फोन नं. ३४ “आत्मधर्म” Regd. No. G. 128
पंचकल्याणक वगेरे धर्मोत्सवमां अवश्य जवुं जोईए
पंचाध्यायी गा. ७३९ मां कहे छे के –
नित्यै नैमित्तिके चैवं जिनबिम्बमहोत्सवे।
शैथिल्यं नैव कर्तव्यं तत्त्वज्ञैः तद्विशेषतः।।
जिनमंदिर कराववुं, तेमां प्रतिष्ठा कराववी, साधुओनी सेवा तथा
तीर्थयात्रा करवामां तत्पर थवुं, साधर्मीनुं सन्मान करवुं –वगेरे उपदेश आप्या
बाद कहे छे के, ए प्रमाणे धर्मात्मा–श्रावके नित्य अने नैमित्तिकरूपथी
थवावाळा जिनबिंबमहोत्सवमां शिथिलता न करवी, तथा तत्त्वज्ञानीओए तो
ते शिथिलता कदी पण अने कोई प्रकारथी न करवी, एटले के तेवा महोत्सवमां
सामेल थईने उत्साहथी भाग लेवो.
आपणे परमागममंदिरमां वीरप्रभुनी प्रतिष्ठानो भव्य महोत्सव
नजीक आवी रह्यो छे, जिज्ञासुओ तेमां उत्साहथी भाग लेवा तत्पर छे.
उपरनो श्लोक ते भावनामां पुष्टिकारक छे. महोत्सवमां हजारो साधर्मीजनो
एकठा थया होय, एटले तेवा प्रसंगमां तत्त्वज्ञ धर्मात्मानी उपस्थिति विशेष
प्रभावनानुं कारण थाय छे. माटे धर्मी श्रावकोए तेवा महोत्सवमां जरूर
उत्साहथी जवुं, तेमां कोई प्रकारे शिथिलता करवी नहीं.
धर्मात्मानो मार्ग
अहो, अमे चैतन्यना साधक, आनंदपुरीना पंथी! दुनियाना राग–
द्वेषने गांठे बांधवानी अमने क्यां फूरसद छे! चैतन्यनी साधनामां वच्चे
रागद्वेष पालवता नथी. दुनियाना जीवो राग–द्वेष करे तो तेथी अमारे शुं?
अमे ते रागी–द्वेषी जीवोने जोवामां अटकनारा नथी. अमे तो अमारा वडील
वीतरागी जीवोने देखीने आदरथी तेमना मार्गे जनारा छीए...अमारा
मार्गमां विघ्न नथी, रागद्वेष नथी, कलेश नथी, भय नथी.
अमारो मार्ग निर्विघ्न छे, वीतराग छे, शांत छे, निर्भय छे.
साधर्मीओ सौ! तमेय अमारी साथे ज आवा मार्गे चालो.
प्रकाशक: (सौराष्ट्र) प्रत: ३५००
मुद्रक: मगनलाल जैन, अजित मुद्रणालय: सोनगढ (सौराष्ट्र) : पोष (३६३)