Atmadharma magazine - Ank 363
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration). Entry point of HTML version.

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आत्मधर्म
वर्ष ३१
सळंग अंक ३६३
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001 Jan 2005 First electronic version.

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प्रभुनो मोटो उपकार
मागशर वद आठमना प्रवचनमां भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव
प्रत्ये भक्तिभीनी अंजलिरूपे अत्यंत प्रमोदपूर्वक
पू. कानजीस्वामीए कह्युं के –
आजे (शास्त्रीय पोषवद आठमे)
कुंदकुंदस्वामीनी आचार्य पदवीनो मंगल दिवस छे. कुंदकुंद
भगवाने आ भरतक्षेत्र उपर घणो मोटो उपकार कर्यो
छे. तेमणे भगवान सीमंधर परमात्माना साक्षात् दर्शन
कर्या, अने अनुभवना निजवैभवपूर्वक समयसारादि
परमागमो रचीने जे अलौकिक अचिंत्य उपकार कर्यो छे,
–तेनी शी वात? जेने ते जातनो अनुभव थाय तेने
खबर पडे के आचार्यदेवे केवुं अलौकिक काम कर्युं छे!
बाकी उपरटपके एनां माप नीकळे तेम नथी. तेओ चार
संघना नायक हता; महावीर प्रभुना शासनने तेमणे
आ पंचमकाळमां टकावी राख्युं छे. अहो, एमनी आ
वाणी काने पडवी ते पण कोई महान भाग्य छे; ने
अंदर समजीने अनुभव करे........तेनी तो शी वात!
तंत्री : पुरुषोत्तमदास शिवलाल कामदार * संपादक : ब्र. हरिलाल जैन
वीर सं. २५०० पोष (लवाजम : चार रूपिया) वर्ष ३१ : अंक ३

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आप जाणो ज छो के सोनगढमां जे भव्य परमागम–मंदिर तैयार थयुं छे तेनुं
उद्घाटन, अने तेमां महावीरप्रभुनी प्रतिष्ठानो पंचकल्याणक महोत्सव (फागण सुद
पांचमथी तेरस) नजीकने नजीक आवी रह्यो छे. वीरप्रभु पधारवानी वाटलडी जोवाय छे.
आ उत्सव सोनगढना ज ईतिहासमां नहि परंतु सौराष्ट्रना ईतिहासमां अनेरो हशे.
आ उत्सव संबंधी कामकाजनी गोठवणी करवा, तेम ज प्रतिष्ठा–महोत्सव माटे १६
ईन्द्रोनी बोली (उछामणी) वगेरे कामकाज माटे एक महत्त्वनी मिटिंग पोषवद तेरस ता.
२१–१–७४ ने सोमवारे सोनगढमां राखवामां आवेल छे.
परमागम–मंदिरना अक्षरोमां रंग पूरवानुं काम झडपथी पूरुं थई गयुं छे.
शास्त्रोनी मूळगाथाओ सोनेरी करवामां आवी छे, तेनुं काम पण चाली रह्युं छे. तेनो
मंगल प्रारंभ पोषसुद पांचमे पू. गुरुदेवना सुहस्ते उल्लासभर्या वातावरण वच्चे थयो
हतो.
परमागम–मंदिरनुं चणतरकाम पण हवे पूर्णताना आरे पहोंची रह्युं छे.
जिनवाणीनी गंभीरताने शोभे एवो भव्य देखाव थयो छे. उत्सवनी अनेकविध
तैयारीओने लीधे सुवर्णनगरीनी जाणे के पुनर्रचना थई रही होय–एवुं वातावरण छे.
परमागम–मंदिरना उत्सव संबंधी हिसाबी कामकाज (चेक–ड्राफ वगेरे) “श्री
परमागम मंदिर प्रतिष्ठा महोत्सव–समिति” –ए नामथी करवुं.
(वधु माटे जुओ पानुं – २८)

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : १ :
* महावीरप्रभुना मोक्षगमननुं अढी हजारमुं वर्ष *
वार्षिक वीर सं. २५००
लवाजम पोष
चार रूपिया Jan. 1974
जे धर्मथी भगवान महावीर तर्या ते ज धर्मथी आ
आत्मा तरे छे; एटले महावीरनो जे धर्म छे ते ज आ जीवनो
धर्म छे. आथी महावीरना धर्मने ओळखतां आत्मानो धर्म
ओळखाय छे. कुन्दकुन्दस्वामीए प्रवचनसारनी ८० मी गाथामां
सम्यक्त्व–प्राप्ति माटे जे भाव कह्या छे ते अहीं लागु पाडीने
कहीए तो–
जे जाणतो महावीरने चेतनमयी शुद्ध भावथी,
ते जाणतो निजात्मने समक्ति ल्ये आनंदथी.
हवे महावीरनो धर्म एटले शुं? ते जाणवुं जोईए.
महावीर एक आत्मा छे; शुद्ध चैतन्यभाव ते तेनो धर्म छे.
आवा धर्मस्वरूपे महावीरने ओळखवाथी आत्मा चैतन्यस्वरूपे
ओळखाय छे; एटले चैतन्य अने रागनी भिन्नता अनुभवाय
छे. –आवो अनुभव ते महावीरनो धर्म छे...ते ज आ जीवनो
धर्म छे...अने ते ज जिनागमोनुं रहस्य छे.

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: र : आत्मधर्म : पोष : रप००
प्रभुना केवळज्ञान–दीवडामां, के साधकना श्रुतज्ञान–दीवडामां
राग नथी; बंने दीवडा वीतरागी चैतन्यतेजथी प्रकाशी रह्या छे.
निर्मोह थयेली पर्याय ज निर्मोह आत्माने जाणीने अनुभवे
छे; एटले धर्मीनी अनुभूतिमां द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणे शुद्ध
अनुभवाय छे; द्रव्य–गुण ने पर्याय एवा भेद पण तेमां नथी.
आवी अनुभूति ते साची महावीर–अंजलि छे.
* अनेकान्त–जीवन *
ज्ञानने अनेकान्तस्वरूपे अनुभवनार ज्ञानी जीव पोताना
स्वगुणना अस्तित्वथी जीवे छे. अने अज्ञानी, पोताना अस्तित्वने
परथी भिन्न नहि देखतो थको, परना ज अस्तित्वने देखीने
पोतानी नास्ति करतो थको, भावमरणथी पशु जेवो थई जाय छे.
–आ रीते अनेकान्त ते आत्मानुं जीवन छे.
* प्रभुनो सौथी मोटो उपकार *
पोताना ज्ञानस्वरूप अस्तित्वने जे नथी देखतो ते जीव
कोईने कोई प्रकारथी रागने के जडने आत्मा माने छे, एटले
तेनाथी भिन्न पोताना चेतनमय अस्तित्वनो ते लोप करे छे,
–तेनी श्रद्धा तेने रहेती नथी. एवा जीवोने स्वरूपनुं साचुं
अस्तित्व बतावीने भगवाने भावमरणथी उगार्या छे.
ज्ञानी तो चेतनस्वरूपे ज पोतानुं अस्तित्व देखे छे, एटले
रागादिने के शरीरादिने ज्ञानमां ज्ञेयपणे जाणवा छतां ते जराय
छेतरातो नथी, पोतानी चैतन्यवस्तुने ते रागथी ने जडथी जुदी ने
जुदी जीवंत राखे छे, चैतन्यवस्तुमां बीजाने जराय भेळवतो नथी.
–आवुं स्वरूप–जीवन भगवानना अनेकान्तशासनथी प्राप्त थयुं छे.
–ए ज प्रभुजीनो सौथी महान उपकार छे.

