Atmadharma magazine - Ank 361
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : कारतक : २५००
भगवान! तारो मुक्तिमार्ग अमे जाण्यो छे.
अमे पण ते मार्गे चाल्या आवीए छीए


आचार्यदेव कहे छे के देहना आश्रये मोक्षमार्ग नथी, आत्माना आश्रये
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारत्रि ते ज मोक्षमार्ग छे; भगवंतोए आवो मोक्षमार्ग सेव्यो हतो
एम अमे जाणीए छीए, ने अमे पण आवो ज मोक्षमार्ग सेवीए छीए.
अनंता तीर्थंकरो पूर्वे थया. अत्यारे विदेहमां तीर्थंकरो बिराजे छे ने अनंता
तीर्थंकरो भविष्यमां थशे; ते बधाय अरिहंतो केवा सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र सेवीने
मोक्ष पाम्या? ते अमे अमारा स्वसंवेदनज्ञानथी जोईए छीए. स्वद्रव्याश्रित जे
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र छे ते ज मोक्षमार्गपणे जोवामां आवे छे. अमे ते मार्ग जोयो
छे अने ते मार्गनी सेवना अमे करीए छीए.
अहीं क्षेत्रअपेक्षाए तीर्थंकरनो विरह छे. पण भावमां विरह नथी, तीर्थंकरोए
जे भाव सेव्यो (जे रत्नत्रय सेव्या) तेनो अमने विरह नथी. तीर्थंकरोए केवा
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र सेव्या ते अमे अमारा स्वसंवेदनभावथी बराबर जाणीए
छीए. पूर्वे कुंदकुंदाचार्यदेव वगेरे महान संतो थया तेओ वीतराग मोक्षमार्गने सेवनारा
हता–एम तेमनो निर्णय अत्यारे पण तेमनी वाणी उपरथी धर्मात्मा करी ल्ये छे.
अहा, जुओ तो खरा, धर्मात्मानी ताकात! पोताना स्वसंवेदनना गजथी
अनंता तीर्थंकरोनुं माप, तेमज हजारो वर्ष पहेलांं थयेला वीतरागी संतोनुं माप करी
लीधुं छे. कोई पण भगवंतो शरीरनी के रागनी सेवना करीने मोक्ष नथी पाम्या पण
अंदरमां ज्ञाननुं सेवन करीने सर्वे भगवंतो मोक्ष पाम्या छे. धर्मी प्रमोदथी कहे छे के
अहो! प्रभो! आपनो मुक्तिमार्ग अमे जाण्यो छे, ने अमे पण एवा ज मोक्षमार्गने
सेवीए छीए....आपना पगले–पगले मोक्षमां आवी रह्या छीए.–आम धर्मी जीव
निःशंक मोक्षमार्गने जाणे छे.
धर्मी पोते तीर्थंकरोना मार्गने सेवीने तेनो निर्णय करे छे. सम्यग्दर्शन–

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: कारतक : २५०० आत्मधर्म : १९ :
ज्ञान–चारित्रना भावरूप मोक्षमार्ग छे, तेनुं सेवन करीने तीर्थंकरो मोक्ष पाम्या छे; ते
पर्याय छे. जेणे अंदरनी स्वानुभूति करी तेणे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनुं सेवन कर्युं; ते
अनुभूति पोते आत्मा ज छे, आत्मा तेनाथी भिन्न नथी. आवा सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्ररूप आत्मानुं सेवन, तेमां शुभराग नथी, तो पछी शरीरनी तो वात ज केवी?
अहो, अमारा धर्मपिता, जेमना पंथे अमे जई रह्या छीए तेमणे तो ज्ञानमय
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनुं सेवन कर्युं हतुं, कांई शरीरना द्रव्यलिंगने के शुभरागने
तेमणे मोक्षमार्ग तरीके सेव्यो न हतो; माटे ज्ञानमय सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते ज
एक मोक्षमार्ग छे, शुभराग के शरीरना आश्रये मोक्षमार्ग नथी,–एम सूत्रनी अनुमति
छे. माटे बीजी बधी चिंता छोडीने एक ज्ञाननुं सेवन कर, ज्ञानना सेवन वडे
मोक्षमार्गमां तारा आत्माने जोड.
तीर्थंकर–अरिहंतोनो दाखलो आपीने रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग आचार्यदेवे प्रसिद्ध
कर्यो छे. आवो मार्ग बतावीने आचार्यदेव कहे छे के हे जीव! तुं तारा आत्माने पण
आवा मोक्षमार्गमां स्थाप!
तुं स्थाप निजने मोक्षपंथे, ध्या, अनुभव तेहने,
तेमां ज नित्य विहार कर, नहि विहर परद्रव्यो विशे.
जुओ तो खरा, अरिहंतोनी ओळखाण! अरिहंतो ज्यारे साधकपणे वर्तता हता
ते वखते केवुं वेदन करता हता, ते अमने अमारा साधकभावमां निःसंदेह जणाय छे.
बधाय भगवंतोए मोक्ष माटे केवुं काम कर्युं हतुं? के रागरहित ज्ञानमय रत्नत्रयने
सेव्या हता. बधाय भगवंतोए सेवेलो आ ज एक मोक्षमार्ग छे, बीजो मार्ग मोक्ष माटे
छे ज नहीं.
अर्हंत सौ कर्मो तणो करी नाश ए ज विधि वडे,
उपदेश पण एम ज करी निर्वृत्त थया; नमुं तेमने.
–आम निर्णय करीने धर्मी पण ते ज मार्गने सेवे छे. मोक्ष जनार जीवने निर्ग्रंथ
मुनिलिंग ज होय छे, बीजुं द्रव्यलिंग होतुं नथी–ए खरूं, पण–
–पण लिंग मुक्तिमार्ग नहि, अर्हंत निर्मम देहतां,
बस लिंग छोडी ज्ञान ने चारित्र दर्शन सेवता.

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: २० : आत्मधर्म : कारतक : २५००
मुनिलिंगने गृहीलिंग–ए लिंगो न मुक्तिमार्ग छे,
चारित्र–दर्शन–ज्ञानने बस मोक्षमार्ग जिनो कहे.
माटे हे जीव! तुं तारा आत्माने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूपे परिणमावीने
तन्मय परिणामवाळो था. अरिहंतोने काया छे पण कायानी माया नथी.–‘कायानी
विसारी माया, स्वरूपे शमाया एवा, निर्ग्रंथनो पंथ भवअंतनो उपाय छे.’ जे
शरीरने (द्रव्यलिंगने) मोक्षनुं कारण माने तेने शरीरनी ममता छूटे ज नहीं.
भगवंतोए तो शरीरने मोक्षमार्ग नहीं जाणता थका तेनुं ममत्व छोड्युं ने रत्नत्रयना
सेवनवडे मोक्ष पाम्या. तुं पण तारा आत्माने आवा मोक्षमार्गमां जोड.–आ सिद्ध
भगवानना समाचार छे.
शुद्धज्ञानमय आत्मा छे, ते अमूर्तिक छे; आवा शुद्धज्ञानमय आत्मामां देह के
रागादि भावो नथी; देहथी ने रागथी पार एवा शुद्धज्ञानमय आत्मानुं सेवन ते ज
मोक्षमार्ग छे, परंतु एनाथी भिन्न एवुं द्रव्यलिंग (–नग्नशरीर के महाव्रतादिना
विकल्पो) ते कोई मोक्षमार्ग नथी.
शुद्धज्ञानस्वभावनी सन्मुखताथी पोते आवा
मोक्षमार्गना उपासक थईने आचार्यदेव बधाय अर्हतदेवोने साक्षीपणे
उतारीने कहे छे के अहो! बधाय भगवान अर्हंतदेवोए आवा दर्शन–ज्ञान–
चारित्रनी ज मोक्षमार्गपणे उपासना करी छे–एम जोवामां आवे छे.
अमे तो
देहादि द्रव्यलिंगनुं ममत्व छोडीने, शुद्धज्ञानना सेवन वडे दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी
उपासनाथी मोक्षमार्ग साधी रह्या छीए, ने बधाय अर्हंत भगवंतोए पण आ ज रीते
मोक्षमार्गनी उपासना करी हती एम निःशंकपणे अमारा निर्णयमां आवे छे.
जो देहमय लिंग के ते तरफना शुभविकल्पो ते मोक्षनुं कारण होय तो अर्हंत–
भगवंतो तेनुं ममत्व छोडीने दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी उपासना शा माटे करत? द्रव्य–
लिंगथी ज मोक्ष पामत!–परंतु अर्हंतभगवंतोए तो देहादिथी ने रागादिथी विमुख
थईने, शुद्धज्ञानमय चिदानंदतत्त्वनी सन्मुखता वडे दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी ज उपासना
करी; माटे ए नक्की थयुं के देहमय लिंग ते मोक्षमार्ग नथी, राग पण मोक्षमार्ग नथी,
परमार्थे दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी उपासना ते ज मोक्षमार्ग छे. दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी
उपासना कई रीते थाय? के शुद्ध ज्ञानमय आत्माना सेवनथी ज ते रत्नत्रयरूप
मोक्षमार्गनी उपासना थाय छे.

