PDF/HTML Page 21 of 41
single page version
वगर) देखे–साक्षात् देखे–अनुभवे एवी प्रकाशशक्तिवाळो आत्मा छे. आत्मामां
आवो प्रकाशस्वभाव होवाथी तेना बधा गुणोमां पण प्रकाशस्वभावपणुं छे, एटले
आत्माना द्रव्य–गुण–पर्याय बधुं स्वरूप स्वसंवेदनप्रत्यक्ष थाय एवो प्रकाशस्वभावी
आत्मा छे.
साक्षात्कार करावे छे. अहो! आ पंचमकाळमां पण आत्माने साधीने एकावतारी
थई शकाय–एवी सामग्री आ समयसारमां रही गई छे. ए तो जे अनुभव करे
एने एनी गंभीरतानी खबर पडे. माटे आचार्यदेवे कह्युं छे के आ समयसारमां
निजवैभवथी अमे जे आत्मस्वभाव बतावीए छीए–ते स्वानुभव–प्रत्यक्ष वडे तमे
प्रमाण करजो.
भगवान आत्मा स्वयं–प्रकाशमान एवा स्पष्ट स्वसंवेदननी शक्तिवाळो छे.
नाश करतां तेनामां कोई एवी अचिंत्य सातिशय अद्भुत शक्ति प्रगटे छे के ते
आत्माने प्रत्यक्ष करे छे.
हा, स्वसंवेदन वखते ते ज्ञानमांय एवी अद्भुतशक्ति खीली जाय छे.
होवा छतां तेमां एटली विशेषता छे के स्वानुभूतिना समयमां ते पण प्रत्यक्ष थई
जाय छे. मिथ्यात्वना नाशथी सम्यग्द्रष्टिजीवने खरेखर कोई एवी अनिर्वचनीय
शक्ति होय छे के जे शक्तिद्वारा आत्मा पोते पोताने प्रत्यक्ष थाय छे. अहीं
आचार्यदेवे प्रकाशशक्तिमां ए वात स्पष्ट करी छे.
PDF/HTML Page 22 of 41
single page version
कई वस्तु नियमा छे? ने कई वस्तु भजनीय छे? ते संबंधी समजण गतांकमां
दाखलानो खुलासो नीचे मुजब छे:–
(१) योगनुं कंपन होय त्यां केवळज्ञान...भजनीय छे, कोई ठेकाणे होय छे ने कोई
नथी; तेरमा गुणस्थाने योगनुं कंपन पण छे ने केवळज्ञान पण छे.
*
चौदमा गुणस्थाने केवळज्ञान होवा छतां योगनुं कंपन नथी.
भजनीय छे.
रीते सम्यग्ज्ञान साथे रागनुं होवापणुं भजनीय छे, नियमरूप नथी.
PDF/HTML Page 23 of 41
single page version
(१०) अयोगीपणुं होय त्यां केवळज्ञान नियमथी होय ज छे.
स्वानुभवथी प्रमाण करजो. जिनागम ए मात्र जोवानी, के एकला बाह्य शोभा–
शणगारनी ज वस्तु नथी, एना अंतर–हार्द सुधी पहोंचीने स्वानुभव करवानो छे.
एटले मात्र परमागम–मंदिरनो भव्य उत्सव करीने अटकशो नहि, जे परमागम
तेमां कोतराया छे ते परमागमना अभ्यासमां निरंतर चित्तने जोडीने, तेना ऊंडा
हार्द सुधी पहोंचीने, आनंदमय परमात्मतत्त्वने अनुभूतिगम्य करजो.–ए
जिनवाणीनी सर्वोत्तमभक्ति छे, ने ए वीतरागगुरुओनी भलामण छे. समयसार–
जिनागमना अंतमां ‘आनंदमय विज्ञानघन आत्माने प्रत्यक्ष करतुं आ अक्षय
जगतचक्षु पूर्णताने पामे छे’–एम कहीने “आत्मानो प्रत्यक्ष अनुभव” ते आ
आगमनुं फळ बताव्युं छे.