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : ३ :
रु महावीरनाथनो ईष्ट–उपदेश रु
सर्वजीव–हितकारी,
भगवान महावीरनुं अनेकान्तशासन
(अनेकान्तमां अनंत गंभीरता भरी छे)
जगतना जीव के अजीव समस्त पदार्थोमां पोतपोताना
अनेकधर्मो (अनंत धर्मो) रहेलां छे, तेना अनेकान्त स्वरूपने
वीरनाथनी वाणी प्रकाशे छे. ए रीते प्रत्येक पदार्थना स्वाधीन
अनंतस्वभावोने जाणतां, अने पोताना आत्मामां रहेला पोताना
ज्ञानादि अनंतस्वभावोने जाणतां, जीवने स्व–परनुं भेदज्ञान थाय
छे, तेने क्यांय मोह रहेतो नथी, ने ते पोताना निजस्वभावरूपे
परिणमे छे. निजस्वभावरूप परिणमन ते ज जीवनुं हित छे. ते ज
ईष्ट छे, ने एवा ईष्टनो उपदेश महावीरप्रभुना अनेकान्त–शासनमां
छे. अने ते शासन सर्वजीवोने हितकारी छे. भगवाने करेलो ईष्ट
उपदेश केवो सुंदर छे! ते वीरपुत्र गुरुकहाने आपणने समजाव्युं छे;
तेनो नमूनो अहीं आप्यो छे. वीरप्रभुना अढी हजारमा
निर्वाणोत्सवनी आ मंगल प्रसादी छे. (ब्र. ह. जैन)
द्वि–स्वभावी वस्तु (महावीर प्रभुनो ईष्ट उपदेश)
अनेकान्तमय आत्मवस्तुना प्रवचनमां गुरुदेवे कह्युं के–वस्तुमां एक सामान्य–
स्वभाव अने एक विशेषस्वभाव, एटले के एक द्रव्यस्वभाव, अने एक पर्यायस्वभाव,–
एम बे स्वभाव एकसाथे वर्ते छे. तेमां सामान्यरूप एवो द्रव्यस्वभाव ते पर्यायनुं कारण
नथी, पण विशेषरूप एवो पर्यायस्वभाव ते पर्यायनुं कारण छे. सामान्य द्रव्यस्वभाव
पोते जो पर्यायनुं कारण होय तो, ते सामान्य स्वभाव सदा एकरूप रहेनार होवाथी
पर्यायो पण सदा एकरूप ज थवी जोईए.–पण एम नथी. पर्यायो विविध थाय छे ने तेनुं
कारण आत्मानो पर्यायस्वभाव छे; ते–ते पर्यायरूपे थवानी

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: ४ : आत्मधर्म : पोष : रप००
योग्यतारूप पर्यायस्वभाव छे, ने एकरूप रहेवानी योग्यतारूप द्रव्यस्वभाव छे. आ
रीते द्रव्य अने पर्याय बंने स्वभावो आत्मामां एक साथे छे, तेने अनेकान्तस्वरूपे
जिनशासन प्रकाशे छे. आवो वस्तुस्वभाव जेनी द्रष्टिमां आव्यो ते जीव
भवचक्रमांथी बहार नीकळी गयो. –आ महावीर भगवाने आपेलो ईष्ट–उपदेश छे.
अनेकान्तस्वरूप आत्मानी प्रसिद्धि
ते ज सर्वे जिज्ञासुओने उपकारक छे.
निर्मळपर्यायथी जुदुं कोई चैतन्यतत्त्व नथी; लोक–अलोकनी जेम कांई द्रव्य
ने पर्याय जुदा नथी; बंनेना असंख्यप्रदेशो एक ज छे, कांई प्रदेशभेद नथी.
आत्माने द्रव्य अपेक्षाए ध्रुवता छे ने पर्यायअपेक्षाए आत्माने परिणमन छे, –ए
अपेक्षाए द्रव्य अने पर्याय वच्चे कथंचित् भेद होवा छतां, जेम बे आंगळी
एकबीजाथी प्रदेशभेदे जुदी छे तेम कांई द्रव्य अने पर्याय ए बे जुदा नथी. बापु!
निर्मळ पर्यायने छोडवा जईश तो ते पर्यायथी जुदी कोई (सर्वथा ध्रुव) आत्मवस्तु
तने प्राप्त नहि थाय. द्रव्य अने पर्याय बंने साथे अनुभवमां आवे छे, पण ते
अनुभूतिमां ‘आ द्रव्य, ने आ पर्याय’ एवा भेदने ते स्पर्शतो नथी; एटले
अनुभूतिमां भेदविकल्पनो निषेध (अभाव) छे, पण कांई अनुभूतिमां पर्यायनो
अभाव नथी. पर्याय तो अंतर्मुख एकाग्र थई छे, त्यारे तो आत्मा अनुभवमां
आव्यो छे. अहो, आचार्यदेवे दीवा जेवुं चोकखुं वस्तुस्वरूप खुल्लुं कर्युं छे.
हे जीव! तारी चैतन्यसत्तानी सीमा तारी पर्याय सुधी छे. तारी पर्यायथी
बहार, बीजी वस्तुमां तारी सत्ता नथी. पण तारी पर्याय कांई तारी सत्ताथी जुदी
नथी. तारा अनंतगुणनुं सत्त्व पर्यायमां निर्मळपणे उल्लसी रह्युं छे, ते तुं ज छो,
ते कांई ताराथी कोई बीजुं नथी. हा, एकली पर्याय जेटलो आखो आत्मा नथी पण
ध्रुवस्वभाव तेमज पर्यायस्वभाव एवा बंने स्वभावरूप आत्मतत्त्व अनुभवमां
आवे छे. पर्यायने एटले के चैतन्यपरिणतिने नहि स्वीकारनार जीव ध्रुवस्वभावने
पण स्वीकारी शकतो नथी. निर्मळपर्यायमां ध्रुवस्वभावनो स्वीकार, ने
ध्रुवस्वभावना स्वीकारमां निर्मळ चैतन्यपर्यायनो स्वीकार, एम अनेकांतना बळे
वस्तुना बंने स्वरूपनो स्वीकार एकसाथे ज थई जाय छे. ने एवी वस्तुने
अनुभवनारो जीव ज धर्मी छे, ते ज