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: कारतक : २५०० आत्मधर्म : २१ :
अहा! आचार्यदेवनी केटली निःशंकता! अंदर पोते तो निर्विकल्पअनुभवमां
झूलता झूलता आवा मोक्षमार्गने साधी रह्या छे, ने बेधडकपणे कहे छे के बधाय
भगवान अर्हंतदेवोने शुद्धज्ञानमयपणुं छे, ने तेओए द्रव्यलिंगना आश्रयभूत शरीरनुं
ममत्व छोडी दीधुं छे, एटले द्रव्यलिंगना त्यागवडे दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी मोक्षमार्गपणे
उपासना जोवामां आवे छे. बधाय तीर्थंकरोए मोक्षमार्ग आ एक ज रीते उपास्यो छे,
एम अमारा जोवामां आवे छे.
कोई कहे के “जोवामां आवे छे” एम कह्युं तो शुं आचार्यदेवे अर्हंतदेवोने नजरे
जोया छे? अत्यारे के कुंदकुंदाचार्यदेव हता त्यारे पण अहीं अर्हंतदेव तो न हता!
तो तेने अहीं कहे छे के हे भाई! आत्मामां स्वानुभव–प्रत्यक्षथी ज्यां साक्षात्
अनुभव थयो, त्यां निःसंदेह खातरी थई गई के बस, आवो ज मोक्षमार्ग त्रणेकाळे
होय. अने वळी कुंदकुंदाचार्यदेवने तो विदेहक्षेत्रमां साक्षात् तीर्थंकरभगवाननो भेटो पण
थयो हतो, आठ दिवस सुधी भगवान सीमंधर परमात्मानी सभामां दिव्यध्वनिनुं
साक्षात् श्रवण कर्युं हतुं, ज्यां अनेक केवळज्ञानी भगवंतो बिराजता हता, ज्यां
गणधरदेवो अने मुनिवरोनां टोळां आवा मोक्षमार्गने साधता हता,–तेमने नजरे
नीहाळीने, अने तेवो मोक्षमार्ग पोताना आत्मामां प्रगटावीने आचार्यदेव कहे छे के
भाई, मोक्षमार्ग तो आ शुद्ध ज्ञानमय आत्माना आश्रये रत्नत्रयनी उपासनाथी ज छे,
–एम अमारा जोवामां आवे छे, बीजो कोई मोक्षमार्ग अमारा जोवामां
आवतो नथी.
अहा! जेने साधकपणुं प्रगटाववुं होय तेने साधकपणुं केम प्रगटे तेनी
आ वात छे. मोक्षने साधवा माटे सुत्रनी अने संतोनी आज्ञा तो आम छे के तुं
तारा स्वद्रव्यनो आश्रय करीने तेमां ज विहर! तुं तारा आत्माने रत्नत्रयमां
जोड....तो तुं मोक्षमार्गमां आव्यो–एम सूत्रनी अने संतोनी संमति छे.
आत्मानो वीतरागी ज्ञानस्वभाव छे. ते वीतरागीस्वभावनी निर्विकल्प–
वीतरागी श्रद्धा, तेनुं वीतरागीज्ञान, ने तेमां वीतरागी लीनता,–एवा रत्नत्रयस्वरूप
मोक्षमार्ग छे.
आवा मोक्षमार्ग सिवाय बीजो कोई मोक्षमार्ग नथी. माटे जेणे साधकपणुं
प्रगटाववुं होय ने मोक्षने साधवो होय तेणे आत्माना आश्रये सम्यग्दर्शन–ज्ञान–

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: २२ : आत्मधर्म : कारतक : २५००
चारित्ररूप तीर्थंनी उपासना करवी. द्रव्यलिंग तो शरीराश्रित होवाथी परद्रव्य छे, ते
कांई मोक्षनुं कारण नथी.
द्रव्यलिंगने शरीराश्रित कह्युं तेमां व्रत–महाव्रतना शुभविकल्पो पण समजी
लेवा, केमके ते पण परद्रव्यने ज आश्रित छे, तेथी ते मोक्षनुं कारण नथी.
मोक्षनुं कारण तो स्वद्रव्यने आश्रित ज होय; स्वद्रव्यने एटले के आत्माना
स्वभावने आश्रित एवा जे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते ज मोक्षमार्ग छे,–एम कहे
छे....
–‘कोण कहे छे?’ के भगवान जिनदेवो कहे छे. सर्वे जिनेन्द्रभगवंतोए
शुद्धज्ञानना आश्रये (एटले के शुद्ध आत्माना आश्रये) ज मोक्षमार्गनी आराधना करी;
ने ते जिनभगवंतोए बीजा मुमुक्षु श्रोताजनोने पण ए ज मोक्षमार्ग कह्यो.
गीरनार वगेरे मोक्षधामनी यात्रानो भाव कुंदकुंदआचार्य जेवा महा संतोने पण
आव्यो हतो, तेओ गीरनारजीतीर्थनी यात्राए पधार्या हता, एवो बहुमाननो विकल्प
धर्मीने आवे छे. श्रीमद् राजचंद्रजी पण दक्षिणदेशना पर्वतो नीहाळीने बहुमानथी कहे छे
के अहो! ए तरफना नग्र ऊंचा
अडोलवृत्तिथी उभेल पहाड नीरखी
स्वामी कार्तिकेयादि (मुनिओ)नी अडोल
वैराग्यमय दिगम्बरवृत्ति याद आवती
हती. ते स्वामी कार्तिकेयादिने नमस्कार.
जुओने! बाहुबली भगवान
केवा अडोल ऊभा छे! जाणे मोक्षने केम
साध्यो ते दर्शावी रह्या होय! ! एवो अद्भुत देखाव छे.
–आ रीते मोक्षमार्गना प्रेमीने तीर्थधाम प्रत्ये पण बहुमाननो भाव आवे छे.
रत्नत्रयरूपे परिणमेल जीवने पण ‘तीर्थ’ कहेवाय छे, केमके जेनाथी तराय ते तीर्थ छे;
रत्नत्रयरूप नौकावडे ते संसारने तरे छे माटे ते तीर्थ छे.
अनुभवनी प्रीतिवाळा
मुमुक्षुजीवने आवा परमात्मा के धर्मात्मा प्रत्ये परम प्रीति ने बहुमान
आवे छे.

