विरोधथी रहित छे, तेथी प्रमाणभूत छे. माटे मोक्षना अभिलाषी भव्यजीवोए आ
परमागमनो अभ्यास करवो जोईए.”
देव कहे छे के हे भाई! एवो विचार न कर. केमके अमृतना सो घडा पीवानुं जे फळ छे
ते फळ अमृतनो एक खोबो पीवामां पण प्राप्त थाय छे; तेम सर्वज्ञदेवनी परंपराथी
आवेल वीतराग–परमागमरूपी अमृत भले ओछुं होय तोपण तेना अभ्यासथी अपूर्व
आत्मकल्याणरूप मोक्षमार्गनी प्राप्ति थई शके छे.” माटे मोक्षार्थी जीवोए परमागमनो
अभ्यास जरूरी करवो.
छे ते जीव (सूत्र परोवेली सोयनी माफक) संसारमां खोवातो नथी, पण
संसारभ्रमणने छेदीने मोक्षदशाने पामे छे. भव पलटी जवा छतां ज्ञानधारा तूटया
वगर, ते अल्पकाळमां मोक्षने साधी लेशे.–एवो वीतरागी जिनसूत्रना सम्यग्ज्ञाननो
महिमा छे.
आत्मसत्ता प्रत्यक्ष अनुभवगोचर थाय छे. ते जीव संसारनी गतिमां रहेलो होवा छतां
संसारमां डुबतो नथी. चैतन्यतत्त्व अतीन्द्रिय छे, ईन्द्रियोथी अद्रश्य छे, छतां
जिनसूत्रना ज्ञानवडे तेनुं स्वरूप जाणीने स्वसंवेदनमां ते प्रत्यक्ष थाय छे. श्रुतज्ञाननी
ताकात कोई अद्भुत अपार छे. भावश्रुतज्ञान स्वसन्मुख थईने आत्माना स्वरूपने
वेदे छे, ते स्वसंवेदनमां सर्व आगमनो सार आवी जाय छे.
दिगंबर जैनआचार्योनी परंपराथी प्राप्त थाय छे. आवा जिनसूत्रने