नथी, तेथी जे भक्तिथी श्रुतने उपासे छे ते जिनदेवने ज उपासे छे. आपणे हंमेशांं
देव–गुरु साथे शास्त्रनी पण पूजा करीए छीए ने त्रण रत्नोमां (देव–शास्त्र–गुरु
तीन) तेने पण गणीए छीए. परंतु, शास्त्रने मात्र उत्तम कपडावडे बांधवाथी के
पूंठा चडाववाथी ज श्रुतपूजा समाप्त थई जती नथी; वास्तविक श्रुतपूजा तो
एकाग्रचित्तथी तेनुं अध्ययन करवुं ने तेना भाव समजवा ते ज छे. आवी
भावपूजामां देव अने शास्त्रनी एकता थई जाय छे. अत्यारे आपणने आ क्षेत्रे
जिनदेवना साक्षात्कारनुं सौभाग्य तो नथी, परंतु जिनवाणीनो तो साक्षात्कार थाय
छे ने तेना अभ्यासवडे आत्मानो पण साक्षात्कार थई शके छे.
PDF/HTML Page 24 of 41
single page version
समयसारादि परमागमोमां भर्या छे. अने तेथी ज आपणा जैन परमागमोनी महानता
तथा पूज्यता छे. जिनागमोमां जे गंभीर चैतन्यभावो भर्या छे ते बीजा कोई
अमूल्य निधान मळशे. मुमुक्षुनी निरंतर भावना होय छे के–
दोषवादमें मौन रहुं फिर पुन्यपुरुष–गुण निशदिन गावुं.
गुणने पामतो नथी.
है, वह अनुकूल होती है या प्रतिकूल, यह लक्ष्यमें रखना जरुरी नहीं है। यदि
उन्हें किसी प्रकारका भय हो भी तो सबसे बडा भय आगमका होना चाहिए।
विद्वानोंका प्रमुख कार्य जिनागमकी सेवा है और वह तभी संभव है जब वे
समाजके भयसे मुक्त होकर सिद्धांतके रहस्यको उसके सामने रख सकें। कार्य
बडा है। इस कालमें इसका उनके ऊपर उत्तरदायित्व है, इसलिय उन्हें यह कार्य
सब प्रकारकी मोहममताको छोडकर करना ही चाहिए। समाजका संघारण करना
उनका मुख्य कार्य नहीं है। यदि वे दोनों प्रकारके कार्योंका यथास्थान निर्वाह कर
सकें तो उत्तम है। पर समाजके संघारणके लिये आगमको गौण करना उत्तम नहीं
है। हमें भरोसा हे कि विद्वान इस निवेदनको अपने हृदयमें स्थान देंगे और ऐसा
मार्ग स्वीकार करेंगे जिससे उनके सद्प्रयत्नस्वरूप आगमका रहस्य विशदताके
साथ प्रकाशमें आवे।।”
PDF/HTML Page 25 of 41
single page version
आगमना रहस्यनुं उद्घाटन करवाना अधिकारी छे. एटले, तेमणे एवुं लक्ष राखवुं
जरूरी नथी के अमारा अमुक कथनथी समाजमां केवी असर थशे!–अनुकूळ थशे के
प्रतिकूळ?–हा, जो तेओए कंईपण बीक राखवा जेवुं होय तो सौथी मोटो भय
आगमनो होवो जोईए–के आगमविरुद्ध कंई कथन न थई जाय. विद्वानोनुं मुख्यकार्य
जिनागमनी सेवा छे, अने ते त्यारे ज बनी शके के ज्यारे तेओ समाजना भयथी मुक्त
थईने सिद्धांतनुं रहस्य तेनी सामे राखी शके. काम तो मोटुं छे; अने आ काळमां तेनी
जवाबदारी विद्वानो उपर छे, माटे तेओए बधा प्रकारनी मोहममता छोडीने आ काम
करवुं ज जोईए. समाजनी देखभाळ करवी ए कांई विद्वानोनुं मुख्य काम नथी! जो
तेओ बंने प्रकारना कार्योनो यथास्थान निर्वाह करी शके तो ते उत्तम छे. पण समाजनी
देखभाळ माटे, के समाजना रंजन माटे, आगमने गौण करवा ते व्याजबी नथी. अमने
विश्वास छे के विद्वानो आ निवेदनने पोताना हृदयमां स्थान देशे, अने एवो मार्ग
अंगीकार करशे के जेथी तेमना सद्प्रयत्नना फळरूपे आगमनुं रहस्य वधारे स्पष्टताथी
प्रसिद्धिमां आवे.”