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : ५ :
अनेकान्तवादी जैन छे. आवो अनेकान्तमार्ग ते ज भगवान महावीर प्रभुनो मार्ग
छे. अहो, अनेकान्तमां तो अनंत गंभीरता भरी छे.
आत्माने अनित्यपणुं होय? अनित्य–पर्याय आत्मामां होय! ए वात
सांभळीने एक वेदांती–बावाजी भडक्या, ने एम कही ऊठीने चालवा मांड्या के–
अनित्यनी वात अमारे सांभळवी नथी. अरे बापु! महावीर परमात्मानुं
अनेकान्तशासन द्रव्य–पर्यायरूप वस्तुस्वरूप बतावे छे; ते समजवुं अज्ञानीने कठण
पडे छे. जे वस्तु नित्य, ते ज वस्तु अनित्य! एम तेने आश्चर्य अने शंका थाय छे.
पण वस्तु पोते ज पोताने नित्य तेमज अनित्य एवा अनेकान्तस्वरूपे प्रकाशी रही
छे, ते समजनार ज्ञानी तो जाणे छे के अहो, पर्यायरूपे मारी अनित्यता छतां
द्रव्यपणे हुं नित्य टकतो छुं. मारुं नित्य ज्ञान ते अनित्यताथी व्याप्त होवा छतां, ते
मने उज्वळस्वरूपे अनुभवाय छे. अनित्यपणुं ते कांई ज्ञाननी उपाधि नथी पण
ज्ञाननुं सहजस्वरूप छे. नित्यपणुं ने अनित्यपणुं एवा बंने स्वभावधर्मो ज्ञानमां
एकसाथे उल्लसी रह्या छे. अहो, आवुं स्वरूप धर्मी पोताना अंतरमां अनुभवे छे.
ते कांई पोताने चैतन्यपरिणामथी जुदो नथी अनुभवतो, पण ध्रुव ने पर्याय एवा
बंने स्वभावोथी अभिन्न, एकाकार चैतन्यभावस्वरूप पोताने अनुभवे छे. आवा
अनुभवमां भगवान आत्मा सत्यस्वरूपे प्रसिद्ध थयो छे.
वीरनाथना मार्गमां तत्त्वोनी स्वतंत्रता
सम्यग्दर्शनादि भाव, अने रागादिभाव, साधकने एक काळे होय छे, एटले
ते बंने भावनो स्वकाळ एक छे, तो पछी रागादिने कारणे सम्यग्दर्शन थाय, के
सम्यग्दर्शनने कारणे रागादि थाय–ए वात रहेती नथी. बीजी रीते कहीए तो
सम्यग्दर्शनादि भाव ते निश्चय मोक्षमार्ग, अने तेनी साथेना रागादिने पण
मोक्षमार्गमां कहेवा ते व्यवहार;–ते निश्चय–व्यवहार एकबीजाना कारणे नथी,
बंनेनो स्वकाळ एक होवा छतां, एकना कारणे बीजानुं अस्तित्व नथी.–आम
स्वतंत्र तत्त्वोने जेम छे तेम जाणवा ते वीरनाथनो अनेकान्तमार्ग छे.
जैनमार्गमां बधाय निमित्तो धर्मास्तिकाय जेवा अकिंचित्कर छे.
जेम निश्चय अने व्यवहार बंने स्वतंत्र छे, तेम जैनमार्गमां उपादान अने

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: ६ : आत्मधर्म : पोष : रप००
निमित्त पण एक साथे एक काळे होवा छतां बंने स्वतंत्र पोतपोताना अस्तित्वमां
वर्ते छे; निमित्तनुं अस्तित्व उपादानना कारणे नथी, तेमज उपादाननुं अस्तित्व
निमित्तना कारणे नथी; बंनेना षट् कारको पोतपोतामां ज छे. जेम जीवनी गतिमां
निमित्त धर्मास्ति छे, छतां त्यां जीव अने धर्मास्ति बंने वस्तु भिन्न छे, बंनेना छ
कारको एकबीजाथी भिन्न छे; जीवने कारणे धर्मास्ति नथी, के धर्मास्तिने कारणे जीव
नथी. तेम धर्मास्तिकाय वत् जगतना जे कोई निमित्तो छे ते बधाय निमित्तो,
उपादानथी जुदा छे; उपादान अने निमित्त बंने पदार्थो पोतपोतामां स्वतंत्र काम
करे छे. एकने कारणे बीजानुं अस्तित्व नथी. वस्तुनुं आवुं स्वरूप जाणीने भेदज्ञान
थयुं ते महावीरप्रभुनो मार्ग छे, ते ज मोक्षनो पंथ छे.
अनेकान्तरूप वस्तुमां परनुं आलंबन नथी, स्वाधीनता छे.
वस्तु अनेकान्तस्वरूप छे एटले द्रव्य–पर्यायस्वरूप छे; आत्माना द्रव्य ने
पर्याय ते बंने चैतन्यलक्षणथी लक्षित छे. आवी वस्तुने अनुभवतां वीतरागी
आनंदनो अनुभव थाय छे. स्वभाव तरफ ढळेला जीवने खातरी थाय छे के मारा
स्वभावना अनुभवमां मने कोई रागनुं के निमित्तनुं अवलंबन नथी; तेनुं तो
अवलंबन छूटी गयुं छे. वस्तुनुं पोतानुं स्वरूप ज आवुं छे, ते कांई बीजा कोई वडे
थयेलुं नथी. द्रव्य अने पर्याय बंने पोताना स्वरूपथी ज वस्तुमां सत् छे, तेमां जेम
द्रव्य बीजाना कारणे नथी तेम पर्याय पण बीजाना कारणे नथी. आवुं वस्तुस्वरूप
नक्की करनार बीजा कोईना आलंबननी आशा राख्या वगर, स्वाधीनपणे पोताना
स्वभावमां परिणमे छे.
ज्ञान–लक्षणे शुं प्रसिद्ध कर्युं?
ज्यां लक्षण छे त्यां लक्ष्य जरूर छे ज.
ज्ञान अने आत्माने अभेद अनुभवतां सम्यग्दर्शन थाय छे, ने त्यारे खबर
पडे छे के ज्ञानलक्षणवडे लक्षित आवो अखंड आत्मा, अनंत धर्मोथी एकरूप छे.
ज्ञानना लक्ष्यमां क्यांय राग नथी आवतो; रागनुं लक्षण तो बंधन छे, रागनुं
लक्षण कांई ज्ञान नथी. ज्ञान लक्षण पोते राग वगरनुं छे, ते रागथी भिन्न
आत्माने लक्षित करीने तेनो अनुभव करावे छे.