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: कारतक : २५०० आत्मधर्म : २३ :
परंतु अंतरमां धर्मात्माने ते वखते भान छे के आ भाव परद्रव्याश्रित छे, ते मारा
मोक्षनुं साधन खरेखर नथी; जेटलो भाव मारा स्वद्रव्यने अवलंबे ते ज मोक्षनुं साधन छे.
अहीं कोई एक जीवनी वात नथी, आ तो महा सिद्धांत छे एटले बधाय जीवोने
माटे त्रणे काळनो अबाधित नियम छे. कोई पण क्षेत्रे ज्यारे जे कोई जीवने मोक्ष साधवो
होय ते आ नियमअनुसार ज मोक्षने साधी शके छे. ‘
सम्यग्द्रर्शन–ज्ञान–चारित्राणि
मोक्षमागर्: ’ एम मोक्षशास्त्रनुं पहेलुं ज सूत्र छे, ते आखा जगतने त्रिकाळ लागु पडे छे.
अने तेना बीजडां आ समयसारमां भरेलां छे.
सर्वकर्मरहित पूर्ण शुद्ध आत्मपरिणाम ते मोक्ष छे; तो ते मोक्षनुं कारण पण तेवी
जातनुं ज होवुं जोईए, एटले के मोक्षना कारणरूप परिणाम पण कर्मरहित, शुद्ध होवा
जोईए. जे परिणामथी कर्म बंधाय ते परिणाम मोक्षनुं साधन नथी. आत्माना आश्रये
थता जे वीतरागी श्रद्धा–ज्ञान–चारित्ररूप परिणाम ते ज मोक्षनुं साधन छे. –ए नियम छे.
माटे हे भव्य! तारा आत्माने तुं आवा मोक्षमार्गमां जोड! ने बीजा भावोनुं
ममत्व छोड! स्वद्रव्यने आश्रित सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप जे मोक्षमार्ग तेमां ज तारा
आत्माने जोड–एम सूत्रनी अनुभूति छे.
अहा! जेने साधकपणुं प्रगटाववुं होय तेने साधकपणुं केम प्रगटे तेनी आ वात छे.
मोक्षने साधवा माटे सूत्रनी अने संतोनी आज्ञा तो आम छे के तुं तारा स्वद्रव्यनो
आश्रय करीने तेमां ज विहर! तुं तारा आत्माने स्वद्रव्यमां जोड.....तो तुं मोक्षमार्गमां
आव्यो–एम सूत्रनी अने संतोनी संमति छे.
[जुओ पानुं: ३१]
मेरे नियनोंमें प्रभु वसे
जेना हृदयमां भगवान बिराजे छे, जेनुं ज्ञान अंतर्मुख थयुं
छे. अंतरनी द्रष्टि जेने ऊघडी छे एवो भक्त भगवान प्रत्ये कहे छे के–
हे भगवान! आ बाह्य ईन्द्रियचक्षुथी आप मने भले न
देखाओ, पण अंतरमां खुलेला मारा मतिश्रुतज्ञाननां चक्षुथी आप दूर
नहि रही शको. मारा स्वसन्मुख अतीन्द्रिय ज्ञानचक्षुमां तो आप
साक्षात् बिराजी ज रह्या छो....आपना निःशंक श्रद्धा–ज्ञान वर्ते छे....
अंतरनयनो वडे हुं आपने देखी ज रह्यो छुं.
“मेरो प्रभु नहि दूर दीसन्तर, मोहिमें है मोहे दीसत नीके”

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: २४ : आत्मधर्म : कारतक : २५००
वीरप्रभुनी परंपराथी आवेला
परमागमनुं तात्पर्य
सर्वज्ञपरंपरामां दिगंबर आचार्योए टकावेलो मोक्षमार्ग
आजे पण परमागममां प्रसिद्ध छे. महा भाग्ये आपणने पण ते
मार्ग गुरुदेवे आप्यो छे. परमागममंदिरनो महोत्सव नजीक आवी
रह्यो छे त्यारे वीरनाथनी परंपराना परमागममां कहेलो सत्य
मार्ग जाणीने मुमुक्षुओ आनंदित थशे.
(सूत्रप्राभृतना प्रवचनोमांथी).
अहो, सर्वज्ञनी परंपराथी आवेला वीतरागी–जिनसूत्र आजे महाभाग्ये
आपणने मळ्‌या छे; आवा जिनसूत्रमांथी परमार्थमार्ग शोधी शकाशे. सर्वज्ञे कहेलुं ने
वीतरागीसंतोए स्वानुभव करीने परंपरा टकावेलुं भावश्रुत, तेनो उपदेश आ
समयसारादि जिनागममां भर्यो छे; तेनाथी सूत्र अने अर्थ जाणीने, परमार्थमार्गनो
निश्चय करीने आजे पण भव्यजीवो मोक्षमार्गने पामे छे.
अरे, जेनी पासे सूत्र ज साचां नथी, जेनी परंपरा साची नथी, वीतरागी
संतोनी परंपरा तोडीने जे कल्पित मार्ग चाल्या ने कल्पित सूत्रो रचायां तेमां
मोक्षमार्गनो परमार्थ उपदेश नथी, एटले एवा मार्गमां के एवा शास्त्रमांथी परमार्थ
मोक्षमार्ग शोधी शकाय नहीं. भाई, तारा हित माटे तुं साचा मार्गनो निर्णय कर, अने
ते साचो मार्ग बतावनारा वीतराग सर्वज्ञ देव–गुरु–शास्त्रने ओळखीने तेनी
परंपरानो स्वीकार कर.
जुओ, महावीर भगवानना निर्वाणनुं २५०० (अढी हजार) मुं वर्ष बेठुं छे ने
आ महावीर भगवाननी परंपरानी वात आवी छे. भगवाननी परंपरामां थयेला

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: कारतक : २५०० आत्मधर्म : २५ :
आचार्योए जे सूत्र अने अर्थ कह्या छे तेना द्वारा साचा मार्गने जाणीने भव्यजीवो
निर्वाणने साधे छे.–आवो सत्य मार्ग कुंदकुंदाचार्यदेव वगेरे दिगंबर संतोए टकावी
राख्यो छे, ते आजे पण चाली रह्यो छे.
जिनसूत्रमां कोईपण रीते रागादिकभावो मटाडवानुं प्रयोजन छे, अने राग–
रहित चिदानंदतत्त्वना अनुभवनुं तात्पर्य छे. आवा प्रयोजननी सिद्धि भगवाने कहेला
परमागमनी परंपरामां ज थाय छे. चैतन्यतत्त्व अने रागादितत्त्व बंने भिन्न छे–एवुं
भेदज्ञान करावीने रागने मटाडे छे,–ए रीते जीव परमागमनुं रहस्य जाणीने, मोक्षमार्ग
पामे छे.
भगवाने कहेला बधा परमागम तो आजे विद्यमान नथी तो परमार्थरूप
मोक्षमार्ग केम साधी शकाय? एवा प्रश्नना उत्तरमां कहे छे के, भगवानना कहेला
परमागमनो अंश आजे पण विद्यमान छे. भगवाने कहेला बधा परमागम आजे भले
विद्यमान न होय, परंतु तेना एक अंशमां पण मोक्षमार्ग बताववानुं सामर्थ्य छे. भले
शास्त्रो थोडा छे, पण ते वीतरागीसंतोनी परंपराथी आवेला छे, तेमां वीतरागदेवे
कहेलो मूळमार्ग जळवाई रह्यो छे. अहो, दिगंबर आचार्योए मार्ग टकावीने अथाग–
अपार उपकार कर्यो छे.
महावीरभगवाननी परंपराथी चाल्या आवेला परमागमनो अत्यंत महिमा
करतां षट्खंडागममां श्री वीरसेनस्वामी कहे छे के: मोक्षाभिलाषी भव्य जीवोए आवा
वीतरागी परमागमनो अभ्यास करवो जोईए. महावीर भगवान मोक्ष पधार्या पछी
६२ वर्ष सुधी तो आ भरतक्षेत्रमां केवळज्ञाननी धारा अखंड रही. पछी केवळज्ञाननो
तो विच्छेद थयो पण बार अंगधारी पांच श्रुतकेवळीभगवंतो थया, तेमना द्वारा
श्रुतज्ञाननी धारा १०० वर्ष सुधी अखंड चाली. पछी श्रुतज्ञान पण क्रमेक्रमे घटवा
मांड्युं.–तोपण, घटतां–घटतां तेनो एक अंश आजेय वीतरागी संतोना प्रतापे
आपणने प्राप्त थाय छे...ते पण अमृत छे. तेना अभ्यास माटे प्रेरणा करतां वीरसेन
स्वामी (षट्खंडागम पुस्तक ९, पानुं १३३–१३४ मां) कहे छे के–
“आ परमागम–ग्रंथ त्रिकाळविषयक समस्त पदार्थोनो विषय करनारा प्रत्यक्ष
अनंत केवळज्ञानना प्रभावथी प्रमाणीभूत होवाथी, अने वीतरागी आचार्योनी

