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भगवाने आ भरतक्षेत्र उपर घणो मोटो उपकार कर्यो
कर्या, अने अनुभवना निजवैभवपूर्वक समयसारादि
परमागमो रचीने जे अलौकिक अचिंत्य उपकार कर्यो छे,
खबर पडे के आचार्यदेवे केवुं अलौकिक काम कर्युं छे!
संघना नायक हता; महावीर प्रभुना शासनने तेमणे
आ पंचमकाळमां टकावी राख्युं छे. अहो, एमनी आ
अंदर समजीने अनुभव करे........तेनी तो शी वात!
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पांचमथी तेरस) नजीकने नजीक आवी रह्यो छे. वीरप्रभु पधारवानी वाटलडी जोवाय छे.
आ उत्सव सोनगढना ज ईतिहासमां नहि परंतु सौराष्ट्रना ईतिहासमां अनेरो हशे.
२१–१–७४ ने सोमवारे सोनगढमां राखवामां आवेल छे.
हतो.
तैयारीओने लीधे सुवर्णनगरीनी जाणे के पुनर्रचना थई रही होय–एवुं वातावरण छे.
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धर्म छे. आथी महावीरना धर्मने ओळखतां आत्मानो धर्म
ओळखाय छे. कुन्दकुन्दस्वामीए प्रवचनसारनी ८० मी गाथामां
सम्यक्त्व–प्राप्ति माटे जे भाव कह्या छे ते अहीं लागु पाडीने
कहीए तो–
ते जाणतो निजात्मने समक्ति ल्ये आनंदथी.
आवा धर्मस्वरूपे महावीरने ओळखवाथी आत्मा चैतन्यस्वरूपे
ओळखाय छे; एटले चैतन्य अने रागनी भिन्नता अनुभवाय
छे. –आवो अनुभव ते महावीरनो धर्म छे...ते ज आ जीवनो
धर्म छे...अने ते ज जिनागमोनुं रहस्य छे.
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आवी अनुभूति ते साची महावीर–अंजलि छे.
परथी भिन्न नहि देखतो थको, परना ज अस्तित्वने देखीने
तेनाथी भिन्न पोताना चेतनमय अस्तित्वनो ते लोप करे छे,
अस्तित्व बतावीने भगवाने भावमरणथी उगार्या छे.
छेतरातो नथी, पोतानी चैतन्यवस्तुने ते रागथी ने जडथी जुदी ने
–आवुं स्वरूप–जीवन भगवानना अनेकान्तशासनथी प्राप्त थयुं छे.
–ए ज प्रभुजीनो सौथी महान उपकार छे.
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वीरनाथनी वाणी प्रकाशे छे. ए रीते प्रत्येक पदार्थना स्वाधीन
अनंतस्वभावोने जाणतां, अने पोताना आत्मामां रहेला पोताना
ज्ञानादि अनंतस्वभावोने जाणतां, जीवने स्व–परनुं भेदज्ञान थाय
छे, तेने क्यांय मोह रहेतो नथी, ने ते पोताना निजस्वभावरूपे
परिणमे छे. निजस्वभावरूप परिणमन ते ज जीवनुं हित छे. ते ज
ईष्ट छे, ने एवा ईष्टनो उपदेश महावीरप्रभुना अनेकान्त–शासनमां
छे. अने ते शासन सर्वजीवोने हितकारी छे. भगवाने करेलो ईष्ट
तेनो नमूनो अहीं आप्यो छे. वीरप्रभुना अढी हजारमा
निर्वाणोत्सवनी आ मंगल प्रसादी छे. (ब्र. ह. जैन)
एम बे स्वभाव एकसाथे वर्ते छे. तेमां सामान्यरूप एवो द्रव्यस्वभाव ते पर्यायनुं कारण
नथी, पण विशेषरूप एवो पर्यायस्वभाव ते पर्यायनुं कारण छे. सामान्य द्रव्यस्वभाव
पर्यायो पण सदा एकरूप ज थवी जोईए.–पण एम नथी. पर्यायो विविध थाय छे ने तेनुं
कारण आत्मानो पर्यायस्वभाव छे; ते–ते पर्यायरूपे थवानी
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रीते द्रव्य अने पर्याय बंने स्वभावो आत्मामां एक साथे छे, तेने अनेकान्तस्वरूपे
जिनशासन प्रकाशे छे. आवो वस्तुस्वभाव जेनी द्रष्टिमां आव्यो ते जीव
भवचक्रमांथी बहार नीकळी गयो. –आ महावीर भगवाने आपेलो ईष्ट–उपदेश छे.