अंक वांच्यो तेथी मने आनंद थयो. जिनमंदिरमां रात्रे के वहेली सवारे–परोढिये
अष्टद्रव्यथी पूजन थाय नहि, तेमज सामग्री धोवी के अभिषेक करवो ते पण योग्य
नथी. तेमज पूजनसामग्रीमां सचित्त वस्तुओ वपराय नहीं. सौ मुमुक्षुमंडळोए आ
प्रमाणे जिनमंदिरोमां पूजनपद्धति करवी जोईए.” (पू. गुरुदेवे पण हमणां प्रवचनमां
कहेल के रात्रे आवी क्रियाओ करवी ते मार्ग नथी.) रात्रिभोजनादि पण जैनगृहस्थने
शोभे नहि; तेमां त्रसहिंसा संबंधी तीव्र कषाय होवाथी, जैनमार्गमां खूब भारपूर्वक
तेनो निषेध छे. वीरनाथना मोक्षगमननुं अढी हजारमुं वर्ष चाले छे त्यारे जैनसमाज
जागृत बने, ने ज्ञानशुद्धि साथे क्रियाशुद्धि वडे पण जैनधर्मनी प्रभावना वधारे ए सौनुं
कर्तव्य छे.
PDF/HTML Page 26 of 41
single page version
करतां वैराग्यथी कहे छे के हे माता! तुं शोकने जल्दी छोड. आ संसारमां भमतां केटलीये
वार हुं मोटी विभूतिवाळो राजा थयो ने केटलीये वार नानकडो कीडो थयो. तरंग जेवा
अस्थिर आ संसारमां कोई जीवने ईंद्रियसुख के दुःख कायम एकसरखा रहेतां नथी.
माटे दुःखमां शोक शो? ने सुखमां हर्ष शो? हे माता! आवा संसारथी हवे बस थाओ!
तुं पण कायरता छोडीने मने रजा आप...हवे हुं मारा अविनाशी चैतन्यपदने साधीश.–
एमनो वैराग्य! धन्य एमनुं जीवन!
वीतरागी साहित्यवडे आपनुं घर वधु शोभी ऊठशे.
छे. –आ मारा जैनधर्मनो ने श्रीगुरुनो प्रसाद छे.
PDF/HTML Page 27 of 41
single page version
गोखावता. (सन्मतिसंदेशना आधारे)
गोखावता; पण ते वखते तेनो कोई अर्थ समजातो न हतो. पाछळथी मोक्षमार्ग
प्रकाशक वांचतां तेमां ए शब्द आव्या, त्यारे तेनो अर्थ समजायो के ‘सिद्धो वर्णं
समाम्नाय’ एटले वर्ण–अक्षरोनी आम्नाय अनादिथी सिद्ध छे.–आ बंने द्रष्टांतथी
ख्याल आवशे के आपणा देशनी प्राचीन शिक्षणपद्धति केटली सरस संस्कारी हती!
बंधुओ, आपणा बाळकोने एवा ज उत्तम संस्कारो आपवानो जमानो फरीने अत्यारे
आवी गयो छे. वीरनाथना मोक्षगमनना आ रप०० मा वर्षमां सौ जागीए ने
बाळकोने पहेलेथी वीरशासनना उत्तम संस्कार आपीए.