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: २६ : आत्मधर्म : कारतक : २५००
परंपराथी आव्या होवाथी, प्रत्यक्ष तेमज अनुमानथी अविरूद्ध छे,–द्रष्ट–ईष्टना
विरोधथी रहित छे, तेथी प्रमाणभूत छे. माटे मोक्षना अभिलाषी भव्यजीवोए आ
परमागमनो अभ्यास करवो जोईए.”
“कोई कहे के–आ ग्रंथ तो अल्प छे (अर्थात् बार अंगनुं श्रुतज्ञान घटतुं घटतुं
घणुं अल्प रह्युं छे) तेथी मोक्षरूपी कार्यने उत्पन्न करवा ते असमर्थ छे!–तो आचार्य–
देव कहे छे के हे भाई! एवो विचार न कर. केमके अमृतना सो घडा पीवानुं जे फळ छे
ते फळ अमृतनो एक खोबो पीवामां पण प्राप्त थाय छे; तेम सर्वज्ञदेवनी परंपराथी
आवेल वीतराग–परमागमरूपी अमृत भले ओछुं होय तोपण तेना अभ्यासथी अपूर्व
आत्मकल्याणरूप मोक्षमार्गनी प्राप्ति थई शके छे.” माटे मोक्षार्थी जीवोए परमागमनो
अभ्यास जरूरी करवो.
जिनसूत्रना भावश्रुतनी अपार ताकात
अहो; जिनसूत्रमां कहेला भावश्रुतनुं जेने ज्ञान छे ते जीव भवसमुद्रमां डुबतो
नथी. चारगतिमां रहेलो जे कोई जीव आत्मानी पर्यायमां श्रुतज्ञानरूपी सूत्र परोवी ल्ये
छे ते जीव (सूत्र परोवेली सोयनी माफक) संसारमां खोवातो नथी, पण
संसारभ्रमणने छेदीने मोक्षदशाने पामे छे. भव पलटी जवा छतां ज्ञानधारा तूटया
वगर, ते अल्पकाळमां मोक्षने साधी लेशे.–एवो वीतरागी जिनसूत्रना सम्यग्ज्ञाननो
महिमा छे.
जिनसूत्र चैतन्यनो पूरो स्वभाव देखाडे छे. नवे तत्त्वोनुं ज्ञान करावीने तेमां
हेय–उपादेय शुं छे ते ओळखावे छे. तेने ओळखतां स्वसंवेदनवडे चैतन्यचमत्काररूप
आत्मसत्ता प्रत्यक्ष अनुभवगोचर थाय छे. ते जीव संसारनी गतिमां रहेलो होवा छतां
संसारमां डुबतो नथी. चैतन्यतत्त्व अतीन्द्रिय छे, ईन्द्रियोथी अद्रश्य छे, छतां
जिनसूत्रना ज्ञानवडे तेनुं स्वरूप जाणीने स्वसंवेदनमां ते प्रत्यक्ष थाय छे. श्रुतज्ञाननी
ताकात कोई अद्भुत अपार छे. भावश्रुतज्ञान स्वसन्मुख थईने आत्माना स्वरूपने
वेदे छे, ते स्वसंवेदनमां सर्व आगमनो सार आवी जाय छे.
साचुं ज्ञान करनार जीव सम्यग्द्रष्टि छे. अहो, भगवाने कहेलां आवां जिनसुत्र आजे
दिगंबर जैनआचार्योनी परंपराथी प्राप्त थाय छे. आवा जिनसूत्रने

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: कारतक : २५०० आत्मधर्म : २७ :
पामीने हे जीव! तुं तारा आत्माने स्वसंवेदन–प्रत्यक्ष करी ले. भगवाने कहेलुं ज्ञान
भवनुं नाशक छे.
जिनकथित द्रव्यश्रुतनुं साचुं ज्ञान ज त्यारे थाय के ज्यारे अंतर्मुख थईने
शुद्धआत्मतत्त्वने स्वसंवेदनगोचर करे.–आवुं भावश्रुत ते ज जैनशासन छे. अहा,
वीतरागवाणीनी शी अद्भुत रचना छे! एनुं ज्ञान करतां आनंदना तरंग ऊछळे छे.
कोई अज्ञानी जीव भले ११ अंग भण्यो होय तोपण ते जीव जिनसूत्रना
सम्यग्ज्ञानथी रहित छे, ते भले नवमी गै्रवेयकमां होय तोपण ते संसारगत छे, ते
मोक्षने पामतो नथी.
अने भावश्रुतवडे जिनसूत्रनो ज्ञाता सम्यग्द्रष्टिजीव, भले विशेष शास्त्रो न
भण्यो होय कदाच नरकमां होय, तोपण ते जीव संसारगत नथी, त्यांथी नीकळीने
एकाद भवमां ते मोक्ष पामी जशे.–ए भावश्रुत ज्ञाननो महिमा छे.
मुमुक्षु जीवोनां महान भाग्य अने महान पुण्ययोग
अहो, वीतरागी जिनागम आत्माना सम्यक्स्वभावनुं ज्ञान करावे छे. आ
सम्यग्ज्ञान जीवने संसारसमुद्रमां डुबवा नहीं दे; सम्यग्ज्ञानना चैतन्यदीवडा प्रगटाव्या
ते जीव हवे मोक्ष पामशे, तेणे ज खरी दीपावली करी. ज्ञानना महिमापूर्वक गुरुदेव कहे
छे के अहो! आवुं अपूर्व सम्यग्ज्ञान बतावनारां जिनसूत्रो (समयसारादि) अहीं
परमागममंदिरमां कोतराई गयां, तेमां आखा समाजना पुण्य भेगां छे. बेन जेवा
आत्माओनां तो पुण्य छे ज, ने आखा समाजना पण महा भाग्य छे के आ काळे
आवा परमागम प्रसिद्धिमां आव्या! (गुरुदेवनी आ वात श्रोताजनोए हर्षपूर्वक
वधावी लीधी, ने कह्युं के अहो गुरुदेव! आ बधो आपनो ज प्रताप छे.)
जिनागममां तो बधा तत्त्वोनुं ज्ञान कराव्युं छे. जीव–अजीव, पुण्य–पाप, बंध–
मोक्ष, ए बधानुं स्वरूप जिनागम ओळखावे छे, ने तेमां पुण्य–पाप वगरनो
शुद्धआत्मा उपादेय छे, तेना आश्रये संवर–निर्जरा–मोक्षदशा प्रगटे छे. शुद्ध आत्मानी
मुख्यताथी अध्यात्मनुं निरूपण छे.
महावीरनो सन्देश छे के चैतन्यजीवन जीवो
जीव तो ज्ञानआनंदमय सत्ता छे; ते चैतन्यसत्ताथी ते जीवन जीवनारो छे.