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : ७ :
ज्ञान ज्यां शुद्धज्ञानपणे अनुभवमां आव्युं त्यां लक्ष्यरूप आखो
अनंतधर्मस्वरूप आत्मा पण अभेदपणे अनुभवमां आवे ज छे. ज्ञानलक्षण
पोताना लक्ष्यथी अभेद छे. ज्ञानलक्षणथी जुदुं बीजुं कोई लक्ष्य नथी. समजाववा
माटे लक्षण–लक्ष्यना भेद वच्चे आवी जाय छे पण भेद रहे त्यांसुधी लक्ष्यरूप
आत्मा अनुभवमां आवतो नथी; ने एवा अनुभव वगरनो अज्ञानी जीव
ज्ञानलक्षणने पण खरेखर ओळखतो नथी, ते तो कजात एवा रागादि भावोने
चैतन्यलक्षणमां भेळवी दे छे, एटले साचा लक्ष्य–लक्षणने ते जाणतो नथी. लक्षणने
साचुं जाणे तो लक्ष्य पण प्रसिद्ध थईने अनुभवमां आवी ज जाय. लक्षणथी तेनुं
लक्ष्य छूपुं रही शके नहि, जुदुं रही शके नहि. लक्षण पर्याय पोते अंतर्मुख लक्ष्यमां
अभेद थईने आत्माने अनुभवे छे. ते अनुभूतिमां ‘आ लक्ष्यने आ लक्षण’ एवा
भेदनो कोई विकल्प नथी; त्यां तो लक्ष्य–लक्षण बंने अभेदस्वरूपे एकाकार
अनुभवाय छे. आवो अनुभव ते सम्यग्दर्शन छे, तेमां भगवान आत्मा प्रसिद्ध
थयो छे.
रागथी विलक्षण एवुं ज्ञानलक्षण ज्यां पोते पोताना वेदनथी प्रसिद्ध थयुं–
अनुभवमां आव्युं त्यां भगवान आत्मा पण जरूर प्रसिद्ध थयो छे. ज्ञाननो
अनुभव होय ने आत्मानो अनुभव न होय एम बने नहि; नहितर तो ज्ञान अने
आत्मा जुदा ठरे! ज्ञान साथे आखोय आत्मा अविनाभूत छे, जुदो नथी.
ज्ञानलक्षणथी जे कांई लक्षित छे ते बधुंय ज्ञानना अनुभवमां समाई जाय
छे, कांई बाकी रहेतुं नथी.
अने ते ज्ञानना अनुभवमां ज्ञानथी विलक्षण (ज्ञानलक्षण वगरना) एवा
रागादि कोई भावो आवता नथी, ते तो ज्ञानना अनुभवथी बहार ज रहे छे.
ज्यां सुधी ज्ञान साथे रागनी–विकल्पनी जरापण भेळसेळ रहे त्यां सुधी
ज्ञानलक्षण ज्ञानपणे प्रसिद्ध थतुं नथी एटले आत्मा पण त्यां प्रसिद्ध थतो नथी.
आहा, लक्षण तो एवुं अपूर्व छे के व्यवहारना बधा राग–विकल्पोने छेदी–भेदीने,
ज्ञानथी जुदा पाडीने, ज्ञान साथे एकमेक एवा अनंतधर्मस्वरूपे पोते पोताने
अनुभवे छे. आवुं अंतर्मुख ज्ञान ते अनेकान्त छे, ते भगवान महावीरनो मार्ग छे.
मति–श्रुतज्ञानतत्त्व अंतर्मुख थईने आत्मारूप थई गया, रागरूप न रह्या,
एटले रागना बंधन वगरनो अबद्धस्वरूप आत्मा प्रगट अनुभवमां आव्यो,
आवा

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: ८ : आत्मधर्म : पोष : रप००
अनुभवमां समस्त जिनशासन समाई जाय छे; जिन भगवानना बधा उपदेशनो सार
आवो आत्मअनुभव करवो ते ज छे. ते अनुभवमां ज्ञानपर्याय शुद्ध आत्मा साथे
अभेद थई, ते उदयभावोथी जुदी पडी गई. ते अनुभवमां ज्ञान साथे अनंतधर्म सहित
आत्मा परिणमी रह्यो छे. आत्मानो कोई धर्म ज्ञानपरिणमनथी जुदो रही शकतो नथी,
अनंतधर्मो एक साथे तेमां आवी जाय छे, तेथी ते ज्ञान पोते स्वयमेव अनेकांतस्वरूपे
प्रकाशे छे; तेमां महावीरनुं कहेलुं आखुं जैनशासन आवी जाय छे. आवुं जैनशासन
समजीने महावीरप्रभुना मोक्षनो उत्सव उजववा जेवो छे.
जय महावीर
* * * * *
हीरले मढवा जेवी सोनेरी शक्तिओ
हवे आप वांचशो–वीरतीर्थंकरे बतावेली
आत्मशक्तिओ. आत्मशक्तिना वर्णनमां एवा गंभीर भावो
भर्या छे के जेम जेम ऊंडा ऊतरीने तेने खोलीए छीए
तेमतेम तेमां वधुने वधु गंभीरता देखाती जाय छे. एटले,
ए शक्तिना भावोने खोलतां, प्रवचनमां वारंवार अति
महिमा पूर्वक गुरुदेव कहे छे के अहो! आ शक्तिमां तो घणां
रहस्यो भर्या छे. आ शक्तिओ तो हीरले कोतरवा जेवी छे.
परमागम–मंदिरमां पण आ शक्तिना वर्णननो भाग
‘सोनेरी’ करवानी भावना गुरुदेवे व्यक्त करी छे. अरे,
सोनाथी ने हीरलाथी पण जेना महिमानुं माप न थाय एवो
अगाध महिमा आत्मानी एकेक शक्तिमां भर्यो छे, तेनुं माप
तो अनुभव द्वारा ज थई शके. गुरुदेव रोज परोढीये
ऊठतांवेंत आ चैतन्यशक्तिओनो जाप जपे छे–तेनां भावोनुं
ऊंडुं मनन करे छे, ने कोई कोई वार उल्लसता अपूर्व भावो
प्रवचनमां प्रगट करे छे. एवी शक्तिनां प्रवचननी प्रसादी
आप हवे वांचशो.

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : ९ :
वीर तीर्थंकरे बतावेली आत्मशक्ति
अनेकान्तस्वरूपे स्वयमेव प्रकाशतो अनंतधर्मस्वरूप ज्ञानमात्र आत्मा.
वाह! जिनवाणीनी अद्भुत शोभा! ते जिनवाणीनो अमने विरह नथी.
अहो, आ समयसार वगेरे परमागम छे ते
भगवाननी वाणी छे; आ समयसारना भाव जे
समज्यो तेने तीर्थंकरनी वाणीनो विरह नथी;
तीर्थंकरदेवे वाणीमां जे कह्युं तेनो सार आ
समयसारमां भर्यो छे. ने आवुं समयसार आ
परमागममंदिरमां कोतराई गयुं छे. वाह! जिनवाणी
जेमां वसे–एनी शोभानी शी वात! अने ए
जिनवाणीना साररूप शुद्धात्मा जेणे स्वसंवेदनवडे
पोताना आत्मामां कोतरी लीधो ते जीव न्याल थई
गयो. एवा जीवनी स्वानुभूतिमां केवी अद्भुत
आत्मशक्तिओ उल्लसे छे–तेनुं आ वर्णन छे.

