आवी मुनिदशानी निरंतर भावना होय छे. अहो
मुनिदशानी शी वात! एमनी शुद्धता ने एमनुं सुख तो
सर्वार्थसिद्धना देव करतांय विशेष छे. ए तो परमेष्ठी पद छे,
अरिहंतो अने सिद्धोनी साथे नमस्कारमंत्रमां एमनुं नाम
आवे छे; सम्यग्द्रष्टि जीवो पण दासानुदासपणे परम
भक्तिथी एमना चरणोमां मस्तक झुकावे छे. वाह, ए
मुनिदशा! अरे, सम्यग्दर्शन पण अपूर्व दशा छे त्यां
मुनिदशानी तो शी वात! मुनिवरो तो आत्माना महा
आनंदना झूले झूली रह्या छे. अहो! ए तो संत–परमेश्वर छे,
परम गुरु छे, मोक्षना उग्रपणे साधक छे, सिद्धपदना
पाडोशी छे. सम्यग्द्रष्टि जीव आवा मुनिनो भक्त होय छे; ने
ते सम्यग्द्रष्टिनी दशा पण अलौकिक होय छे.