आत्माने द्रव्य अपेक्षाए ध्रुवता छे ने पर्यायअपेक्षाए आत्माने परिणमन छे, –ए
अपेक्षाए द्रव्य अने पर्याय वच्चे कथंचित् भेद होवा छतां, जेम बे आंगळी
एकबीजाथी प्रदेशभेदे जुदी छे तेम कांई द्रव्य अने पर्याय ए बे जुदा नथी. बापु!
निर्मळ पर्यायने छोडवा जईश तो ते पर्यायथी जुदी कोई (सर्वथा ध्रुव) आत्मवस्तु
तने प्राप्त नहि थाय. द्रव्य अने पर्याय बंने साथे अनुभवमां आवे छे, पण ते
अनुभूतिमां ‘आ द्रव्य, ने आ पर्याय’ एवा भेदने ते स्पर्शतो नथी; एटले
अनुभूतिमां भेदविकल्पनो निषेध (अभाव) छे, पण कांई अनुभूतिमां पर्यायनो
अभाव नथी. पर्याय तो अंतर्मुख एकाग्र थई छे, त्यारे तो आत्मा अनुभवमां
आव्यो छे. अहो, आचार्यदेवे दीवा जेवुं चोकखुं वस्तुस्वरूप खुल्लुं कर्युं छे.
नथी. तारा अनंतगुणनुं सत्त्व पर्यायमां निर्मळपणे उल्लसी रह्युं छे, ते तुं ज छो,
ते कांई ताराथी कोई बीजुं नथी. हा, एकली पर्याय जेटलो आखो आत्मा नथी पण
ध्रुवस्वभाव तेमज पर्यायस्वभाव एवा बंने स्वभावरूप आत्मतत्त्व अनुभवमां
आवे छे. पर्यायने एटले के चैतन्यपरिणतिने नहि स्वीकारनार जीव ध्रुवस्वभावने
पण स्वीकारी शकतो नथी. निर्मळपर्यायमां ध्रुवस्वभावनो स्वीकार, ने
ध्रुवस्वभावना स्वीकारमां निर्मळ चैतन्यपर्यायनो स्वीकार, एम अनेकांतना बळे
वस्तुना बंने स्वरूपनो स्वीकार एकसाथे ज थई जाय छे. ने एवी वस्तुने
अनुभवनारो जीव ज धर्मी छे, ते ज
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अनेकान्तवादी जैन छे. आवो अनेकान्तमार्ग ते ज भगवान महावीर प्रभुनो मार्ग
छे. अहो, अनेकान्तमां तो अनंत गंभीरता भरी छे.
अनित्यनी वात अमारे सांभळवी नथी. अरे बापु! महावीर परमात्मानुं
अनेकान्तशासन द्रव्य–पर्यायरूप वस्तुस्वरूप बतावे छे; ते समजवुं अज्ञानीने कठण
पडे छे. जे वस्तु नित्य, ते ज वस्तु अनित्य! एम तेने आश्चर्य अने शंका थाय छे.
पण वस्तु पोते ज पोताने नित्य तेमज अनित्य एवा अनेकान्तस्वरूपे प्रकाशी रही
छे, ते समजनार ज्ञानी तो जाणे छे के अहो, पर्यायरूपे मारी अनित्यता छतां
द्रव्यपणे हुं नित्य टकतो छुं. मारुं नित्य ज्ञान ते अनित्यताथी व्याप्त होवा छतां, ते
मने उज्वळस्वरूपे अनुभवाय छे. अनित्यपणुं ते कांई ज्ञाननी उपाधि नथी पण
ज्ञाननुं सहजस्वरूप छे. नित्यपणुं ने अनित्यपणुं एवा बंने स्वभावधर्मो ज्ञानमां
एकसाथे उल्लसी रह्या छे. अहो, आवुं स्वरूप धर्मी पोताना अंतरमां अनुभवे छे.