ज्ञानमात्र भाव आत्मा ज्ञानक्रियारूपे परिणमे छे तेमां तेना अनंतधर्मोनुं
परिणमन भेगुं ज छे,–तेथी आत्माने ज्ञानमात्रपणुं कहेवा छतां तेमां अनेकांत
निर्बाधपणे प्रकाशे छे. ज्ञानमात्र भाव पोते अनंत धर्मस्वरूप छे, ते धर्मोनुं वर्णन अहीं
आचार्यदेव अद्भुत–अलौकिक रीते करवा मांगे छे; तेमां अनंतधर्मोमांथी अहीं ४७
शक्तिओ वर्णवी छे. तेमां सौथी पहेली ‘जीवत्वशक्ति’ छे.
चैतन्यजीवन जीववुं ते ज मोक्षना महोत्सवनी साची उजवणी छे
जीवत्त्वशक्तिथी आत्मा सदा जीवंत छे...कई रीते जीवे छे? चैतन्यप्राणथी सदा
जीवे छे. अन्नथी के शरीरथी ते नथी जीवतो, रागथी पण नथी जीवतो, ए बधा छूटी
जवा छतां चैतन्यप्राणथी जीव स्वयं जीवे छे; एवी जीवत्वशक्ति ज्ञानभावमां साथे ज
वर्ते छे.

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: १० : आत्मधर्म : पोष : रप००
आवुं चैतन्यजीवन महावीर भगवाने बताव्युं छे. भगवान पोते आवुं जीवन
जीवे छे, ने बीजाने तेवा जीवननो उपदेश दीधो छे. आवुं जीवन जीववुं ते ज महावीर
प्रभुना मोक्षनी साची उजवणी छे. महावीर प्रभुने अने तेमना उपदेशने ओळख्या
वगर एकली बहारनी धामधूमथी महावीर प्रभुनो साचो उत्सव उजवी शकातो नथी.
देहथी भिन्न–रागथी भिन्न चैतन्यप्राणरूप जीवन जीवो, अने बीजाने एवुं जीवन
जीववानुं समजावो,–ए महावीरनो संदेश छे; पण परजीवने आत्मा जीवाडी शके–एम
कांई महावीरनो उपदेश नथी.
चैतन्यशक्तिनी साधना ते महावीर प्रभुनो मार्ग. ते मार्गमां एटले के
चैतन्यशक्तिनी साधनामां वच्चे राग नथी. चैतन्यशक्तिना शुद्ध परिणमनमां राग
समाय नहीं. आत्मा ज तेने कह्यो के जे पोतानी अनंतशक्ति सहित ज्ञानमात्र भावपणे
परिणमी रह्यो छे, ते परिणमननी अस्तिमां रागादि परभावोनी नास्ति छे.
ज्ञानमात्र भावमां परिणमती अनंत शक्तिओ ते बधी शुद्ध छे, तेमां रागादि
अशुद्धता समाती नथी; रागादिभावो ज्ञानमात्र भावथी बहार छे. अहो, आवा
अनेकान्तनुं स्वरूप समजवुं ते तो कोई अपूर्व वात छे, ने ते ज महावीरनाथनो मार्ग
छे.
* साचुं आत्मजीवन *
परथी जीवे एवो पराधीन आत्मा नथी;
आत्मा तो स्वाधीन चैतन्यप्राणवडे जीवनारो छे.
ज्ञानस्वरूप आत्माना अनुभवनुं परिणमन थतां आत्मानुं जीवन
चैतन्यभावरूप प्राणवाळुं थयुं, चैतन्यभावे आत्मा जीवंत थयो, अनंतगुणनुं साचुं
जीवन पर्यायमां प्रगट्युं. आवुं चैतन्यजीवन ते धर्मीनुं आत्मजीवन छे. शरीरमां के
रागमां आत्मानुं जीवन नथी; चैतन्यभावमां ज आत्मानुं जीवन छे.
आवा चैतन्यजीवनना कारण–कार्य आत्मामां ज छे, तेने बहारनां कारण–कार्य
साथे कांई संबंध नथी. आत्मा एवो तुच्छ नथी के तेने जीववा माटे जडशरीरनी–
पैसानी–आयुकर्मनी के रागनी जरूर पडे; ते बधाय वगर एकलो पोताना
चैतन्यभावथी जीवे एवी आत्मानी जीवन–ताकात छे. आवा आत्माने ज्ञानमां लेतां
पर्याय पण एवुं आनंदमय–अतीन्द्रिय जीवन जीवनारी थई गई; तेमां क्यांय शरीर
साथे धन साथे राग साथे कर्म

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : ११ :
साथे एकता रही नहीं पण तेनाथी भिन्न चैतन्यभावरूप ते थई गई.–आवुं जीवन ते
धर्मीनुं जीवन छे. चोथा गुणस्थानवाळा धर्मात्माथी शरू करीने सिद्ध परमात्मा सुधी
बधाय जीवो आवुं जीवन जीवे छे.
–आवी जीवत्वशक्तिवाळो आत्मा ज्ञानलक्षणथी लक्षित छे.
जीवत्वशक्तिवाळा आत्मानो ज्यां स्वीकार छे त्यां साचुं जीवन छे.
ज्यां आवा आत्मानो स्वीकार नथी त्यां साचुं जीवन पण नथी.
* कारणस्वभावनो ज्यां स्वीकार छे त्यां सम्यक्त्वादि कार्य पण विद्यमान छे ज.
* ज्यां कारणस्वभावनो स्वीकार नथी त्यां कार्य पण होतुं नथी.
* कोई कहे के अमारामां कारण छे पण सम्यक्त्वादी कार्य हजी थयुं नथी,–तो तेणे
कारणनो पण साचो स्वीकार कर्यो नथी.
* जेने पर्यायमां सम्यक्त्वादि थयुं छे तेने कारण पण सदाय नीकट ज वर्ते छे, तेने
कारण जराय दूर नथी, कारणनो कदी विरह नथी.
ज्ञानमात्र आत्मभावमां कारण ने कार्य, शक्ति ने व्यक्ति, अस्ति ने नास्ति
वगेरे अनंत धर्मो एक साथे समाय छे.
परमात्माना घरे? पुत्रना अवतारथी समस्त गुण–परिवारने आनंद
ज्ञानलक्षणवडे आत्माने रागथी भिन्न करीने, ज्ञानभावना अनुभवरूप
परिणमन थयुं, त्यारे ते ज्ञानचेतनामां व्यापनारी आत्मानी अनंतशक्तिमांथी दरेक
शक्ति द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणेमां शुद्धपणे व्यापनारी छे.
राग कांई द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणेमां व्यापी शकतो नथी, ज्ञानादि
स्वभावगुणोमां ज द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणेमां तन्मय थईने रहेवानी शक्ति छे, ने एवी
शक्तिनुं परिणमन थतां रागादि भावो तेमांथी बहार रही जाय छे, ज्ञानपरिणमनमां
राग प्रवेश करी शकतो नथी, पण अनंतगुणनो निर्मळस्वाद तेमां समाई जाय छे. ते
ज्ञानक्रियामां तेना कर्ता–करण वगेरे छ कारको पण समाई जाय छे, ते छए कारको
ज्ञानमय छे, कोई कारक ज्ञानथी भिन्न के रागमय नथी. अहा, चैतन्यपरिणाम ते तो
परमात्मानो पुत्र छे; परमात्माना घरे शुद्धपर्यायरूपी पुत्र थतां तेनो समस्त गुण–
परिवार आनंदित थाय छे, समस्त गुणसमाजरूप कुटुंब–परिवारमां आनंद–आनंद
व्यापी जाय छे. द्रव्य–गुण–