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: २८ : आत्मधर्म : कारतक : २५००
ईन्द्रिय के मनथी कांई तेनुं जीवन नथी.–आवा आत्माने ओळखीने चैतन्यना आश्रये
जे ज्ञान–आनंदमय अतीन्द्रियभाव प्रगट्यो ते ज जीवनुं साचुं जीवन छे. आवुं जीवन
धर्मी जीवे छे, ने जगतने पण तेवा ज जीवननो उपदेश आपे छे.–आवुं जीवन जीववुं–
ते महावीरनो सन्देश छे. जे जीवनमां आत्मानी शांति आवे ने जेना फळमां मोक्ष थाय,
ए ज साचुं जीवन छे. अन्न–वस्त्र के ईन्द्रियोने आधीन जीववुं ए कांई साचुं जीवन
नथी.
अंतरनी अपूर्व अनुभूति,–ते बीजाने कई रीते बताववी!
धर्मात्मा चैतन्यजीवनथी जे आनंद अनुभवे छे तेनी ईन्द्रियज्ञानवाळा जीवोने
कल्पना आवी शकती नथी. जेम एक काचबो, लीलफूगथी ढंकायेला सरोवरमां पाणी
उपर आव्यो ने लीलफूगना पडमां तीराड पडतां उपर पूनमनो झगझगतो चंद्र जोयो.
आश्चर्यथी ते बीजा काचबाने तेडवा गयो ने कह्युं के में कंईक अद्भुत वस्तु जोई, चालो
तमने बतावुं. बधा काचबा पाणी उपर आव्या, पण त्यां तो लीलफूगनुं पड पाछुं भेगुं
थई गयुं हतुं एटले चंद्र न देखायो; बीजा काचबा कहेवा लाग्या के तें कांई जोयुं नथी, तुं
जूठुं कहे छे; तें जोयुं होय तो अमने बताव! पहेलो काचबो मनमां समज्यो के में तो
अपूर्व वस्तु जोई छे पण आ लोकोने कई रीते बतावुं! तेम धर्मी जीव अनंतकाळना
मोहनो पडदो चीरीने पोताना अतीन्द्रिय चैतन्यतत्त्वना दर्शनथी महा आनंदित थाय
छे. बीजा जीवोने पण कहे छे के आत्मा ईन्द्रियातीत महा आनंदथी भरेल तत्त्व छे, तेने
देखतां महा आनंद थाय छे. पण ईन्द्रियज्ञान द्वारा जीवो तेने देखी शकता नथी एटले
तेने तेनो विश्वास आवतो नथी; ते कहे छे के अमने तो आत्मानो आनंद कंई देखातो
नथी, तमे देख्यो होय तो अमने बतावो. ज्ञानी अंतरमां समजे छे के में तो
स्वानुभवथी अंतरमां चैतन्यवस्तुने साक्षात् जोई छे, तेना अतीन्द्रिय आनंदनो अपूर्व
स्वाद चाख्यो छे, पण बीजा ईन्द्रियज्ञानवाळा जीवोने ते कई रीते बतावुं? मोहनो
पडदो दूर करी चैतन्यआंख खोलीने पोते जुए तो आत्माना अपार महिमानी खबर
पडे. परमागम तो आत्माना महिमाने प्रसिद्ध करी–करीने बतावे छे.
परमागमनुं फरमान: सिद्धप्रभुना समाचार: चैतन्यजीवन
चैतन्यथी जातरूप थईने चैतन्यनो अनुभव थाय छे. रागमां रहीने चैतन्य–
वस्तुनो अनुभव थई शकतो नथी. चैतन्यनी अनुभूति थई ते पर्याय पोते चैतन्य–

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: कारतक : २५०० आत्मधर्म : २९ :
मय छे, ते रागथी भिन्न छे, एटले ते अनुभूतिने आत्मा ज कहेवाय छे; आत्माथी ते
जुदी वस्तु नथी.–आवी अनुभूति करवी ते परमागमनुं फरमान छे.
रागनो अनुभव ते जीवनुं जीवन नथी, रागनो अनुभव ते आत्मा नथी; ए
तो अनात्मभाव छे, भावमरण छे, चैतन्यनुं आनंदमय जीवन तेमां हणाय छे.
भेदज्ञान वडे रागथी भिन्न, ईन्द्रियोथी भिन्न, अतीन्द्रिय चैतन्यवस्तुनी अनुभूतिरूप
जीवन ते ज आत्मानुं साचुं जीवन छे, ते साचो आत्मा छे; तेमां जन्म–मरणना दुःखनो
अभाव छे; ते चैतन्यजीवन आनंदथी भरेलुं छे. भाई, जैन थईने तुं एक वार आवुं
वीतरागी जीवन जीवतां शीख. तने महा आनंद थशे. वीतरागी संतो अने अरिहंतो–
सिद्धो आवुं वीतराग–चैतन्यजीवन जीवे छे, ते ज साचुं जीवन छे.–
तारुं जीवन खरूं तारुं जीवन......
जीवी जाण्युं नेमनाथे जीवन....
सुतां रे बेसतां, जागतां ऊठतां....
हैडे रहे तारुं खूब रटन....
रागथी भिन्न चैतन्यजीवन धर्मीना अंतरमांथी एकक्षण पण खसतुं नथी.
रागथी भिन्न एवुं वैराग्यजीवन, एकला आत्माना आश्रये जीवाय छे, तेमां बीजा
कोई साधननी (धननी के अन्ननी) जरूर पडती नथी. ते जीवन चैतन्यप्राणथी जीवाय
छे; ते ज आनंदमय सत्य जीवन छे. ते ज प्रभु महावीरनो संदेश छे. आवुं अतीन्द्रिय
आनंदमय चैतन्यजीवन अमे जीवीए छीए–अने तमे पण एवुं आनंदमय
चैतन्यजीवन जीवो–एम सिद्धप्रभुना समाचार छे.
विदेहक्षेत्रमां जईने कुंदकुंदाचार्यदेव सीमंधरपरमात्मा पासेथी आ समाचार
लाव्या छे के मोक्षमार्ग शुद्धरत्नत्रयस्वरूप छे; राग के शरीरनी क्रिया ते मोक्षमार्ग नथी.
आवो मोक्षमार्ग शुद्धात्माना आश्रये अत्यारे आ भरतक्षेत्रे पंचमकाळमां पण थई शके
छे. आत्माथी ‘न थई शके’ एवुं भगवानना शासनमां छे ज नहि. हकार लावीने करे
तो अत्यारे पण मोक्षमार्ग थाय छे. अनेक जीवो आत्मानो अनुभव करीने मोक्षमार्गने
पामेला अत्यारे पण विद्यमान छे. माटे तुं पण तारा आत्माने उत्साहथी मोक्षमार्ग–
पर्यायमां जोड. ए वीरनो मार्ग छे. शूरवीर थईने तुं वीरना मार्गमां आवी जा. तने
अपूर्व आनंदजीवन प्राप्त थशे.

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: ३० : आत्मधर्म : कारतक : २५००
महावीरना भक्तो....आवो मोक्षमार्गमां
[लेख पानुं २३ थी चालु]
जे जीव मोक्षार्थी छे, मोक्षनो ईच्छुक छे एवा सुपात्र भव्य
जीवने संबोधीने आचार्यदेव आदेश करे छे के हे भव्य! तुं तारा
आत्माने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रस्वरूप मोक्षमार्गमां स्थाप!
तुं स्थाप निजने मोक्षपंथे, ध्या, अनुभव तेहने,
तेमां ज नित्य विहार कर, नहि विहर परद्रव्यो विषे.
हे भव्य! तुं मोक्षमार्गमां तारा आत्माने स्थाप, तेनुं ज ध्यान कर, तेने ज चेत
–अनुभव अने तेमां ज निरंतर विहार कर; अन्य द्रव्योमां न विहर.
जुओ, आचार्यदेव सुपात्र मोक्षार्थी जीवने आज्ञा करीने मोक्षमार्गमां प्रेरे छे.
मोक्षार्थीजीवे शुं करवुं? के देहादिनुं अने रागादिनुं ममत्व छोडीने मोक्षमार्गमां पोताना
आत्माने स्थापवो. हे जीव! अनादिथी बंधमार्गमां आत्माने स्थाप्यो छे, त्यांथी पाछो
वाळीने तारा आत्माने हवे मोक्षमार्गमां स्थाप.
आचार्य भगवाने पोताना आत्माने तो मोक्षमार्गमां स्थाप्यो छे, पोते
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूपे परिणमीने ते मोक्षमार्गमां आत्माने स्थाप्यो छे, ने बीजा
मोक्षार्थीने संबोधीने कहे छे के हे भव्य! तुं तारा आत्माने मोक्षमार्गमां स्थाप.
‘अनादिकाळथी पोताना अज्ञान–दोषने लीधे विकारमां ज स्थित रह्यो छे तो हवे
मोक्षमार्गमां स्थित केम थाय?–एम कोईने संदेह थाय तो आचार्यदेव कहे छे के हे
भव्य! तुं मुंझा मा! पोतानी प्रज्ञाना दोषने कारणे अनादिथी विकारमां स्थिर होवा
छतां हवे भेदज्ञानवडे तेनाथी आत्माने पाछो वाळीने मोक्षमार्गमां स्थिर करी शकाय छे.
माटे अमे कहीए छीए के हे भव्य! तारी प्रज्ञाना गुणवडे एटले के भेदज्ञानना बळवडे
तारा आत्माने तुं विकारथी पाछो वाळ ने मोक्षमार्गमां स्थाप.
आचार्यदेव घणा घणा प्रकारे जीव–अजीवनुं भेदज्ञान समजावीने २८ मा
कळशमां कहे छे के अहा, आवुं स्पष्ट जीव–अजीवनुं भिन्नपणुं अमे बताव्युं, तो हवे
कया जीवने तत्क्षण ज भेदज्ञान न थाय? हवे तो जरूर भेदज्ञान थाय ज! माटे