ते कांई पोताने चैतन्यपरिणामथी जुदो नथी अनुभवतो, पण ध्रुव ने पर्याय एवा
बंने स्वभावोथी अभिन्न, एकाकार चैतन्यभावस्वरूप पोताने अनुभवे छे. आवा
अनुभवमां भगवान आत्मा सत्यस्वरूपे प्रसिद्ध थयो छे.
सम्यग्दर्शनने कारणे रागादि थाय–ए वात रहेती नथी. बीजी रीते कहीए तो
सम्यग्दर्शनादि भाव ते निश्चय मोक्षमार्ग, अने तेनी साथेना रागादिने पण
मोक्षमार्गमां कहेवा ते व्यवहार;–ते निश्चय–व्यवहार एकबीजाना कारणे नथी,
बंनेनो स्वकाळ एक होवा छतां, एकना कारणे बीजानुं अस्तित्व नथी.–आम
स्वतंत्र तत्त्वोने जेम छे तेम जाणवा ते वीरनाथनो अनेकान्तमार्ग छे.
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वर्ते छे; निमित्तनुं अस्तित्व उपादानना कारणे नथी, तेमज उपादाननुं अस्तित्व
निमित्तना कारणे नथी; बंनेना षट् कारको पोतपोतामां ज छे. जेम जीवनी गतिमां
निमित्त धर्मास्ति छे, छतां त्यां जीव अने धर्मास्ति बंने वस्तु भिन्न छे, बंनेना छ
कारको एकबीजाथी भिन्न छे; जीवने कारणे धर्मास्ति नथी, के धर्मास्तिने कारणे जीव
नथी. तेम धर्मास्तिकाय वत् जगतना जे कोई निमित्तो छे ते बधाय निमित्तो,
उपादानथी जुदा छे; उपादान अने निमित्त बंने पदार्थो पोतपोतामां स्वतंत्र काम
करे छे. एकने कारणे बीजानुं अस्तित्व नथी. वस्तुनुं आवुं स्वरूप जाणीने भेदज्ञान
थयुं ते महावीरप्रभुनो मार्ग छे, ते ज मोक्षनो पंथ छे.
आनंदनो अनुभव थाय छे. स्वभाव तरफ ढळेला जीवने खातरी थाय छे के मारा
स्वभावना अनुभवमां मने कोई रागनुं के निमित्तनुं अवलंबन नथी; तेनुं तो
अवलंबन छूटी गयुं छे. वस्तुनुं पोतानुं स्वरूप ज आवुं छे, ते कांई बीजा कोई वडे
थयेलुं नथी. द्रव्य अने पर्याय बंने पोताना स्वरूपथी ज वस्तुमां सत् छे, तेमां जेम
द्रव्य बीजाना कारणे नथी तेम पर्याय पण बीजाना कारणे नथी. आवुं वस्तुस्वरूप
नक्की करनार बीजा कोईना आलंबननी आशा राख्या वगर, स्वाधीनपणे पोताना
स्वभावमां परिणमे छे.
ज्ञानना लक्ष्यमां क्यांय राग नथी आवतो; रागनुं लक्षण तो बंधन छे, रागनुं
लक्षण कांई ज्ञान नथी. ज्ञान लक्षण पोते राग वगरनुं छे, ते रागथी भिन्न
आत्माने लक्षित करीने तेनो अनुभव करावे छे.