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: १र : आत्मधर्म : पोष : रप००
पर्याय त्रणे असंख्य प्रदेशे सरखां छे, ते असंख्यप्रदेशमां सर्वत्र आनंद व्यापे छे, सर्वत्र
ज्ञान व्यापे छे,–एम अनंती शक्तिओ निर्मळपणे असंख्यप्रदेशी द्रव्य–गुण–पर्याय
त्रणेमां व्यापे छे. आवो आखो आत्मा धर्मीना अनुभवमां, श्रद्धामां, ज्ञानमां आव्यो
छे. अने ज्यारे आवो आत्मा ज्ञानमां आव्यो त्यारे ज महावीर प्रभुने ओळखीने
तेमने साचा नमस्कार थया. आ सिवाय जेमने आत्माना स्वरूपनी खबर नथी एवा
मिथ्यात्वी जीवो, हे महावीर प्रभो! आपने साचा नमस्कार नहि करी शके, तेओ
आपने नहि ओळखी शके.
अहो, चैतन्यनी अद्भुत सुंदरता!
अहा, चैतन्यनी अद्भुत सुंदरता! एनी शी वात? परमेश्वरनी जेटली सुंदरता
छे ते बधी सुंदरता आ चैतन्यमां पण भरी छे. एकवार एने अनुभवमां लीधी त्यां
आखा जगतमां एनाथी सुंदर बीजुं कांई भासतुं नथी. आवा सुंदर चैतन्यनिधान
जेणे पोतामां देख्या तेने जड निधाननुं स्वामीपणुं रहे ज नहि. एटले तेनी ममता घटी
ज जाय. चैतन्य पासे ज्यां रागनुंय स्वामीत्व नथी रहेतुं त्यां जड शरीर–पैसा वगेरेनी
तो वात ज शी?
धर्मीनी ज्ञानचेतना अनंतगुणना वैभवसहित प्रगटी छे.
ज्ञानशक्तिरूप गुण आत्मामां सदाय छे, पण ज्ञानचेतना सदाय नथी होती, ते
तो नवी प्रगटे छे,–ज्यारे ज्ञानादि अनंत शक्तिसंपन्न पोतानो अनुभव करीने ज्ञान
परिणम्युं त्यारे जीवने ज्ञानचेतना प्रगटी. ते ज्ञानचेतना अनंत गुणोनुं वेदन साथे
लईने प्रगटी छे.
–त्यार पहेलांं शुं ज्ञाननी पर्याय न हती?
–हती तो खरी, पण ते पर्याय मिथ्यात्वसहित अज्ञानरूप हती, रागथी भिन्न
चैतन्यस्वादनुं वेदन तेमां न हतुं तेथी तेने ज्ञानचेतना कहेता नथी. एकला परसन्मुखी
ईंद्रियज्ञानमां आत्मानी प्रसिद्धि नथी तेथी ते ईंद्रियज्ञानने आत्मानुं लक्षण पण
खरेखर कहेता नथी; ईंद्रियज्ञानवडे आत्मानुं ग्रहण थतुं नथी. अतीन्द्रिय थईने
आत्माने पकडनारुं ज्ञान, आत्माना अनंतधर्मोसहित परिणमी रह्युं छे.–आ रीते
आत्मानुं ज्ञान अनेकान्तस्वरूपे विलसी रह्युं छे.

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : १३ :
आत्मानी अनंतशक्ति छे, ते एकेक जुदी नथी वर्तती, पण एकेक शक्ति
बीजी अनंत शक्तिसहित वर्ते छे; क्षणिकपणुं ने नित्यपणुं बंने तेमां एकसाथे वर्ते
छे; छए कारक एकसाथे वर्ती रह्या छे.
आचार्यदेवे चखाडयो छे–चैतन्यसुखनो अपूर्व स्वाद
ज्ञानस्वरूपे परिणमतो आत्मा सुखस्वरूप पोते ज छे; सुख ज्ञानथी जुदुं
रहेतुं नथी. सुख सर्वगुणोमां व्यापक छे. धर्मीने आत्माना द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणेमां
सुखनी व्याप्ति छे. आत्माना अनंतगुणनो आनंद सुखशक्तिमां भर्यो छे. ज्यारे
ज्ञानउपयोग तेमां एकाकार थाय त्यारे जेनुं वर्णन वचनथी न थई शके एवो
अतीन्द्रिय निर्विकल्प आनंद थाय छे. आवा आनंदसहितनुं जीवन ते ज आत्मानुं
साचुं जीवन छे; ते सुखजीवनमां बीजा कोईनी अपेक्षा नथी.
सुखनो पर्वत आत्मा, तेमांथी आनंदनुं मधुरुं झरणुं झरे छे. ज्ञानपरिणमन
साथे सुख छे, ज्ञान साथे दुःख तन्मयपणे नथी. सुख ने दुःख बंनेनुं वेदन एक ज
पर्यायमां होवा छतां, तेमांथी सुखनुं वेदन तो ज्ञानधारा साथे तन्मय छे, ने दुःखनुं
वेदन ज्ञानधाराथी अतन्मय छे.–अहो, आवुं सूक्ष्मभावोनुं भेदज्ञान, ते जैनमार्गनी
अलौकिक चीज छे. एक समयमां सुख ने दुःख, बंनेना छ–छ कारको पोतपोतामां
जुदेजुदा वर्ते छे. दुःखना कारको सुखमां नथी, सुखनां कारको दुःखमां नथी. ज्ञानना
कारको रागमां नथी, रागना कारको ज्ञानमां नथी.–आवुं सूक्ष्म भेदज्ञान
अनेकान्तमार्ग सिवाय बीजे क््यांय नथी. आवो अनेकान्तमार्ग ते भगवान
महावीरनो मार्ग छे.
अहो, ज्ञानस्वरूप आत्माने वेदनमां लेतां आत्माना सुखनुं जे वेदन थयुं ते
सुखना एक अंश पासे पण आखा जगतनी बाह्यविभूतिनी कांई ज गणतरी
नथी. अहो, आ तो सर्वज्ञनो मार्ग! तेमां कहेलुं आत्मानुं स्वरूप जेणे श्रद्धा–
ज्ञानमां पचाव्युं ते जीव न्याल थई गयो, तेना जन्म–मरणनो अंत आवी गयो ने
मोक्षसुखनो नमूनो तेणे चाखी लीधो.
ज्ञान–सुख–प्रभुता वगेरे अनंतभावोथी भरेला निजस्वरूपनी रचना करे
एवा सामर्थ्यवाळुं आत्मवीर्य छे. ज्यारे आत्मा ज्ञानस्वरूपे परिणम्यो त्यारे तेमां

