवामां निमित्तरूप द्रव्यश्रुत छे, ते द्रव्यश्रुतमां सौथी उत्कृष्ट
दिव्यध्वनि छे. परंतु तेना आश्रये सम्यग्ज्ञान थतुं नथी–एम अहीं बताववुं छे.
ज्ञानपर्याय दिव्यध्वनिथी जुदी छे ने आत्माथी अभिन्न छे. दिव्यध्वनि पुद्गलनी रचना
छे, ते
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भेदज्ञान कराव्युं छे.!
वीतरागता थतां जे केवळज्ञान थयुं ते सर्वे पदार्थोने एकसाथे जाणे छे अने तेमनी
वाणी अक्रमरूप, निरक्षरी अने एक समयमां पूरुं रहस्य कहेनारी होय छे, तेथी तेने
दिव्यध्वनि कहेवाय छे.
समजे तेटलुं तेने निमित्त कहेवाय छे. कोई जीव बार अंग समजे तो तेने माटे बार
अंगमां ते वाणीने निमित्त कहेवाय छे. कोई जीव करणानुयोगनुं ज्ञान करे तो ते वखते
तेने ते वाणी करणानुयोगना ज्ञानमां निमित्त कहेवाय, छे, अने ते ज वखते बीजो जीव
द्रव्यानुयोगनुं ज्ञान करतो होय तो तेने ते वाणी द्रव्यानुयोगना ज्ञानमां निमित्त
कहेवाय छे. अहो, आमां ज्ञाननी स्वाधीनता सिद्ध थाय छे. जे जीव पोताना
अंतरस्वभावना आधारे जेटलो श्रद्धा–ज्ञाननो विकास करे तेटलो दिव्यध्वनिमां
निमित्तपणानो आरोप आवे छे. माटे अहीं भगवान आचार्यदेव कहे छे के ज्ञान अने
द्रव्यश्रुत जुदां छे. वाणी अने शास्त्रो तो अजीव छे, अजीवना आधारे कदी ज्ञान होय
नहि. जो वाणीथी ज्ञान थतुं होय तो अजीववाणी कर्ता बने अने ज्ञान तेनुं कार्य ठरे.
अजीवनुं कार्य तो अजीव होय, एटले ज्ञान पोते अजीव ठरे! जे जीव परवस्तुना
आधारे पोतानुं ज्ञान माने छे ते जीवनुं मिथ्याज्ञान छे, तेने अहीं अचेतन कह्युं छे.
पोताना चेतनस्वभावने ते जाणतो नथी.
कहेला द्रव्य–गुण–पर्याय, निश्चय–व्यवहार, उपादान–निमित्त, नव तत्त्वो वगेरे संबंधी
ज्ञाननो उघाड मात्र शास्त्रोना लक्षे थाय, अने शब्दोथी तथा रागथी जुदो पडीने ज्ञान–
स्वभावनुं लक्ष न करे तो ते ज्ञानना उघाडने पण द्रव्यश्रुतमां गणीने अचेतन जेवो
कह्यो छे. शास्त्र वगेरे परद्रव्यो, तेना लक्षे थतो मंद कषाय अने तेना लक्षे कार्य करतो
वर्तमान पूरतो ज्ञाननो उघाड ते बधानो आश्रय छोडीने–तेनी साथेनी एकता छोडीने,
–त्रिकाळी
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ज्ञान छे.
सम्यग्ज्ञान थवामां निमित्तरूप वाणी छे. खरेखर तो पोताना आत्मामां जे भेदज्ञान
प्रगट्युं छे ते (भावश्रुत) जयवंत हो–एवी भावना छे; अने शुभविकल्प वखते,
भेदज्ञानना निमित्तरूप वाणीमां आरोप करीने कहे छे के ‘श्रुत जयवंत हो, भगवाननी
ने संतोनी वाणी जयवंत हो. ’ केमके ते सम्यक्श्रुत भावश्रुतमां निमित्त छे. परंतु ते
वखतेय धर्मीने अंतरमां बराबर भान छे के वाणी वगेरे परद्रव्यथी के तेना तरफना
रागथी मारा आत्माने किंचित् लाभ थतो नथी.