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पोताना लक्ष्यथी अभेद छे. ज्ञानलक्षणथी जुदुं बीजुं कोई लक्ष्य नथी. समजाववा
माटे लक्षण–लक्ष्यना भेद वच्चे आवी जाय छे पण भेद रहे त्यांसुधी लक्ष्यरूप
ज्ञानलक्षणने पण खरेखर ओळखतो नथी, ते तो कजात एवा रागादि भावोने
चैतन्यलक्षणमां भेळवी दे छे, एटले साचा लक्ष्य–लक्षणने ते जाणतो नथी. लक्षणने
साचुं जाणे तो लक्ष्य पण प्रसिद्ध थईने अनुभवमां आवी ज जाय. लक्षणथी तेनुं
लक्ष्य छूपुं रही शके नहि, जुदुं रही शके नहि. लक्षण पर्याय पोते अंतर्मुख लक्ष्यमां
अभेद थईने आत्माने अनुभवे छे. ते अनुभूतिमां ‘आ लक्ष्यने आ लक्षण’ एवा
भेदनो कोई विकल्प नथी; त्यां तो लक्ष्य–लक्षण बंने अभेदस्वरूपे एकाकार
अनुभवाय छे. आवो अनुभव ते सम्यग्दर्शन छे, तेमां भगवान आत्मा प्रसिद्ध
थयो छे.
अनुभव होय ने आत्मानो अनुभव न होय एम बने नहि; नहितर तो ज्ञान अने
आत्मा जुदा ठरे! ज्ञान साथे आखोय आत्मा अविनाभूत छे, जुदो नथी.
आहा, लक्षण तो एवुं अपूर्व छे के व्यवहारना बधा राग–विकल्पोने छेदी–भेदीने,
ज्ञानथी जुदा पाडीने, ज्ञान साथे एकमेक एवा अनंतधर्मस्वरूपे पोते पोताने
अनुभवे छे. आवुं अंतर्मुख ज्ञान ते अनेकान्त छे, ते भगवान महावीरनो मार्ग छे.
आवा
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आवो आत्मअनुभव करवो ते ज छे. ते अनुभवमां ज्ञानपर्याय शुद्ध आत्मा साथे
अभेद थई, ते उदयभावोथी जुदी पडी गई. ते अनुभवमां ज्ञान साथे अनंतधर्म सहित
आत्मा परिणमी रह्यो छे. आत्मानो कोई धर्म ज्ञानपरिणमनथी जुदो रही शकतो नथी,
प्रकाशे छे; तेमां महावीरनुं कहेलुं आखुं जैनशासन आवी जाय छे. आवुं जैनशासन
समजीने महावीरप्रभुना मोक्षनो उत्सव उजववा जेवो छे.
तेमतेम तेमां वधुने वधु गंभीरता देखाती जाय छे. एटले,
महिमा पूर्वक गुरुदेव कहे छे के अहो! आ शक्तिमां तो घणां
रहस्यो भर्या छे. आ शक्तिओ तो हीरले कोतरवा जेवी छे.
‘सोनेरी’ करवानी भावना गुरुदेवे व्यक्त करी छे. अरे,
अगाध महिमा आत्मानी एकेक शक्तिमां भर्यो छे, तेनुं माप
ऊठतांवेंत आ चैतन्यशक्तिओनो जाप जपे छे–तेनां भावोनुं
ऊंडुं मनन करे छे, ने कोई कोई वार उल्लसता अपूर्व भावो
आप हवे वांचशो.
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समज्यो तेने तीर्थंकरनी वाणीनो विरह नथी;
तीर्थंकरदेवे वाणीमां जे कह्युं तेनो सार आ
परमागममंदिरमां कोतराई गयुं छे. वाह! जिनवाणी
जेमां वसे–एनी शोभानी शी वात! अने ए
जिनवाणीना साररूप शुद्धात्मा जेणे स्वसंवेदनवडे
पोताना आत्मामां कोतरी लीधो ते जीव न्याल थई
गयो. एवा जीवनी स्वानुभूतिमां केवी अद्भुत
आत्मशक्तिओ उल्लसे छे–तेनुं आ वर्णन छे.