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: १४ : आत्मधर्म : पोष : रप००
अनंतगुणना शुद्ध कायनी रचना करवारूप वीर्यशक्ति पण भेगी ज छे. सम्यक्त्वादि
निजगुणनी रचना निजवीर्य शक्तिथी आत्मा पोते करे छे, तेमां वच्चे रागनी के बीजा
कोई निमित्तनी जरूर नथी. आवा आत्मानी प्रतीतवडे पंचपरमेष्ठी जेवुं सुख धर्मी
पोतामां अनुभवे छे. अरे, आवा चैतन्यतत्त्वना मंथनमां शांतिना तरंग पण कोई
जुदी जातना होय छे. एना अनुभवना आनंदनुं तो शुं कहेवुं?
* अनंत चैतन्यशक्तिओ कोतराई गई छे, –क््यां? *
आत्मानी आ बधी शक्ति आपणा (सोनगढना) परमागम–मंदिरमां
आरसना पाटियामां कोतराई गई छे...ने धर्मीना अंतरमां भावश्रुतज्ञानना पाटीयामां
ते कोतराई गई छे; अने हे जीव! तुं पण तारा अंतरमां भावश्रुतमां ते कोतरी ले! तो
तने तेनो अगाध महिमा समजाशे. अनंत शक्तिनुं मंदिर आ आत्मा पोते छे. तेनो
जेणे अनुभव कर्यो तेणे समस्त श्रुतज्ञान–परमागमनो सार आत्मामां टंकोत्कीर्ण करी
लीधो, अनंत शक्ति तेना आत्मामां कोतराई गई. अनंत शक्तिवडे तेणे पोताना
आत्माने शणगार्यो...शोभाव्यो...चैतन्यनी परम वीरता ने प्रभुता तेणे प्रगटावी.
असंख्यप्रदेशी आत्मभूमिमां महान आनंद पाके छे. ते आनंदनी रचना रागवडे
नथी थती, पण स्वरूपने रचनारी आत्मानी वीर्यशक्ति वडे ज तेनी रचना थाय छे.
ज्ञान–सुख–वीर्य बधी आत्मशक्तिओ एक साथे निर्मळभावपणे उल्लसे छे. आवो
स्वभाव प्रतीतमां आवतां ज अनंतगुणोमां निर्मळ परिणमन शरू थई जाय छे. ते
परिणमनमां राग न समाय. आवा शुद्ध गुणो ने पर्यायो ते बेमां ज्ञानस्वरूप आत्मा
रहेलो छे. धर्मीनी पर्यायमां चैतन्यना अनंत खजाना खुल्ली गया छे; अनंत शक्तिओ
तेनी पर्यायमां कोतराई गई छे. शब्दोथी लखवामां अनंत शक्तिओ न आवी शके,
अंतरना वेदनमां अनंतशक्तिनो स्वाद आवी जाय छे.
* प्रभुए बतावेली चैतन्यनी प्रभुता; एनी शोभानी शी वात! *
आत्मामां स्वाधीन–प्रभुता छे. वीरनाथनी वाणीए ते प्रभुता प्रकाशी छे; ने
धर्मीए पोतानी प्रभुताने विश्वासमां लीधी छे, पर्यायमां पण तेने प्रभुत्व भास्युं छे...
स्वसंवेदनमां आव्युं छे.
प्रवचनसारना परिशिष्टमां ४७ नयथी आत्माना शुद्ध–अशुद्ध बधा धर्मो

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : १५ :
बताव्या छे. अहीं समयसारना परिशिष्टमां ज्ञान साथेनी ४७ शक्तिना परिणमननुं
वर्णन छे–एमां अशुद्धता न आवे, एमां तो ज्ञान साथे वर्तती शुद्धता ज आवे.
चैतन्यत्व जाग्युं ने पोताना स्वभावरूप परिणम्युं तेमां अपार प्रभुता खीली नीकळी
छे...द्रव्यस्वभावमां प्रभुता तो बधा जीवोमां छे, अहीं तो ते प्रभुता पर्यायरूप परिणमी
तेनी वात छे. धर्मीनी पर्यायमां कर्मनी प्रभुता चालती नथी, धर्मीनो आत्मा पोते
प्रतापवंत स्वतंत्रतारूपी प्रभुता वडे शोभी रह्यो छे, तेनो प्रताप के तेनी शोभा कोईथी
हणी शकाय नहीं. अहा, चैतन्यप्रभुनी ताकातनी शी वात? एना प्रतापनी, एनी
शोभानी शी वात? चैतन्यनी प्रभुतामां राग–विकल्पो केवा? चैतन्यनी अखंड
शोभामां रागनुं कलंक केवुं? चैतन्यप्रभु स्वपर्यायमां स्वाधीनपणे शोभे छे, तेनी शोभा
माटे कोईनी पराधीनता नथी. स्वाधीनपणे शुद्धतारूपे पोते प्रभु थईने परिणमे छे. ते
परिणमनमां कर्म साथे संबंधनो अभाव छे. अहो, आवी प्रभुताना संस्कार आत्मामां
नाखतां एकवार तारी प्रभुता खीली नीकळशे. प्रभुत्वशक्ति जीवमां पारिणामिकभावे
त्रिकाळ छे–सहज स्वभावरूप छे. तेनो स्वीकार करनारने पर्यायमां तेनुं व्यक्त
परिणमन थवा मांडे छे एटले क्षायिकादिभावरूप प्रभुता प्रगटे छे. आम गुण–पर्यायनी
अलौकिक संधि छे. गुणनो स्वीकार करीने परिणमे, अने गुण जेवी शुद्ध पर्याय न थाय–
एम बने नहीं. स्वभावना भरोसे एनी पर्यायनुं वहाण तरवा मांड्युं. तेनुं चैतन्यतेज
खीलवा मांड्युं...तेना चैतन्य–तेजनी प्रभुता सामे कोई जोई शके नहि, तेना प्रतापने
कोई हणी शके नहीं.
बापु! तारा चैतन्यमहेलमां प्रवेश करतां ज तने तारी प्रभुताना कोई अलौकिक
निधान देखाशे...तारो चैतन्यदेव तने केवळज्ञानादि अनंतगुणनी अखूट लक्ष्मी देशे.
आवी प्रभुताना संस्कार पर्यायमां पाड, तो अनादिना कषायना संस्कार तारी
पर्यायमांथी छूटी जशे. तारी पर्यायमां प्रभुतानो मोटो दरियो अनंत गुणथी भरियो छे,
ते स्वाधीनपणे शोभे छे.
* आत्मशक्तिनी गंभीरता...ए तो स्वसंवेदनगोचर छे *
अहो, गंभीर आत्मशक्तिओ, तेना ऊंडाणनो पार विकल्प वडे पामी शकातो
नथी, पण ज्ञानना अंतर्मुख स्वसंवेदनमां बधी शक्तिनो स्वाद आवी जाय छे.
अहो, जे ज्ञानपर्याय विश्वने स्पर्श्या वगर विश्व जेमां जणाई जाय छे–एवी