सम्यग्ज्ञान, शांति, सुख वगेरे प्रगट करवां होय तेणे क््यांय बहारमां न जोतां, अनंत–
गुणस्वरूप पोताना आत्मस्वभावमां जोवुं. आत्मस्वभाव तरफ वळतां सम्यग्दर्शन–
ज्ञान वगेरे प्रगट थाय छे. अने ते सिवाय वाणी–शास्त्र वगेरे बाह्य वस्तुओना लक्षे
रागादि बंधभावो थाय छे.
परम सत्य वात छे, आत्मकल्याणनो मार्ग छे. पण जेने पोताना कल्याणनी दरकार
नथी अने जगतना मान–आबरूनी दरकार छे एवा तूच्छबुद्धि जीवोने आ वात नथी
रुचती, एटले खरेखर तेने पोतानो ज्ञानस्वभाव ज नथी रुचतो ने विकार भाव रुचे
छे; तेथी आवी अपूर्व आत्मस्वभावनी वात काने पडतां एवा जीवो पोकार करे छे के
‘अरे, आत्मा परनुं कांई करे नहि–एम कहेवुं ते तो झेरनां ईन्जेक्शन आपवा जेवुं छे.
’ अरे, शुं थाय! आ भेदज्ञाननी परमअमृत जेवी वात पण तेने झेर जेवी लागी!!
बापु! एकवार आ भेदज्ञाननुं ईन्जेक्शन ले तो अनंतकाळना मिथ्यात्वनुं झेर ऊतरी
जशे, ने तने अतीन्द्रिय आनंद थशे. आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, विकारनो अने परनो ते
अकर्ता छे–एवी भेदज्ञाननी वात तो,
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ईन्जेक्शन जेवी छे. जो एकवार पण आत्मा एवुं ईन्जेक्शन ल्ये तो तेने जन्म–
मरणनो रोग नाश थईने सिद्धदशा थया वगर रहे नहि. आत्मा अने विश्वना दरेक
पदार्थ स्वतंत्र छे, परिपूर्ण छे, निरावलंबन छे–आवो सम्यक्बोध ते तो परम अमृत छे
के झेर?? एवुं परम अमृत पण जे जीवने ‘झेरना ईन्जेक्शन’ जेवुं लागे छे ते जीवने
तेना मिथ्यात्व भावनुं जोर ज तेम पोकारी रह्युं छे! आ तो निजकल्याण करवा माटेना
अने मिथ्यात्वरूपी झेर दूर करवा माटेना अफर अमृतनां ईन्जेक्शन छे. पोताना
परिपूर्ण स्वभावनो विश्वास करे तो सम्यग्दर्शन प्रगटे एटले के धर्मनी पहेलामां पहेली
शरूआत थाय. ते सम्यग्दर्शन पोते चैतन्यअमृतथी भरेलुं छे, ने अमृत एटले के
मरणरहित एवा मोक्षपदनुं ते कारण छे.
तुं तारा ज्ञानस्वभावनो आश्रय कर, ने परनो आश्रय छोड. केमके ज्ञान साथे तुं तन्मय
छो ने परथी तारी भिन्नता छे. जो निमित्तोनो आश्रय छोडीने पोताना स्वभावनो
आश्रय करे तो ज जीवने सम्यग्ज्ञान थाय छे, अने ए रीते स्वाश्रये सम्यग्ज्ञान प्रगट
करे तो ज द्रव्यश्रुतने तेनुं निमित्त खरेखर कहेवाय, अने तेना द्रव्यश्रुतना ज्ञानने
व्यवहारज्ञान कहेवाय छे. ए रीते अहीं निमित्तनो–व्यवहारनो आश्रय छोडीने
स्वभावनो आश्रय करवो ते प्रयोजन छे. ते ज धर्मनो रस्तो छे.
करतो नथी. ज्ञानीने स्वाध्याय वगेरेनो विकल्प थयो अने ते वखते ज्ञानमां ते प्रकारना
ज्ञेयोने ज जाणवानी लायकात हती तेथी ज्ञान थाय छे, ने ते वखते निमित्तरूपे
समयसारादि वीतरागी शास्त्र तेना पोताना कारणे स्वयं होय छे. त्यां ज्ञानीए तो
आत्मस्वभावना आश्रये ज्ञान ज कर्युं छे; ज्ञानपर्याय साथे ज तेने तन्मयता छे, बीजा
कोई साथे तेने तन्मयता नथी. हाथनी, शास्त्रनी के रागनी क्रिया पण तेणे करी नथी.