ज्ञानमात्र भाव आत्मा ज्ञानक्रियारूपे परिणमे छे तेमां तेना अनंतधर्मोनुं
निर्बाधपणे प्रकाशे छे. ज्ञानमात्र भाव पोते अनंत धर्मस्वरूप छे, ते धर्मोनुं वर्णन अहीं
आचार्यदेव अद्भुत–अलौकिक रीते करवा मांगे छे; तेमां अनंतधर्मोमांथी अहीं ४७
शक्तिओ वर्णवी छे. तेमां सौथी पहेली ‘जीवत्वशक्ति’ छे.
जवा छतां चैतन्यप्राणथी जीव स्वयं जीवे छे; एवी जीवत्वशक्ति ज्ञानभावमां साथे ज
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प्रभुना मोक्षनी साची उजवणी छे. महावीर प्रभुने अने तेमना उपदेशने ओळख्या
वगर एकली बहारनी धामधूमथी महावीर प्रभुनो साचो उत्सव उजवी शकातो नथी.
देहथी भिन्न–रागथी भिन्न चैतन्यप्राणरूप जीवन जीवो, अने बीजाने एवुं जीवन
जीववानुं समजावो,–ए महावीरनो संदेश छे; पण परजीवने आत्मा जीवाडी शके–एम
कांई महावीरनो उपदेश नथी.
समाय नहीं. आत्मा ज तेने कह्यो के जे पोतानी अनंतशक्ति सहित ज्ञानमात्र भावपणे
परिणमी रह्यो छे, ते परिणमननी अस्तिमां रागादि परभावोनी नास्ति छे.
अनेकान्तनुं स्वरूप समजवुं ते तो कोई अपूर्व वात छे, ने ते ज महावीरनाथनो मार्ग
छे.
जीवन पर्यायमां प्रगट्युं. आवुं चैतन्यजीवन ते धर्मीनुं आत्मजीवन छे. शरीरमां के
रागमां आत्मानुं जीवन नथी; चैतन्यभावमां ज आत्मानुं जीवन छे.
पैसानी–आयुकर्मनी के रागनी जरूर पडे; ते बधाय वगर एकलो पोताना
चैतन्यभावथी जीवे एवी आत्मानी जीवन–ताकात छे. आवा आत्माने ज्ञानमां लेतां
पर्याय पण एवुं आनंदमय–अतीन्द्रिय जीवन जीवनारी थई गई; तेमां क्यांय शरीर
साथे धन साथे राग साथे कर्म
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साथे एकता रही नहीं पण तेनाथी भिन्न चैतन्यभावरूप ते थई गई.–आवुं जीवन ते
जीवत्वशक्तिवाळा आत्मानो ज्यां स्वीकार छे त्यां साचुं जीवन छे.
ज्यां आवा आत्मानो स्वीकार नथी त्यां साचुं जीवन पण नथी.
ज्ञानमात्र आत्मभावमां कारण ने कार्य, शक्ति ने व्यक्ति, अस्ति ने नास्ति
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ज्ञान व्यापे छे,–एम अनंती शक्तिओ निर्मळपणे असंख्यप्रदेशी द्रव्य–गुण–पर्याय
त्रणेमां व्यापे छे. आवो आखो आत्मा धर्मीना अनुभवमां, श्रद्धामां, ज्ञानमां आव्यो
छे. अने ज्यारे आवो आत्मा ज्ञानमां आव्यो त्यारे ज महावीर प्रभुने ओळखीने
तेमने साचा नमस्कार थया. आ सिवाय जेमने आत्माना स्वरूपनी खबर नथी एवा
मिथ्यात्वी जीवो, हे महावीर प्रभो! आपने साचा नमस्कार नहि करी शके, तेओ
आपने नहि ओळखी शके.
आखा जगतमां एनाथी सुंदर बीजुं कांई भासतुं नथी. आवा सुंदर चैतन्यनिधान
जेणे पोतामां देख्या तेने जड निधाननुं स्वामीपणुं रहे ज नहि. एटले तेनी ममता घटी
ज जाय. चैतन्य पासे ज्यां रागनुंय स्वामीत्व नथी रहेतुं त्यां जड शरीर–पैसा वगेरेनी
तो वात ज शी?