रु नियमसार (गुजराती) मूळशास्त्र छपाईने तैयार थवा आव्युं छे.
रु सम्यक्त्व–कथा (आठ अंगनुं स्वरूप, आठ अंगनी कथा तथा आठ अंगना
रु आत्मधर्म दिवसे–दिवसे विकसी रह्युं छे. कागळ वगेरेनी सख्त मुश्केली वच्चे
संस्कारनी रेलमछेल करवा आत्मधर्म मंगावो; स्नेही–मित्रोने पण मोकलो.
PDF/HTML Page 28 of 41
single page version
फाडीने जोई रही हती. पण आ सर्वदमनने कोनी बीक? एणे तो निर्भयपणे सिंहणनुं
मोढुं झालीने कह्युं के– ‘उघाड तारुं मोढुं; मारे तारा दांत गणवा छे! ’ जुओ, केटली हिंमत!
मारो परमात्मा देखवो छे! मारा परमात्मामां तारो अभाव छे. चैतन्यमां वळी कर्म
केवा? आम, कर्मरूपी सिंहनुं मोढुं फाडीने पोते पोताना परमात्माने देखी ल्ये छे.
–आत्माने साधवा नीकळ्या ए ते कांई कर्मथी डरता हशे? ए तो पोतानी
प्रभुत्वशक्तिवडे कर्मने तोडीने परमात्मा थाय छे.
PDF/HTML Page 29 of 41
single page version
ज्ञानकल्याणक अने मोक्षकल्याणक थया छे तथा श्रीकृष्णना पुत्रो वगेरे ७र
करोडने सातसो मुनिओ सिद्धपद पाम्या छे. शत्रुंजयतीर्थमां त्रण पांडवो वगेरे
आठ करोड मुनिवरो सिद्धपद पाम्या छे. पावागढतीर्थमां रामकुमारो लव–कुश,
लाटदेशना राजा अने पांच करोड मुनिवरो सिद्धपद पाम्या छे; तथा
तारंगातीर्थमां वरदत्त–सागरदत्त वगेरे साडात्रण करोड मुनिवरो सिद्धपद पाम्या
छे. ते सर्वे सिद्धभगवंतोने अने सिद्धिधामने नमस्कार हो.
सिद्धभगवंतो चारे गतिथी पार छे.
त्रणगतिमां पंचपरमेष्ठीपद होतुं नथी; सम्यग्दर्शन अने आत्मज्ञान होई शके छे.
PDF/HTML Page 30 of 41
single page version
र. परमागम–मंदिरमां पण आ शक्तिना वर्णननो भाग ‘सोनेरी’ ...
३. परथी जीवे एवो पराधीन आत्मा नथी; आत्मा तो...
४. स्वसंवेदनवडे आत्मप्रभु...
प. वीरनाथना मोक्षगमनना आ रप००मा वर्षमां सौ जागीए, ने बाळकोने...
६. शब्दोथी लखवामां अनंत शक्तिओ न आवी शके, अंतरना वेदनमां...
७. आवुं जैनशासन समजीने महावीरप्रभुना...
८. स्वरूप–जीवन भगवानना अनेकान्तमार्गथी प्राप्त थयुं छे. –ए ज...
९. महावीरने ओळखवाथी आत्मा चैतन्यस्वरूपे ओळखाय छे; एटले.....
१०. दशमा बोल तरीके तमारे आ अंकमां जे जे तीर्थंकर भगवंतोना नाम
आपणा उपर उपकार करी रह्यो छे. आवा महावीर
भगवानना उपकारनी अंजलिरूपे योजायेल निबंध
लीधो छे; ते सौने धन्यवाद!