शास्त्रना कारणे ज्ञान थतुं नथी, अने जीवना विकल्पना कारणे
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होय? जेने पोताना ज्ञानस्वभावनी श्रद्धा नथी अने अचेतन–श्रुतना कारणे पोतानुं
ज्ञान माने छे, तेने सम्यग्ज्ञान थतुं नथी. आ भगवान आत्मा पोते ज्ञानस्वरूप छे.
सर्वज्ञ वीतरागदेवनी साक्षात् वाणी ते ज्ञाननुं असाधारण–सर्वोत्कृष्ट निमित्त छे पण ते
अचेतन छे, तेना आश्रये–तेना कारणे पण आत्माने किंचित् ज्ञान थतुं नथी, तो अन्य
निमित्तोनी तो शुं वात!
पण ते कांई आगळ वध्यो कहेवाय नहि. केमके शुभभाव सुधी तो जीव अनंतवार
आवी चूक्यो छे. शुभ–अशुभथी पार आत्मानुं भेदज्ञान करीने ज्ञानस्वभावमां आवे
तो ज आगळ वध्यो कहेवाय. निमित्तना लक्षे कदी पण भेदज्ञान थाय नहि. पोताना
ज्ञानस्वभावना लक्षे शरूआत करे तो ज आगळ वधे ने भेदज्ञानना बळे पूर्णता थाय.
आवी जाय छे.
(१) पोते ज्ञानमय जीवतत्त्व चेतन छे.
(२) पोताथी भिन्न एवां द्रव्यश्रुत ते अचेतन छे–अजीवतत्त्व छे.
(३) पोतानुं लक्ष चूकीने ते अजीव तरफ (–वाणी तरफ) लक्ष करतां शुभराग थाय
(५) परना लक्षे थतो शुभ–अशुभ विकार ते आस्रवतत्त्व छे.
(६) ते विकार भाववडे कर्मनुं बंधन थाय छे, ते बंधतत्त्व छे.
(७–८) वाणी अने आत्माने भिन्न जाणीने पोताना ज्ञानस्वभावनो अनुभव
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ज्ञानस्वभाव ते हुं–एम समजी, ते आत्मस्वभावनो आश्रय करतां निर्मळदशा प्रगटे
करतां पर्यायमां पूरुं ज्ञानसामर्थ्य प्रगट थाय छे. आ ज मुक्तिनो उपाय छे.
छे. अहीं तो कहे छे के आत्मानी बधी पर्यायोमां ज्ञान तन्मय छे; अचेतनना समस्त
जाणीने तेनां श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र) जेणे कर्या ते जीव कृतकृत्य स्वसमय छे. जिज्ञासु
ज्ञानस्वभावमांथी ज मारुं ज्ञान आवे छे’ एम नक्की करीने जो स्वभाव तरफ वळे तो
ज्ञानस्वरूप छे, तेना ज आश्रये तेनुं ज्ञान छे.
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वाणी वगेरेथी तद्न जुदो छे,–एम अस्ति–नास्ति द्वारा आचार्यदेवे आत्मस्वभाव
बताव्यो छे.
निमित्त–नैमित्तिक संबंध छे; त्यां अज्ञानी जीव भ्रमथी एम माने छे के वाणीने कारणे
ज्ञान थाय छे. तेथी ते वाणीनो आश्रय छोडतो नथी ने स्वभावनो आश्रय करतो नथी,
एटले तेने सम्यग्ज्ञान थतुं नथी.–एवा जीवने वाणी अने ज्ञाननी अत्यंत भिन्नता
पोतपोतानी वस्तुमां तन्मय थईने स्वतंत्रपणे परिणमे छे. आवुं अपूर्व भेदविज्ञान
करनार जीव स्वसमयमां स्थिर थईने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र अने मोक्ष पामे छे.
–ते वीरनो मार्ग छे.