परिणम्युं त्यारे जीवने ज्ञानचेतना प्रगटी. ते ज्ञानचेतना अनंत गुणोनुं वेदन साथे
लईने प्रगटी छे.
–हती तो खरी, पण ते पर्याय मिथ्यात्वसहित अज्ञानरूप हती, रागथी भिन्न
ईंद्रियज्ञानमां आत्मानी प्रसिद्धि नथी तेथी ते ईंद्रियज्ञानने आत्मानुं लक्षण पण
खरेखर कहेता नथी; ईंद्रियज्ञानवडे आत्मानुं ग्रहण थतुं नथी. अतीन्द्रिय थईने
आत्माने पकडनारुं ज्ञान, आत्माना अनंतधर्मोसहित परिणमी रह्युं छे.–आ रीते
आत्मानुं ज्ञान अनेकान्तस्वरूपे विलसी रह्युं छे.
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छे; छए कारक एकसाथे वर्ती रह्या छे.
सुखनी व्याप्ति छे. आत्माना अनंतगुणनो आनंद सुखशक्तिमां भर्यो छे. ज्यारे
ज्ञानउपयोग तेमां एकाकार थाय त्यारे जेनुं वर्णन वचनथी न थई शके एवो
अतीन्द्रिय निर्विकल्प आनंद थाय छे. आवा आनंदसहितनुं जीवन ते ज आत्मानुं
साचुं जीवन छे; ते सुखजीवनमां बीजा कोईनी अपेक्षा नथी.
पर्यायमां होवा छतां, तेमांथी सुखनुं वेदन तो ज्ञानधारा साथे तन्मय छे, ने दुःखनुं
वेदन ज्ञानधाराथी अतन्मय छे.–अहो, आवुं सूक्ष्मभावोनुं भेदज्ञान, ते जैनमार्गनी
अलौकिक चीज छे. एक समयमां सुख ने दुःख, बंनेना छ–छ कारको पोतपोतामां
जुदेजुदा वर्ते छे. दुःखना कारको सुखमां नथी, सुखनां कारको दुःखमां नथी. ज्ञानना
कारको रागमां नथी, रागना कारको ज्ञानमां नथी.–आवुं सूक्ष्म भेदज्ञान
अनेकान्तमार्ग सिवाय बीजे क््यांय नथी. आवो अनेकान्तमार्ग ते भगवान
महावीरनो मार्ग छे.
नथी. अहो, आ तो सर्वज्ञनो मार्ग! तेमां कहेलुं आत्मानुं स्वरूप जेणे श्रद्धा–
ज्ञानमां पचाव्युं ते जीव न्याल थई गयो, तेना जन्म–मरणनो अंत आवी गयो ने
मोक्षसुखनो नमूनो तेणे चाखी लीधो.
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निजगुणनी रचना निजवीर्य शक्तिथी आत्मा पोते करे छे, तेमां वच्चे रागनी के बीजा
कोई निमित्तनी जरूर नथी. आवा आत्मानी प्रतीतवडे पंचपरमेष्ठी जेवुं सुख धर्मी
पोतामां अनुभवे छे. अरे, आवा चैतन्यतत्त्वना मंथनमां शांतिना तरंग पण कोई
जुदी जातना होय छे. एना अनुभवना आनंदनुं तो शुं कहेवुं?
ते कोतराई गई छे; अने हे जीव! तुं पण तारा अंतरमां भावश्रुतमां ते कोतरी ले! तो
तने तेनो अगाध महिमा समजाशे. अनंत शक्तिनुं मंदिर आ आत्मा पोते छे. तेनो
जेणे अनुभव कर्यो तेणे समस्त श्रुतज्ञान–परमागमनो सार आत्मामां टंकोत्कीर्ण करी
लीधो, अनंत शक्ति तेना आत्मामां कोतराई गई. अनंत शक्तिवडे तेणे पोताना
आत्माने शणगार्यो...शोभाव्यो...चैतन्यनी परम वीरता ने प्रभुता तेणे प्रगटावी.