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: कारतक : २५०० आत्मधर्म : ३१ :
हे भव्य! हवे आवा भेदज्ञान बळवडे तारा आत्माने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप
मोक्षपंथमां तुं परिणमाव.
निर्मळपर्यायमां आत्माने स्थाप–एम कहो, के आत्माना स्वभावमां पर्यायने
एकाग्र कर–एम कहो, बंनेनुं तात्पर्य एक ज छे; द्रव्य पर्यायनी अभेद अनुभूतिमां
‘आ पर्याय ने आ द्रव्य’ एवा विकल्पो नथी, भेद नथी. जे आवी अनुभूति करे तेणे
पोताना आत्माने मोक्षमार्गमां स्थाप्यो छे.
जुओ, अहीं “दर्शन–ज्ञान–चारित्रना परिणामने तुं आत्मा तरफ वाळ”–एम
कहेवाने बदले, “तारा आत्माने दर्शन–ज्ञान–चारित्रमां स्थाप”–एम कह्युं, एटले
रत्नत्रयनी मोक्षमार्गपर्यायरूपे तारा आत्माने परिणमावीने तेमां ज आत्माने स्थाप.
पहेलांं बीजी गाथामां, ‘दर्शन–ज्ञान–चारित्रमां जे स्थित छे ते स्वसमय छे’ एम कह्युं
तेनो ज आ उपदेश छे.
कोई कहे: पर्याय तो अस्थिर छे तेमां आत्माने स्थापवानुं केम कहो छो? तो कहे
छे के ज्यां द्रव्य–पर्यायना भेदनो विकल्प छोडीने अभेदअनुभूतिरूप थयो त्यां आत्मा
नवी–नवी सम्यक्त्वादि निर्मळपर्यायरूपे ज परिणम्या करे छे एटले ते आत्मा
मोक्षमार्गमां ज निश्चल रहे छे; तेथी तेणे मोक्षमार्ग पर्यायमां पोताना आत्माने निश्चल
स्थाप्यो छे.
हे भाई! तुं अत्यारसुधी परमां वळ्‌यो–हवे तुं स्वमां वळ! परमां पण तुं तारा
अपराधथी ज वळ्‌यो हतो, ने हवे स्वमां तुं तारा गुणथी ज (–भेदज्ञानना बळथी ज)
वळ.
“जे स्वरूप समज्या विना, पाम्यो दुःख अनंत”
–जुओ, आ स्वरूपनी अणसमजण ते बंधपंथ छे. अने–
“समजाव्युं ते पद नमुं श्री सद्गुरु भगवंत”
–गुरुउपदेशअनुसार पोते पोतानुं स्वरूप समज्यो ते मोक्षपंथ छे.
संसारमां रखड्यो ते पोताना दोषथी; दोष केटलो?–के परद्रव्यने पोतानुं मान्युं
तेटलो. स्व परना भेदज्ञानरूप प्रज्ञागुणवडे जीव पोते ज पोताने बंधमार्गथी पाछो
वाळीने मोक्षपंथमां स्थापे छे. अनादिथी बंधमार्गमां रह्यो होवा छतां

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: ३२ : आत्मधर्म : कारतक : २५००
तेनाथी जीव पाछो वळी शके छे, ने कदी नहि अनुभवेला एवा मोक्षमार्गमां पोताने
स्थापी शके छे. माटे हे भाई! एक वार तो जगतनो पाडोशी थईने अंतरमां आत्माने
देख! तने कोई अपूर्व आनंदनो अनुभव थशे.
हे भव्य! एकवार अंतरमां वळी जा....ने दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप स्वघरमां ज
तारा आत्माने वसाव! तारा आत्माने निरंतर रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गमां ज स्थाप.
बीजी बधी चिंताने दूर करीने तारा चिदानंदस्वरूपने एकने ज ध्येय बनावीने तेने ज
ध्याव. जगत आखाथी उदास थई जा ने एक आत्माना मोक्षमार्गमां ज उत्साहित
थईने तेमां ज आत्माने स्थाप. तेनुं ज ध्यान कर...तारा आत्माने स्वतंत्रपणे ज तुं
मोक्षमार्गमां स्थाप....बीजा कोईनो तेमां सहारो नथी. रागने एकमेक करीने तारा
आत्माने न ध्याव, पण सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप निर्मळपर्यायोमां एकमेक करीने
तारा आत्माने ध्याव. आ रीते निर्मळपर्यायनी साथे आत्माने अभेद करीने कह्युं छे.
अहा, आचार्यदेव कहे छे के हे भव्य! में मारा आत्माने तो मोक्षमार्गमां
परिणमाव्यो छे ने तुं पण तारा आत्माने मोक्षमार्गमां परिणमाव! पांचमी गाथामां
पण कह्युं हतुं के, हुं मारा समस्त निजवैभवथी–आत्मवैभवथी शुद्धआत्मानुं स्वरूप
दर्शावुं छुं अने तमे तमारा स्वानुभवप्रमाणथी जाणीने ते प्रमाण करजो.–सामा शिष्यनी
एटली लायकात जोईने आचार्यदेवे आ वात करी छे.
अहीं तो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रने ज स्वद्रव्य कह्युं छे, ने तेमां जे स्थिर छे
तेने ‘स्वसमय’ कह्यो छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते ज्ञानचेतना छे, ते ज्ञान–
चेतनारूप थईने तुं मोक्षमार्गने चेत, तेनो अनुभव कर...ने रागनो अनुभव न कर.
आत्माना स्वभावनो आश्रय करतां जे निर्मळपरिणाम थाय छे ते निर्मळ–परिणाममां
ज तुं विहर, परद्रव्याश्रित थता एवा रागादि परिणाममां तुं जरापण न विहर...आ ज
मोक्षनो पंथ छे. आ ज महावीरनो मार्ग छे.
आ रीते आचार्यदेवे भव्य जीवोने मोक्षमार्ग बतावीने तेनी प्रेरणा करी.
महावीरना भक्तो आवा मोक्षमार्गमां आवो.

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: कारतक : २५०० आत्मधर्म : ३३ :
जिनमार्गमां वीतराग–चारित्र कर्तव्य छे
ते न थई शके तो ते मार्गनी श्रद्धा जरूर राखजे;
रागने मोक्षमार्ग मानीश नहि, कुमार्गनी श्रद्धा करीश नहीं.
आसो वद त्रीजना रोज पू. बेनश्रीना मंगल सुहस्ते
परमागममंदिरमां दरवाजा मुकवाना मंगलप्रसंगे गुरुदेवनुं
प्रवचन परमागम–मंदिरमां थयुं हतुं; ते तथा आसो वद चोथना
मंगल दिवसनुं प्रवचन अहीं आप्युं छे. परमागम–मंदिरमां
प्रवचन करतां जैनदर्शनना अगाध महिमाने प्रसिद्ध करीने प्रमोद–
पूर्वक गुरुदेव कहे छे के–अहो, जैनदर्शन! अने तेमां पण
सम्यग्दर्शननो महिमा! एनी शी वात? ज्यां आत्मानो प्रेम थयो
त्यां आखा जगतना बधा पदार्थोमांथी एनो रस ऊडी जाय, ने
अंदर चैतन्यस्वरूपनो अतीन्द्रिय स्वाद आवे.
[अष्टप्राभृत–दर्शनप्राभृत गाथा २१–२२]
आ सम्यग्दर्शननी वात जैनदर्शनमां आचार्यदेवे प्रसिद्ध करी छे. तीर्थंकरदेवे
केवळज्ञान प्रगट कर्या पछी जे उपदेश कर्यो तेने अनुसरीने ज वीतराग संतोए उपदेश
कर्यो छे. तीर्थंकर भगवंतो मुनिदशामां केवळज्ञान थया पहेलांं उपदेश देता नथी, मौन ज
रहे छे; केवळज्ञान थया पछी ज समवसरणमां प्रभुनो उपदेश नीकळे छे. पोतानुं काम
पूरुं करीने पछी प्रभुनो उपदेश नीकळ्‌यो. ते उपदेशने अनुसरीने संतोए जे वाणी रची
ते आ समयसारादि परमागम छे. तेमां सम्यग्दर्शननो प्रधान उपदेश छे.
हे जीव! तुं शुद्धभावथी आवा सम्यक्त्वने धारण कर. विकल्पथी नहि, रागथी
नहि, पण अंतर्मुख थईने, रागथी पार, विकल्पथी पार ज्ञानभाववडे तारा आत्मानो
निर्णय कर. जेमां मननो, रागनो के ईन्द्रियनो संबंध नथी एवा आत्मानी सन्मुख थईने

