: पोष : रप०० आत्मधर्म : २३ :
* जंबुस्वामी...वैराग्य *
अंतिम केवळी श्री जंबुस्वामीनी वात छे. ए धीर–वीर द्रढब्रह्मचारी श्री
जंबुकुमार ज्यारे दीक्षा लेवा तैयार थया छे त्यारे पोतानी शोकमग्न माताने संबोधन
करतां वैराग्यथी कहे छे के हे माता! तुं शोकने जल्दी छोड. आ संसारमां भमतां केटलीये
वार हुं मोटी विभूतिवाळो राजा थयो ने केटलीये वार नानकडो कीडो थयो. तरंग जेवा
अस्थिर आ संसारमां कोई जीवने ईंद्रियसुख के दुःख कायम एकसरखा रहेतां नथी.
माटे दुःखमां शोक शो? ने सुखमां हर्ष शो? हे माता! आवा संसारथी हवे बस थाओ!
तुं पण कायरता छोडीने मने रजा आप...हवे हुं मारा अविनाशी चैतन्यपदने साधीश.–
कति न कति न वारान् भूपतिभूरिभूतिः।
कति न कति न वारान् अत्र जातोस्मि कीटः।।
नियतमिति न कस्याप्यस्ति सौख्यं न दुःखं।
जगति तरलरूपे किं मुदा किं शुचा वा।।
ए प्रमाणे वैराग्यमय अमृतवचनो वडे माताने संबोधीने जंबुकुमार वन तरफ
चाल्या ने सुधर्मस्वामी पासे दीक्षा लईने थोडा ज वखतमां केवळज्ञानने साध्युं. धन्य
एमनो वैराग्य! धन्य एमनुं जीवन!
आपना घरमां निधान
आपना घरमां उत्तम धर्मसाहित्य अने ‘आत्मधर्म’ वसावो ते साहित्य आपना
वंश–परिवारने माटे एकवार उत्तम निधान थई पडशे. सोना–झवेरात करतांय उत्तम–
वीतरागी साहित्यवडे आपनुं घर वधु शोभी ऊठशे.
जैनधर्मनो प्रसाद–
हुं दुःखी तो घणा भवोमां थयो. बस, हवे आ भव दुःखी थवा माटे नथी; आ
भव तो सुखी थवा माटे छे. दुःखनो अंत करीने हवे तो सादि अनंत सुखी ज रहेवानुं
छे. –आ मारा जैनधर्मनो ने श्रीगुरुनो प्रसाद छे.