ज्ञान–सुख–वीर्य बधी आत्मशक्तिओ एक साथे निर्मळभावपणे उल्लसे छे. आवो
स्वभाव प्रतीतमां आवतां ज अनंतगुणोमां निर्मळ परिणमन शरू थई जाय छे. ते
परिणमनमां राग न समाय. आवा शुद्ध गुणो ने पर्यायो ते बेमां ज्ञानस्वरूप आत्मा
रहेलो छे. धर्मीनी पर्यायमां चैतन्यना अनंत खजाना खुल्ली गया छे; अनंत शक्तिओ
तेनी पर्यायमां कोतराई गई छे. शब्दोथी लखवामां अनंत शक्तिओ न आवी शके,
अंतरना वेदनमां अनंतशक्तिनो स्वाद आवी जाय छे.
स्वसंवेदनमां आव्युं छे.
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बताव्या छे. अहीं समयसारना परिशिष्टमां ज्ञान साथेनी ४७ शक्तिना परिणमननुं
वर्णन छे–एमां अशुद्धता न आवे, एमां तो ज्ञान साथे वर्तती शुद्धता ज आवे.
चैतन्यत्व जाग्युं ने पोताना स्वभावरूप परिणम्युं तेमां अपार प्रभुता खीली नीकळी
छे...द्रव्यस्वभावमां प्रभुता तो बधा जीवोमां छे, अहीं तो ते प्रभुता पर्यायरूप परिणमी
तेनी वात छे. धर्मीनी पर्यायमां कर्मनी प्रभुता चालती नथी, धर्मीनो आत्मा पोते
प्रतापवंत स्वतंत्रतारूपी प्रभुता वडे शोभी रह्यो छे, तेनो प्रताप के तेनी शोभा कोईथी
हणी शकाय नहीं. अहा, चैतन्यप्रभुनी ताकातनी शी वात? एना प्रतापनी, एनी
शोभानी शी वात? चैतन्यनी प्रभुतामां राग–विकल्पो केवा? चैतन्यनी अखंड
शोभामां रागनुं कलंक केवुं? चैतन्यप्रभु स्वपर्यायमां स्वाधीनपणे शोभे छे, तेनी शोभा
माटे कोईनी पराधीनता नथी. स्वाधीनपणे शुद्धतारूपे पोते प्रभु थईने परिणमे छे. ते
परिणमनमां कर्म साथे संबंधनो अभाव छे. अहो, आवी प्रभुताना संस्कार आत्मामां
नाखतां एकवार तारी प्रभुता खीली नीकळशे. प्रभुत्वशक्ति जीवमां पारिणामिकभावे
त्रिकाळ छे–सहज स्वभावरूप छे. तेनो स्वीकार करनारने पर्यायमां तेनुं व्यक्त
परिणमन थवा मांडे छे एटले क्षायिकादिभावरूप प्रभुता प्रगटे छे. आम गुण–पर्यायनी
अलौकिक संधि छे. गुणनो स्वीकार करीने परिणमे, अने गुण जेवी शुद्ध पर्याय न थाय–
एम बने नहीं. स्वभावना भरोसे एनी पर्यायनुं वहाण तरवा मांड्युं. तेनुं चैतन्यतेज
खीलवा मांड्युं...तेना चैतन्य–तेजनी प्रभुता सामे कोई जोई शके नहि, तेना प्रतापने
कोई हणी शके नहीं.
आवी प्रभुताना संस्कार पर्यायमां पाड, तो अनादिना कषायना संस्कार तारी
पर्यायमांथी छूटी जशे. तारी पर्यायमां प्रभुतानो मोटो दरियो अनंत गुणथी भरियो छे,
ते स्वाधीनपणे शोभे छे.