PDF/HTML Page 31 of 41
single page version
सोनगढ–ओफिस
PDF/HTML Page 32 of 41
single page version
आत्माने जे जाणे ते साचो जैन–पंडित छे. एटले जैनधर्मना साचा
पंडित के श्रावक थवा माटे आ ज पहेलुं कर्तव्य छे के देहादिथी भिन्न
पोताना आत्माने जाणीने अनुभववो.
साधी शकशे? धर्मीजीव जीवादितत्त्वना स्वरूपने बराबर जाणीने तेमांथी पोताना शुद्ध
चैतन्यतत्त्वने बीजाथी भिन्न अनुभवे छे; ए रीते सम्यग्द्रष्टि जीव शुद्धतत्त्वनो प्रकाशक
छे, ते ज खरो पंडित छे; तेने आत्मविद्या आवडे छे तेथी ते ज खरो विद्वान छे. तेना
सम्यक्त्व–परिणाम शुद्ध छे; व्यवहारना शुभरागपरिणाम ते कांई शुद्ध नथी, ते तो
छे.
थईने ते सम्यक्त्वने अनुभवे छे, सम्यक्त्वादिरूपे परिणमेला शुद्ध आत्माने ते वेदे छे.
उदासीनभाव होय छे, एटले तेना परिणाम संसारथी विमुख वर्ते छे. भले गृहवासमां
होय तोपण खरेखर ते संसारथी विमुख छे. अनंतगुणगर्भित श्रद्धानुं बळ ज कोई एवुं
PDF/HTML Page 33 of 41
single page version
मिथ्याद्रष्टिना परिणाम अशुद्ध छे, ते स्वभावथी विमुख छे ने संसारनी सन्मुख छे.
जेने शुभरागनी पण रुचि छे तेना परिणाम संसारनी सन्मुख छे, मोक्षसन्मुख तेना
परिणाम नथी.
आठ प्रधान गुणोमां ‘सम्यक्त्व–गुण’ कहेल छे त्यां ‘गुण’ एटले गुणनी शुद्धपर्याय,
दोष वगरनी पर्याय’ एवो तेनो अर्थ छे. सामान्यगुण नवो न प्रगटे, पण तेनी
शुद्धपर्याय नवी प्रगटे. श्रद्धागुण तो बधा जीवोमां त्रिकाळ छे, तेनुं शुद्ध परिणमन थतां
सम्यग्दर्शनादि शुद्धपर्याय प्रगटे छे, ते कोई विरल जीवोने ज थाय छे. आ रीते द्रव्य–
गुण–पर्यायने जेम छे तेम बराबर जाणवा जोईए. वस्तुना द्रव्य–गुण–पर्यायनुं ज्ञान ते
तो जैनधर्मनुं मूळ छे; ने ते सम्यक्त्वादिनुं कारण छे.
गुणनुं स्वतंत्र पर्यायरूप परिणमन.–आवा द्रव्य–गुण–पर्यायनुं यथार्थ स्वरूप धर्मी जीव
बराबर जाणे छे. भगवान जिनेश्वरना मतमां ज तेनुं यथार्थ प्रतिपादन छे, अने
जिनेश्वरना नंदन एवा सम्यग्द्रष्टि ज तेने बराबर जाणे छे. माटे कह्युं के सम्यग्द्रष्टि
जीव देव–गुरु–शास्त्रनो साचो भक्त छे अने तेमना कहेला धर्मने ते सम्यक्पणे आचरे
छे.
मुनिदशानी शी वात! एमनी शुद्धता ने एमनुं सुख तो सर्वार्थसिद्धिना देव करतांय
विशेष छे. ए तो परमेष्ठी पद छे, अरिहंतो अने सिद्धोनी साथे नमस्कारमंत्रमां एमनुं
नाम आवे छे; सम्यग्द्रष्टि जीवो पण दासानुदासपणे परम भक्तिथी एमना चरणोमां
मस्तक झुकावे छे. वाह, ए मुनिदशा! अरे, सम्यग्दर्शन पण अपूर्व दशा
PDF/HTML Page 34 of 41
single page version
छे त्यां मुनिदशानी तो शी वात! मुनिवरो तो आत्माना महा आनंदना झुले झूली रह्या
छे. अहो! ए तो संत–परमेश्वर छे, परम गुरु छे, मोक्षना उग्रपणे साधक छे,
सिद्धपदना पाडोशी छे. सम्यग्द्रष्टि जीव आवा मुनिनो भक्त होय छे; ने ते
सम्यग्द्रष्टिनी दशा पण अलौकिक होय छे.
