Atmadharma magazine - Ank 361
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: २६ : आत्मधर्म : कारतक : २५००
परंपराथी आव्या होवाथी, प्रत्यक्ष तेमज अनुमानथी अविरूद्ध छे,–द्रष्ट–ईष्टना
विरोधथी रहित छे, तेथी प्रमाणभूत छे. माटे मोक्षना अभिलाषी भव्यजीवोए आ
परमागमनो अभ्यास करवो जोईए.”
“कोई कहे के–आ ग्रंथ तो अल्प छे (अर्थात् बार अंगनुं श्रुतज्ञान घटतुं घटतुं
घणुं अल्प रह्युं छे) तेथी मोक्षरूपी कार्यने उत्पन्न करवा ते असमर्थ छे!–तो आचार्य–
देव कहे छे के हे भाई! एवो विचार न कर. केमके अमृतना सो घडा पीवानुं जे फळ छे
ते फळ अमृतनो एक खोबो पीवामां पण प्राप्त थाय छे; तेम सर्वज्ञदेवनी परंपराथी
आवेल वीतराग–परमागमरूपी अमृत भले ओछुं होय तोपण तेना अभ्यासथी अपूर्व
आत्मकल्याणरूप मोक्षमार्गनी प्राप्ति थई शके छे.” माटे मोक्षार्थी जीवोए परमागमनो
अभ्यास जरूरी करवो.
जिनसूत्रना भावश्रुतनी अपार ताकात
अहो; जिनसूत्रमां कहेला भावश्रुतनुं जेने ज्ञान छे ते जीव भवसमुद्रमां डुबतो
नथी. चारगतिमां रहेलो जे कोई जीव आत्मानी पर्यायमां श्रुतज्ञानरूपी सूत्र परोवी ल्ये
छे ते जीव (सूत्र परोवेली सोयनी माफक) संसारमां खोवातो नथी, पण
संसारभ्रमणने छेदीने मोक्षदशाने पामे छे. भव पलटी जवा छतां ज्ञानधारा तूटया
वगर, ते अल्पकाळमां मोक्षने साधी लेशे.–एवो वीतरागी जिनसूत्रना सम्यग्ज्ञाननो
महिमा छे.
जिनसूत्र चैतन्यनो पूरो स्वभाव देखाडे छे. नवे तत्त्वोनुं ज्ञान करावीने तेमां
हेय–उपादेय शुं छे ते ओळखावे छे. तेने ओळखतां स्वसंवेदनवडे चैतन्यचमत्काररूप
आत्मसत्ता प्रत्यक्ष अनुभवगोचर थाय छे. ते जीव संसारनी गतिमां रहेलो होवा छतां
संसारमां डुबतो नथी. चैतन्यतत्त्व अतीन्द्रिय छे, ईन्द्रियोथी अद्रश्य छे, छतां
जिनसूत्रना ज्ञानवडे तेनुं स्वरूप जाणीने स्वसंवेदनमां ते प्रत्यक्ष थाय छे. श्रुतज्ञाननी
ताकात कोई अद्भुत अपार छे. भावश्रुतज्ञान स्वसन्मुख थईने आत्माना स्वरूपने
वेदे छे, ते स्वसंवेदनमां सर्व आगमनो सार आवी जाय छे.
साचुं ज्ञान करनार जीव सम्यग्द्रष्टि छे. अहो, भगवाने कहेलां आवां जिनसुत्र आजे
दिगंबर जैनआचार्योनी परंपराथी प्राप्त थाय छे. आवा जिनसूत्रने