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: ३४ : आत्मधर्म : कारतक : २५००
तुं शुद्धभावथी सम्यक्त्वने धारण कर. अहो, चैतन्यना अनंत गुणरूपी रत्नो, तेमां
सारभूत रत्नत्रय, तेमां पण सम्यग्दर्शन प्रथम मुख्य छे, ते मोक्षनुं प्रथम पगलुं छे.
शुभराग ते मोक्षनुं पगलुं नथी, सम्यग्दर्शन ते मोक्षनुं प्रथम सोपान छे. ए सम्यग्दर्शन
वगर शुभरागनी बधी क्रियाओ धारण करे तो पण तेमां कांई परमार्थ नथी. राग ते
कांई चैतन्यनो अंतरंगभाव नथी. सम्यग्दर्शन ते चैतन्यनो अंतरंगभाव छे. तेथी कहे
छे के–
मोक्ष महेलकी परथम सीडी, या विन ज्ञान–चरिता–
सम्यकता न लहे, सो दर्शन धारो भव्य पवित्रा.
ज्ञान के चारित्र ते सम्यग्दर्शन वगर साचां नथी, एटले ते मोक्षमार्गमां कांई
उपयोग नथी. सम्यग्दर्शन सहितनां ज्ञान ने चारित्र ते ज मोक्षमार्ग छे, ते ज कार्यकारी
छे, हे भाई! रागनी क्रियामां के शास्त्रना एकला जाणपणामां सम्यग्दर्शन नथी,
चैतन्यनी अनुभूतिथी ते बाह्य छे. तेनाथी पार अंतरंग चैतन्यनी अनुभूति करे तो ज
सम्यग्दर्शन थाय छे. सम्यग्दर्शन ते मोक्षमार्गनुं कर्णधार छे.
अहो, आवुं सम्यग्दर्शन करे ते जीव आराधक छे; भले चारित्र ओछुं होय,
त्याग ओछो होय, तोपण ते आराधक छे. हे जीव! जैनदर्शनमां केवळीप्रभुए मोक्ष–
मार्गमां जेवा सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र कह्यां छे तेवा ज ओळखीने तेनी श्रद्धा बराबर
करजे. तेमांथी अत्यारे ताराथी थाय एटलुं तो चारित्र पण करजे. करवा जेवी तो पूर्ण
वीतराग–चारित्रदशा छे. पण तेम न थई शके ने राग रही जाय, तो ते रागने धर्म न
मानीश, रागने मोक्षनो मार्ग न मानीश. वीतरागमार्गनी श्रद्धा छोडीने जो रागने धर्म
मानीश तो तने मिथ्यात्व थशे. वीतरागमार्गनी श्रद्धा राखीश तो तारुं सम्यग्दर्शन अने
आराधकपणुं टकी रहेशे.
अनंता तीर्थंकरोए साधेलो, ने समवसरणमां गणधरादिनी सभा वच्चे जाहेर
करेलो जे जैनमार्ग, तेमां गोटा वाळीश मा; मार्गने विपरीत मानीश मा. मूळ मार्गनी
श्रद्धा राखीने ताराथी थाय तेटलुं करजे, ने बीजानी भावना राखजे. निर्ग्रंथ मुनिपणुं
पोताथी न पळाय तो कांई वस्त्रसहित मुनिपणुं न मनाय. जो वस्त्रसहित मुनिपणुं
मानीश तो तीर्थंकरोनी विराधना थशे, ने वीतरागमार्गथी तुं भ्रष्ट थई जईश. बापु!
जैनमार्गमां रागनो सूक्ष्म कण पण न पालवे, एटले के रागनो कोई कण मोक्षमार्ग
तरीके न मनाय.

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: कारतक : २५०० आत्मधर्म : ३५ :
अरे जीव! चोराशीना अवतारनां दुःखोथी छूटवुं होय तो परम बहुमानपूर्वक तुं
जैनदर्शननी श्रद्धा राखजे, अने ताराथी थई शके तेटली वीतरागमार्गनी आराधना
करजे. न थई शके तो श्रद्धा राखजे पण बीजुं मानीश मा; मार्गने बगाडीश मा.
चारित्रदोष होय तेने चारित्रदोष तरीके जाणजे; पण ते दोषने मार्गमां खतवीश नहि.
मार्ग तो जेम छे तेम राखजे.
अहा, वीतरागी चैतन्यशांतिनुं वेदन सम्यग्दर्शनमां छे. ते शांतिमां कषायनो
(शुभरागनो पण) कण केम समाय? शुभराग पण जात तो कषायनी ज छे, ते कांई
चैतन्यनी शांतिनी जात नथी. समकिती पण पोतानी अवस्थामां जेटला रागादि भावो
छे तेने दोष तरीके जाणे छे. ज्ञानधारामां रागधाराने भेळवता नथी. जेटली ज्ञानधारा
छे तेने तो मोक्षमार्ग जाणे छे अने जेटली रागधारा छे तेने बंधमार्ग जाणे छे.
ज्ञानधारामां चैतन्यस्वादनुं वेदन छे; ते वेदन कांई रागधारामां नथी. रागधारामां तो
दुःखनुं वेदन छे. चैतन्यना स्वादनी मधुरता पासे जगतनो रस धर्मीने ऊडी गयो छे.
सम्यग्दर्शनमां आवो चैतन्यस्वाद छे. आवा सम्यग्दर्शनने हे जीव! तुं अत्यंत भक्तिथी
धारण कर. ते उपरांत सम्यक् चारित्रनुं पण जेटलुं पालन थई शके तेटलुं जरूर कर.
आवो उपदेश भगवान केवळी–जिनदेवना मार्गमां छे. अहो, आवो सुंदर मार्ग! तेने
पामीने हे जीव! तुं बीजा मिथ्यामार्ग सामे जोईश नहीं.
जिनवरदेवे कहेला मोक्षमार्गमां प्रथम कर्णधार तो सम्यग्दर्शन छे. चारित्रदशा–
मुनिपणुं ल्ये तेने ज सम्यग्दर्शन मानी शकाय–एम कांई नथी. मुनिदशानुं चारित्र न
होय तोपण सम्यग्दर्शन धर्मीने होय छे. हा, सम्यग्दर्शननी साथे सम्यग्दर्शनने योग्य
चारित्र (कुदेव–कुगुरु–कुधर्मनो त्याग, अभक्ष्य भक्षणनो त्याग वगेरे आचरण) जरूर
होय. पण सम्यग्दर्शन वगर सम्यक्चारित्रदशा तो कदी न होय. सम्यग्दर्शनसहित
सम्यक्चारित्रदशा पण होय तो–तो मोक्षमार्गमां ते खूब शोभी ऊठे छे, ते तो उत्तम छे.
पण कोईने तेवी चारित्रदशा न होय तो तेथी कांई तेना सम्यग्दर्शननी किंमत घटी न
जाय. सम्यग्दर्शन वडे पण तेनुं आराधकपणुं बराबर टकी रहेशे. माटे हे जीवो! तमे
भावथी आवा उत्तम सम्यग्दर्शनने धारण करो.
अहो, सम्यग्दर्शन आत्माना अपार महिमाने झीले छे; ते सम्यग्दर्शननी किंमत
बहारना कोई पदार्थवडे थई शके नहि. जे जीव बहारना पदार्थवडे के रागवडे
सम्यग्दर्शननी किंमत करवा मांगे छे तेणे सम्यक्त्वना अपार महिमानी खबर नथी. अरे,