सम्यक्त्वथी निर्जरा छे; भोगो तो बंधनां ज कारण छे.
भेदज्ञानशक्तिना बळे ते पोताना आत्माने शुद्धपणे प्रकाशे छे, एटले भोगादिमां तो
तेने स्वप्नेय सुख भासतुं नथी.
अने ते तो निर्जरानुं ज कारण छे, तेथी तेने निर्जरा चालु छे–एम समजवुं. पण
विषयोनो अशुभराग पोते कांई निर्जरानुं कारण नथी, ते तो बंधनुं ज कारण छे;
सम्यग्द्रष्टिने पण जेटलो राग छे ते तो बंधनुं कारण छे. आ रीते सम्यग्द्रष्टिने
भूमिकामुजब शुद्ध तेमज अशुद्ध भावो एकसाथे वर्ते छे, पण बंनेनुं कार्य जुदुं छे. तेमां
शुद्धभाव तो निर्जरानुं कारण छे एटले तेनी प्रधानता गणीने धर्मीने निर्जरा कहेवामां
आवी छे, ते यथार्थ छे.
छोड, ने शुद्ध सम्यक्त्वादिमां रत था. कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रना सेवनथी तो तुं नरकादिना
घोरदुःखने पामीश. रागना वधारनारा एवा कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रने सेवनार जीव
मोक्षने माटे अपात्र छे, ने ते नरकादिमां पडे छे; कदाच शुभरागथी स्वर्गमां जाय तो
त्यां पण मिथ्यात्वथी ते दुःखी ज छे, ते मिथ्यासेवनथी ते स्वर्गमांथी नीकळीने निगोद
वगेरेमां जशे;–एनां दुःखनी शी वात? दया करीने संतो कहे छे के हे भव्य! आवा
दुःखोथी छूटवा माटे तुं शुद्ध द्रष्टि वडे मिथ्यात्वने छोड, कुदेवादिना
PDF/HTML Page 35 of 41
single page version
थशे.
छे. शुभराग ते कांई खरूं चारित्र नथी, अर्थात् ते आत्मारूप नथी. आत्मामां एकाग्र
थईने आत्मारूप थयेलुं चारित्र ते खरूं चारित्र छे. एवा चारित्र वडे जे मोक्षने साधे छे
ते साधु छे.
धर्मध्यानसंयुक्त एवा ते साधु शुद्धधर्मने प्रकाशे छे. सर्वज्ञजिनदेवे जे तत्त्वो कह्यां छे
तेनुं ज तेओ प्रकाशन करे छे.
शुद्धआत्माने प्रकाशनारा एवा वीतरागमार्गने, तथा एवा जैनसाधुने ज धर्मी जीव
श्रद्धे छे; एनाथी विरुद्ध मार्गने ते कदी मानतो नथी. अहो, आवा वीतरागमार्गी
जैनसाधुओ शुद्धभाव वडे पोताना आत्माने तो भवसमुद्रथी तारे छे, तेम ज
शुद्धमार्गना उपदेश वडे जगतना भव्य जीवोने पण तेओ तारनारा छे. आ रीते
रत्नत्रयमार्गने अनुसरनारा जीवोने पण तारे छे.
आत्माने जाणे ते पंडित, ने न जाणे ते मूर्ख–एम ज्ञानी कहे छे.