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: १६ : आत्मधर्म : पोष : रप००
सर्वज्ञपरिणतिरूपे परिणमवाना स्वभाववाळो आत्मा छे. आवा आत्माने धर्मीजीवे
श्रद्धा–ज्ञानमां लीधो छे; परमात्माना घरमां ते प्रवेशी चुक्यो छे.–एना परमात्मस्वभाव
पासे रागनी ते शी किंमत छे? ‘सर्वज्ञस्वभाव’ मां रागनी सर्वथा नास्ति छे. एटले
आवो सर्वज्ञस्वभाव जेने पोताना अंतरमां बेठो ते जीव रागथी छूट्यो–भवथी छूट्यो,
मोक्ष तरफ चाल्यो...एनी परिणतिनो प्रवाह सर्वज्ञता तरफ चाल्यो.
अहा, अगाध चैतन्यताकातनी शी वात!
एक जीव सातहाथनो होय ने केवळज्ञान पामे;
एक जीव सवापांचसो धनुषनो होय ने केवळज्ञान पामे;
बंने जीवनुं केवळज्ञान–सामर्थ्य सरखुं ज छे. आवो केवळज्ञानस्वभाव ते
विकल्पनो विषय नथी, ए तो स्वसंवेदनज्ञाननो विषय छे.
* सोनेरी शक्तिओ * ज्ञानशक्तिमां केवळज्ञाननी कोतरणी *
अहा, ज्ञाननी ऊंडपनो कोई पार नथी. ए ज्ञानशक्तिमां आ केवळज्ञाननी
कोतरणी चाले छे. बहारमां परमागममंदिरना आरसमां आ आत्मशक्तिओ (सोनेरी
अक्षरे) कोतराई गई छे, ने अंदर ज्ञानीना ज्ञानमां अनंती आत्मशक्तिओ कोतराई
गई छे. शब्दोनी कोतरणीमां अनंत शक्ति न समाय, पण स्वसंवेदन ज्ञानना
अनुभवमां अनंत शक्तिनो स्वाद एकसाथे समाय छे.
ज्ञानलक्षणथी ज्यां अनंतधर्मस्वरूप आत्माने अनुभवमां लीधो त्यां धर्मीने
निजानंदनो विकास थवा मांड्यो, चैतन्यतत्त्व पोताना अनंतगुणनी निर्मळपर्यायमां
विकसवा मांड्युं, तेमां हवे संकोच नहि थाय. संकोच वगरनो विकास थाय एवो
आत्मानो स्वभाव होवाथी, आत्माना बधाय गुणोमां संकोच वगरनुं परिणमन थाय
छे.–आवुं परिणमन क््यारे थाय?–के ज्यारथी चैतन्यतत्त्वने प्रतीतमां लीधुं त्यारथी ज
आवुं परिणमन शरू थाय छे.
* केवळज्ञान कदी करमाय नहीं *
चैतन्यलक्ष्मीनो विकास प्रगट्यो ते फरीने कदी संकोचाय नहीं, केमके ते
स्वाभाविक विकास छे; बहारमां लक्ष्मी वगेरेनो तो विकास थाय ने पाछी हानि पण

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : १७ :
थई जाय; पुण्यभावो पण संकोच–विकास स्वभाववाळा छे, तेनो विकास देखाय ते
कांई सदा विकासरूप नथी रहेतो, अल्पकाळमां पाछो पलटो थई जाय छे. पण
आत्मानो जे विकास अंदरनी शक्तिमांथी प्रगट्यो ते कदी हानि के संकोच पामे
नहि. केवळज्ञानादि लक्ष्मी प्रगटी तेनो विकास अनंत–अनंतकाळ सुधी एवो ने
एवो ज रह्या करे छे, ते केवळज्ञान कदी करमातुं नथी.
आवा आत्माने जाणीने तेनुं जे सेवन करे तेने तो निजशक्तिनो विकास ज
थाय छे. जे आत्माने जाणे नहि, तेने सेवे नहि, तेने तेनो विकास क्यांथी थाय?
शुद्धआत्माने जे जाणे छे ते तेनुं सेवन करे ज छे, ने ते रागनुं सेवन छोडे ज छे,
एटले तेने शुद्धपर्यायरूप परिणमन थाय ज छे.–आवा जीवनी चैतन्यपरिणतिमां
जे शक्तिओ ऊल्लसे छे तेनुं आ वर्णन छे. सत् ‘छे’ तेनुं आ वर्णन छे.
* आत्माने प्रत्यक्ष करवानी मतिश्रुतज्ञाननी अचिंत्य ताकात *
‘आत्मा प्रत्यक्ष थाय ज नहीं केमके अतीन्द्रिय छे’–एम जे माने छे तेणे
आत्मानी स्वसंवेदन–प्रत्यक्षतारूप प्रकाशशक्तिने जाणी नथी; ते तो ईंद्रियोने ज
आत्मा माने छे, एटले ईंद्रियातीत ज्ञाननुं कार्य तेने विश्वासमां आवतुं नथी.
ईंद्रियज्ञानने ज आत्मा मानीने ते अतीन्द्रियआत्मानो अनादर करे छे.
आत्मा अतीन्द्रिय होवा छतां ते अतीन्द्रियने पण स्वसंवेदनवडे प्रत्यक्ष
करवानी मतिश्रुतज्ञानमां ताकात छे; ते ज्ञानमां ईंद्रियनुं अवलंबन स्वसंवेदन
वखते रहेतुं नथी. अरे जीव! भगवान सर्वज्ञपरमात्मा आ तने तारी मोक्षनी
विभूति देखाडे छे. ईंद्रियज्ञानथी ज काम करनारो तुं नथी, तारामां तो स्वयं पोते
पोताने स्वसंवेदनवडे प्रत्यक्ष करवानी ताकात छे. आत्माने स्वसंवेदनवडे प्रत्यक्ष
करवामां बीजा कोईनुं आलंबन रहेतुं नथी, प्रकाशशक्तिना बळे आत्मा पोते
पोताने प्रत्यक्ष करवानुं काम करे छे. शक्तिना स्वसंवेदनवडे आत्मप्रभु आनंदना
झुले झूले छे.
ईंद्रियोथी, निमित्तोथी, रागथी, ईंद्रियज्ञानथी भगवान आत्मा स्वसंवेदनमां
आवे एवो नथी. ज्ञानप्रकाशथी ज्यां स्वसंवेदन करीने आत्माने प्रत्यक्ष कर्यो–त्यां
ईंद्रियोनुं निमित्तोनुं रागनुं के ईंद्रियज्ञाननुं आलंबन रहेतुं नथी. द्रव्य–गुण–पर्याय
त्रणेमां प्रकाशशक्ति होवाथी ते प्रत्यक्ष थाय छे, एवो देखतो भगवान आत्मा छे.
आत्मा