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: ३६ : आत्मधर्म : कारतक : २५००
चैतन्यतत्त्व ज्यां प्रतीतमां आवी गयुं त्यां तेना अनंत गुणोमांथी शुद्धतानो प्रवाह
नीकळ्‌यो; स्वर्गना ईन्द्र पण ते सम्यक्त्वनी प्रशंसा करे छे. चारित्रदशावंत मुनिना
महिमानी तो शी वात! ए तो महा पूज्य छे. अने सम्यग्दर्शननो पण अमूल्य महिमा
छे; सम्यग्द्रष्टि असंयमी होय तोपण भगवाने तेने मोक्षमार्गमां स्वीकार्या छे.
सम्यग्द्रष्टिजीव कल्याणनी परंपरा सहित उत्तम मोक्षसुखने पामे छे.
जेने शुभराग अने संयोग करतां सम्यक्त्वनी किंमत ओछी लागे छे, ने
सम्यक्त्व करतां रागनी के संयोगनी किंमत जेने वधारे लागे छे ते जीव सम्यक्त्वनो
विराधक थईने संसारमां परिभ्रमण करे छे. जे जीव सम्यक्त्वनो आराधक छे तेने
आत्मा करतां जगतना कोई पदार्थनो महिमा लागतो नथी, आत्माना अपार–
अतीन्द्रिय महिमारूप सम्यग्दर्शनवडे ते परंपरा अक्षय सुखरूप मोक्षने पामे छे.
अहा, सम्यक्त्वना महिमानी आवी वात सांभळवानो अवसर मळवो पण बहु
मोंघो छे. आवुं श्रावककुळ अने वीतरागनी वाणीनुं श्रवण मळ्‌युं, तो आ उत्तम अवसर
पामीने आत्माना श्रद्धा–ज्ञान करी लेवा, ते ज आ उत्तम मनुष्यपणुं पामवानुं साचुं फळ छे.
सम्यक्त्व वगर आवा मनुष्य शरीर तो अनंतवार जीवने मळ्‌या, पण तेनाथी
आत्मानुं कांई हित न थयुं. शरीर तो क्षणभंगुर छे, करोडो रोगथी भरेलुं छे. क््यारे
रोगथी कू थईने ऊडी जशे! एनो कोई मेळ नथी. अंदर आत्मा तेनाथी भिन्न शुं चीज
छे–तेनी ओळखाण करे तो मनुष्यपणुं पामवानी सफळता छे.
‘शरीरं व्याधि–
मंदिरम्’ अने ‘आत्मा आनंदमंदिरम्’ छे. बापु, शरीर तो करोडो रोगनी व्याधिनुं
घर छे, तेमांथी तो रोग नीकळशे, तेमांथी कांई आनंद नहीं नीकळे; शांतिनुं–आनंदनुं
मंदिर तो आत्मा छे; तेने श्रद्धामां लेतां अपूर्व आनंद थाय छे. ते सम्यग्द्रष्टिजीव
आत्माना सुखरसने पीतो–पीतो मोक्षदशाने साधे छे.
अहा! अनंतकाळना दुःखनो अंत, अने अनंत–अनंत काळना
अतीन्द्रियसुखनी शरूआत–सम्यग्दर्शनमां छे; आवा सम्यग्दर्शनने माटे तो
आत्मानो केटलो रस होय! आत्मानी घणी लगनी ने घणो प्रयत्न होय,
त्यारे सम्यग्द्रर्शन थाय छे.
शुद्ध आत्मस्वभावनी सन्मुख थईने तेने कबुलतां सम्यग्दर्शन ने
सम्यग्ज्ञानरूपे आत्मा पोते परिणमे छे; एटले सम्यग्दर्शन ते आत्मा ज छे.
–आवा सम्यग्दर्शननो महिमा प्रसिद्ध करीने कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे के अहो
जीवो! तमे आवा सम्यग्दर्शननी आराधनावडे मनुष्यपणाने सफळ करो.
–जय महावीर

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: कारतक : २५०० आत्मधर्म : ३७ :
अमे जिनवरनां संतान: नवा बालसभ्योनां नाम
३०८१ A वीरेन्द्र बी. जैन कटक ३१०४ नितेषकुमार मनसुखलाल जैन बीलीमोरा
३०८१ B भरत बी. जैन कटक ३१०प अनुराधाबेन हसमुखलाल जैन शांताक्रुझ
३०८२ A जयश्रीबेन एस. जैन माणेकपुर ३१०६ मीलीन हसमुखलाल जैन शांताक्रुझ
३०८२ B सुरेश एस. जैन माणेकपुर ३१०७ कीरीट जगजीवन जैन राजकोट
३९८३ हरेश चंदुलाल जैन वढवाण ३१०८ नीलेश जगजीवन जैन राजकोट
३०८४ उषाबेन आर. जैन कोईम्बतुर ३१०९ नीतीन जगजीवन जैन राजकोट
३०८प भरत आर. जैन कोईम्बतुर ३११० जयेश जगजीवन जैन राजकोट
३०८६ भूपेन्द्र आर. जैन कोईम्बतुर ३१११ विपुल जगजीवन जैन राजकोट
३०८७ भारतीबेन पी. जैन मुंबई १र ३११र आशाकुमारी जगजीवन जैन राजकोट
३०८८ कीरीट चंपकलाल जैन अमदावाद ३११३ वंदनाकुमारी जगजीवन जैन राजकोट
३०८९ प्रविणाबेन चंपकलाल जैन अमदावाद ३११४ हीनाबेन हसमुखलाल जैन नागपुर
३०९० मीनाक्षीबेन चंपकलाल जैन अमदावाद ३११प जयेश हसमुखलाल जैन नागपुर
३०९१ ईन्दिराबेन मगनलाल जैन चोरीवाड ३११६ अजय हसमुखलाल जैन नागपुर
३०९र अरूणाबेन मगनलाल जैन चोरीवाड ३११७ समीर हसमुखलाल जैन मुंबई–६र
३०९३ चंद्रवदन अमृतलाल जैन चोरीवाड ३११८ राजेश गुणवंतराय जैन मुंबई–४
३०९४ सीमाबेन नानालाल जैन माटुंगा ३११९ परेश शांतिलाल जैन राजकोट
३०९प दिव्येश चंद्रकांत जैन वडोदरा ३१र० राजेश शांतिलाल जैन राजकोट
३०९६ सतीष मणीलाल जैन वींछीया ३१र१ अंजलीबेन शांतिलाल जैन राजकोट
३०९७ मुकेश वनमाली जैन ध्राफा ३१रर गीताबेन शांतिलाल जैन राजकोट
३०९८ चंद्रिकाबेन एम. जैन चोरीवाड ३१र३ चेतन चीमनलाल जैन सुरेन्द्रनगर
३०९९ बिन्दुबेन एम. जैन दिल्ही ३१र४ राजेश्रीबेन चीमनलाल जैन जामनगर
३१०० A राजेश एम. जैन दिल्ही ३१रप हर्षद अमृतलाल जैन भावनगर
३१०० B नीराबेन एम. जैन दिल्ही ३१र६ नरेन्द्र अमृतलाल जैन भावनगर
३१०१ विक्रम जयंतिलाल जैन जेतपुर ३१र७ मुकेश बी. जैन चोरीवाड
३१०र शांतबाळा मनसुखलाल जैन बीलीमोरा ३१र८ सुरेखाबेन बी. जैन चोरीवाड
३१०३ पिनलकुमारी मनसुखलाल जैन बीलीमोरा ३१र९ एमनबेन बी. जैन चोरीवाड