PDF/HTML Page 36 of 41
single page version
अरिहंत–परमेष्ठी ते देव छे; तेमने जे ओळखे छे, तथा तेमना जेवो ज हुं पण आ
शरीरनी मध्ये केवळज्ञानादि स्वभावसहित छुं–एम जे जाणे छे एवा सम्यग्ज्ञानी ते ज
खरा पंडित छे.
एम शुद्धद्रष्टिथी जे अनुभवे छे ते ज खरो पंडित छे.
जेथी जन्म–मरणादि हीन, ने अष्टगुणसंयुक्त छे. (नियमसार गा. ४७)
विद्वान कहेवाय छे. अरे, जे भणतर भवथी तरवामां काम न आवे एवा भणतरने ते
पंडिताई कोण कहे? भाई, तें शास्त्रो जाण्या ने लोकोए तने पंडित मान्यो, पण जो
तारा आत्माने तें न जाण्यो तो तारुं शुं हित थयुं? तारी पंडिताई तने शुं काम आवी?
आत्माने जाण्या वगर परमार्थमार्गमां तो तुं मूर्ख ज रह्यो.–योगसारमां कहे छे के–
ते कारण ए जीव खरे पामे नहि निर्वाण. (प३)
परमात्माने जाणीने त्याग करे परभाव,
ते आत्मा पंडित खरो, प्रगट लहे भवपार. (८)
ते ज्ञाता सौ शास्त्रनो शाश्वत–सुखमां लीन. (९प)
जाणे कदी सौ शास्त्र पण थाय न शिवपुर राव. (९६)
PDF/HTML Page 37 of 41
single page version
परमार्थमार्गमां पंडित छे, बारे अंगनो सार तेणे जाणी लीधो छे. अने जे स्व–परनी
भिन्नता जाणतो नथी, परभावथी भिन्न शुद्धात्माने पोतामां अनुभवतो नथी, ते
अज्ञानी भले कदाच घणां शास्त्रो भणे तोपण ते मोक्षसुखने जरापण पामतो नथी. आ
के–
सम्यक्त्व–सिद्धिकर अहो, स्वप्नेय नहि दूषित छे. (मोक्षप्राभृत गा. ८९)
सत्य स्वरूपने तो जेओ जाणता नथी ने शास्त्रना जाणपणामां ज संतुष्ट थईने बेठा छे
एवा पंडितने माटे तो कहे छे के–
विद्याओमां आत्माने जाणनारी विद्या ते ज सौथी श्रेष्ठ विद्या छे. आवी अध्यात्मविद्या
करवा जेवुं छे.
ज्ञान–आनंदस्वरूप आत्मानो अनुभव कर्यो ते खरो पंडित छे, ते मोक्षनो साधक छे,
पंचपरमेष्ठीपदने ते पोतामां देखे छे. –
आचारज उवझाय ने साधु निश्चये ते ज. (१०४)
PDF/HTML Page 38 of 41
single page version
चिंतवतां ध्यानमां अमने कोई अपूर्व आनंद अनुभवाय छे; माटे ते ध्यान सत् छे, तेनुं
आ फळ छे. जो ते ध्यान जूठुं होय तो तेना फळमां आनंद केम आवे? पर्यायमां हजी
पूरुं परमात्मपणुं प्रगट्युं न होवा छतां, शक्तिमां रहेला परमात्मस्वरूपमां पर्यायने
लीन करीने परमात्मस्वरूपे ज पोते पोताने ध्यावतां धर्मीने निर्विकल्प अनुभवनो
एम जाणी हे योगीजन! करो न कांई विकल्प. (रर)
ध्यानवडे अभ्यंतरे देखे जे अशरीर,
शरमजनक जन्मो टळे, पीए न जननी क्षीर. (६०)
छे–ते रूपे पोताना आत्माने श्रद्धा–ज्ञान–चिंतनमां लेवो ते अरिहंत परमात्मानुं अभेद–
ध्यान छे, तेमां साधकने आत्माना आनंदनो अनुभव थाय छे, ने पर्यायमां शुद्धता थाय
कहेवडावे–पण जे एम माने के रागनी क्रिया अथवा शरीरनी क्रिया मोक्षनुं कारण थशे,
–तो ते पंडित मात्र फोतरां–खंडित छे, एटले के ते खरेखर पंडित नथी पण मूरख छे. हे
भाई! शास्त्रोए बतावेली मूळवस्तु तो तारा अंतरमां छे,–जे देहथी पार छे, रागथी
पार छे, ईंद्रियज्ञानथीये पार छे, एवी चैतन्यभावमय वस्तुने अंर्तद्रष्टिथी तुं जाण–
जैनधर्मना साचा पंडित के श्रावक थवा माटे आ ज पहेलुं कर्तव्य छे.