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श्रद्धा–ज्ञानमां लीधो छे; परमात्माना घरमां ते प्रवेशी चुक्यो छे.–एना परमात्मस्वभाव
पासे रागनी ते शी किंमत छे? ‘सर्वज्ञस्वभाव’ मां रागनी सर्वथा नास्ति छे. एटले
आवो सर्वज्ञस्वभाव जेने पोताना अंतरमां बेठो ते जीव रागथी छूट्यो–भवथी छूट्यो,
मोक्ष तरफ चाल्यो...एनी परिणतिनो प्रवाह सर्वज्ञता तरफ चाल्यो.
एक जीव सातहाथनो होय ने केवळज्ञान पामे;
एक जीव सवापांचसो धनुषनो होय ने केवळज्ञान पामे;
बंने जीवनुं केवळज्ञान–सामर्थ्य सरखुं ज छे. आवो केवळज्ञानस्वभाव ते
अक्षरे) कोतराई गई छे, ने अंदर ज्ञानीना ज्ञानमां अनंती आत्मशक्तिओ कोतराई
गई छे. शब्दोनी कोतरणीमां अनंत शक्ति न समाय, पण स्वसंवेदन ज्ञानना
अनुभवमां अनंत शक्तिनो स्वाद एकसाथे समाय छे.
विकसवा मांड्युं, तेमां हवे संकोच नहि थाय. संकोच वगरनो विकास थाय एवो
आत्मानो स्वभाव होवाथी, आत्माना बधाय गुणोमां संकोच वगरनुं परिणमन थाय
छे.–आवुं परिणमन क््यारे थाय?–के ज्यारथी चैतन्यतत्त्वने प्रतीतमां लीधुं त्यारथी ज
आवुं परिणमन शरू थाय छे.
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थई जाय; पुण्यभावो पण संकोच–विकास स्वभाववाळा छे, तेनो विकास देखाय ते
कांई सदा विकासरूप नथी रहेतो, अल्पकाळमां पाछो पलटो थई जाय छे. पण
आत्मानो जे विकास अंदरनी शक्तिमांथी प्रगट्यो ते कदी हानि के संकोच पामे
नहि. केवळज्ञानादि लक्ष्मी प्रगटी तेनो विकास अनंत–अनंतकाळ सुधी एवो ने
एवो ज रह्या करे छे, ते केवळज्ञान कदी करमातुं नथी.
शुद्धआत्माने जे जाणे छे ते तेनुं सेवन करे ज छे, ने ते रागनुं सेवन छोडे ज छे,
एटले तेने शुद्धपर्यायरूप परिणमन थाय ज छे.–आवा जीवनी चैतन्यपरिणतिमां
जे शक्तिओ ऊल्लसे छे तेनुं आ वर्णन छे. सत् ‘छे’ तेनुं आ वर्णन छे.
आत्मा माने छे, एटले ईंद्रियातीत ज्ञाननुं कार्य तेने विश्वासमां आवतुं नथी.
ईंद्रियज्ञानने ज आत्मा मानीने ते अतीन्द्रियआत्मानो अनादर करे छे.
वखते रहेतुं नथी. अरे जीव! भगवान सर्वज्ञपरमात्मा आ तने तारी मोक्षनी
विभूति देखाडे छे. ईंद्रियज्ञानथी ज काम करनारो तुं नथी, तारामां तो स्वयं पोते
पोताने स्वसंवेदनवडे प्रत्यक्ष करवानी ताकात छे. आत्माने स्वसंवेदनवडे प्रत्यक्ष
करवामां बीजा कोईनुं आलंबन रहेतुं नथी, प्रकाशशक्तिना बळे आत्मा पोते
पोताने प्रत्यक्ष करवानुं काम करे छे. शक्तिना स्वसंवेदनवडे आत्मप्रभु आनंदना
झुले झूले छे.
ईंद्रियोनुं निमित्तोनुं रागनुं के ईंद्रियज्ञाननुं आलंबन रहेतुं नथी. द्रव्य–गुण–पर्याय
त्रणेमां प्रकाशशक्ति होवाथी ते प्रत्यक्ष थाय छे, एवो देखतो भगवान आत्मा छे.
आत्मा