ना रोज स्वर्गवास पाम्या छे. तेओनो शास्त्राभ्यास घणो विशाळ हतो, मोटा
भागना संस्कृत श्लोको तेमने मोढे हता. तेओ श्री गणेशप्रसादजी वर्णीजीनी
हरोळना, प्राचीन पेढीना एक पंडित हता, ने हालना पंडितोमांथी सेंकडो पंडितोना
विद्यागुरु हता. अवारनवार सोनगढ आवीने तेओ गदगदित थई जता;
PDF/HTML Page 39 of 41
single page version
आपतां कहेलुं के अनंत तीर्थंकरोए जे मार्ग प्रकाश्यो ते ज मार्ग आपश्री देखाडी
रह्या छो. जयपुरमां विद्वानो वच्चे थयेली महत्त्वनी तत्त्वचर्चा वखते तेमणे
मध्यस्थी तरीकेनी सुयोग्य कामगीरी संभाळी हती. श्रीमान हुकमीचंदजी शेठना
गाळता हता. जैनधर्मना संस्कारथी रंगायेलो तेमनो आत्मा, जैनधर्मना
साररूप आत्मअनुभूति पामो–एवी भावना भावीए छीए.
लगभग ९०) ता. १४–१र–७३ ना रोज वढवाण मुकामे स्वर्गवास पाम्या छे.
तेओ वढवाण दि. जैन संघना प्रमुख हता, अने घणा वर्षोथी पू. गुरुदेवना
सत्संगमां आव्या हता. वढवाण शहेरमां वर्धमान भगवाननुं नवुं भव्य
जिनमंदिर बंधाववामां तेमना सुपुत्रोने सारो उत्साह छे.
वृद्धावस्थानी अनेक हाडमारी वच्चे पण अनेक वर्षोथी सोनगढ रहीने तेओ
सत्संगनो लाभ लेता हता. स्वर्गवासना दिवसे सवारे पण तेओ जिनमंदिरे
तथा प्रवचनमां आव्या हता.
उ. व. ७८) सोनगढ मुकामे मागशर वद अमासना रोज स्वर्गवास पाम्या छे.
तेमनी चारे पुत्रीओ बालब्रह्मचारी छे ने अनेक वर्षोथी सोनगढ रहीने
सत्संगनो लाभ ल्ये छे. स्व. छोटाभाई पण घणा वर्षोथी सोनगढ रहेता हता,
ने चालवानी तकलीफ छतां पूजन–प्रवचनादिनो नियमित लाभ लेता हता;
हतो, थोडा दिवस पहेलांं ज तेमणे कहेलुं के मारे तो जीवतां ज जमण करता जवुं
छे. ते अनुसार तेमणे जीवतां ज (पोष वद तेरसे परमागम उत्सवनी कंकोतरी
लखाय त्यारे) संघनुं जमण करवानुं जाहेर कर्युं हतुं.
–स्वर्गस्थ आत्माओ वीतराग–देव–गुरु–धर्मना आश्रये आत्महित पामो.
PDF/HTML Page 40 of 41
single page version
तथापि कुंदसूत्रोना अंकाये मूल्य ना कदी.
करुं आ कुंदसूत्रोनां अहो! मूल्य सुज्ञानथी.